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लघुकथाएँ - देश - रामदेव धुरन्धर
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कहने की भाषा
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वयोवृद्ध सज्जन सत्तर वर्ष की अपनी गृहस्थी से मुक्त
हो कर ईश्वरीय सत्ता में विलीन हो रहा था। प्राण अब जाएँ, तब जाएँ। दो दिन
उस की साँसें गले में अटकी रहीं। एक बेटा विदेश में था। बाकी भरा - पूरा
उस का परिवार उसके चारों ओर एकत्र था। एक पड़ोसी उसे देखने आया। उसे वैसी
कराहती हालत में देखकर पड़ोसी ने कहा- ‘उसके प्राण विदेश गए उस के बेटे
में अटके हुए हैं।’।
पर सच तो यह बिल्कुल नहीं था। बल्कि इस बेटे के कारण
वह यथा शीघ्र मर जाना चाहता था। केवल उसे पता था- बेटा विदेश में आवारा
निकल गया है और ऐड्स जैसे जानलेवा रोग से वह पीड़ित है। बेटा वहाँ भीख से
अपना पेट पालता था।
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