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लघुकथाएँ - देश - सुरेन्द्र मंथन





लोग


बालकनी में शहर की क्रीम के साथ बैठकर फिल्म देखने का अपना ही लुत्फ है।  आम आदमी से कुछ ऊँचा उठने का अहसास मन में गुदगुदी पैदा करता है। फिल्म की रील पुरानी थी शायद; तभी बार–बार टूट रही थी। अच्छी–खासी फिल्म बेकार हुई जा रही थी। शोर का गुब्बारा दो–दस की कुर्सियों से उठकर, बालकनी पार कर जैसे ही आपरेटर के कानों से टकराता; एकाएक रील जुड़ जाती। बार–बार के उभरते शोर से थियेटर का माहौल फुटपाथी बस्ती जैसा हो गया था। साथ बैठे साहब लोगों की बीवियाँ और उनके पब्लिक स्कलों में पढ़ते बच्चा लोग कानों पर हथेलियाँ रख लेते। इन्टरवल में मैंने कोल्ड ड्रिक ली; सिगरेट सुलगाया और सधे हुए कदम रखता यूरिनल की तरफ बढ़ गया।
पिक्चर खत्म होने पर रिक्शे के इंतजार में सड़क–किनारे खड़ा हो गया। एक के बाद एक रिक्शा मेरे संकेत को नजरअंदाज करता गुजरता गया। पता नहीं, मेरी आवाज को जंग लग गया था, जो उन पर पहुँच ही नहीं पाती थी। तभी एक देहाती से दिखते आदमी ने मेरी परेशानी भाँपकर, ऊँची दबंग आवाज में एक रिक्शा रुकवा दिया। धन्यवाद के लिए उठी मेरी नजर उसकी उँगलियों में फँसी दस की दो टिकटों पर अटक गई।
पता नहीं क्यों, उसकी यह हरकत मुझे कतई बुरी नहीं लगी। मन हुआ, रिक्शे से उतरकर पैदल ही घर की तरफ चल दूँ।                                                               -0-

 
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