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लघुकथाएँ - देश - राधेश्याम  ‘भारतीय’





छवि


राकेश ने जब से इस आफिस में ज्वाइन किया तो उसे स्टॉफ सदस्यों से ये ही शब्द  सुनने को मिलते कि साहब बड़े कठोर दिल के आदमी हैं। अपनी मनमर्जी चलाते हैं हमेशा ।
राकेश के जेहन मे भी साहब के प्रति ऐसी ही छवि बन गई।
 एक दिन चुनाव कार्यालय से एक पत्र आया और उसका जवाब उसे छुट्टी वाले दिन  देकर आना था। उसने इस विशय में स्टॉफ सदस्यों से बात की। और साथ में अपनी मजबूरी बताई कि रिश्तेदारी में एक डैथ हो गई है। मुझे वहाँ जाना है, नहीं तो मैं चला जाता।
‘‘ भाई , हमें तो लगता नहीं साहब आपको जाने देंगे; क्योकि वे बात–बात पर आदर्शवादी बन जाते हैं। कहेंगे कि आप से सबन्धित डाक है तो आपको ही जाना होगा।’’
‘‘पर, मेरी मजबूरी तो समझ सकते हैं।’’
‘‘उन्हें आपकी मजबूरी से कुछ लेना देना नहीं। अरे, हम तो उसकी रग–रग से वाकिफ हैं । आप जाकर देख लीजिए।’’
‘‘ठीक है, देखता हूँ।’’ और इतना कह वह साहब के पास पहुँचा और अपनी मजबूरी बताई।
सभी बातें सुनने के बाद साहब कहने लगे, ‘‘मिस्टर रस्तोगी, वैसे तो आपको ही जाना चाहिए पर आप कह रहे हैं कि आपको मजबूरी है, तो आप ऐसा करें आप किसी स्टॉफ सदस्य को कह कर देख लीजिए, यदि वो जाने के लिए तैयार हो तो  ........क्योंकि छुट्टी का दिन है और सभी छुट्टी का आनंद...’’
‘‘नहीं सर, स्टॉफ सदस्यों में से मैं जिस किसी को भी कहूँगा ,वही जाने को तैयार होगा।’’
‘‘ठीक है, जो जाना चाहेगा, मैं उसके नाम आर्डर निकाल  दूँगा।’’राकेश मन ही मन प्रसन्न हो उठा। पर, उसकी प्रसन्नता ज्यादा देर टिकी न रह सकी ; क्योंकि जैसे ही उसने बात शुरू की, सब एक–एक करके चलते बने।
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