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लघुकथाएँ - देश - सुधा गुप्ता
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मल्लिका के फूल
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ग्रीष्मावकाश,
हर वर्ष की तरह भतीजी एक सप्ताह के लिए आई हुई है, अपनी छह वर्षीय बिटिया
उदिता के साथ चंचल,बातूनी,मासूम,एक पल भी टिक कर बैठती नहीं सो मामा लोग
लाड में ‘उड़ी’ कहकर पुकारते है। मेरे पास उसका खूब मन लगता है; बार–बार
ठेल कर कहती हूँ, ‘‘जाओ, उदि कुछ देर को मामा के कमरे में सो लो, फिर
आना....मगर वह आँख बचा कर भाग आती है....फिर ...फिर गर्म दोपहरी–भीषण
तपन–बिजली गुल। बरामदे में आ बैठी हूँ।
फाटक खुलने की चरमराहट। ऐसी विकट बेला में कौन हो सकता है? कोरियर वाले भी सुबह ग्यारह बजे तक या शाम पाँच बजे आते है....
एक नारी कंकाल.....बाई बांह में चिथौड़ो की पोटली–सी। पास आ गई, ‘‘ माँ
जी, थारे पैरो लागूँ, दो घूँट ठंडा पानी प्यादो...किरपा होगी...भौंचक्की
सी उठी एक खाली बिस्लिरी की बोतल में थोड़ा सादा,थोड़ा ठंडा पानी
भरा....इस ख्याल से कि इतनी गर्मी में तेज ठंडा पानी नुकसान करेगा–जाकर
उसे दिया तो लिया नहीं, पोटली नीचे रखकर, ओंक बना दी....पोटली में सरसराहट
हुई, अरे! यह तो जीता जागता बच्चा है!! देखकर रुह काँप गई....हड्डी पर खाल
चिपकी हो जैसे! कोटल धँसी आँखें! इतनी तेज धूप और तपन में यह माँ–बेटा
सड़कों पर धक्के खाते घूम रहे है....हा!दैव! तुम्हारी लीला तुम ही जानो!
हत् बुद्धि होकर जाने क्या सोच, भीतर जाने को मुड़ी कि अचकचा गई–उदि खड़ी
हुई देख रही थी। मेरा आँचल पकड़कर बड़ी मासूमियत से बोली, ‘‘नानी, आप कहते
हो, खाली पानी नुकसान करता है, इन्हें कुछ खाने को दो न! और नानी शरबत रुह
आफजा बना दो...नानी उस छोटे बेबी को फ़्रूटी दे दो न!’’ अपनी बुद्धिहीनता
पर क्रोध आया–यह बात पहले मेरे दिमाग में क्यों नहीं आई? और यदि यह मेरा
सहज कर्तव्य था तो लज्जा के सागर में धकेल
नरमी से उदि को सहलाया–‘‘उन्हें रोक लो ,नाश्ता निकाल ले लेती हूँ’’ एक
पेपर प्लेट में कुछ खाने का सामान रखकर फिर गिलास में जि से ठंडा दूध भरा
और फिर उदि से कहा, ‘‘तुम यह प्लेट पकड़ो’’ उसने तुरन्त प्रतिवाद किया,
‘‘नहीं बेबी के लिए मिल्क लेकर जाऊँगी।’’
! बाहर बैठी महिला को एहतियात से दूध का गिलास पकड़ाती हुई बोली,
‘‘बेबी को दूध पिला दीजिए’’- उस महिला की वह दृष्टि मेरे ज़हन में
ऐसी गहरी उतर गई कि आजीवन नहीं भूलूँगी। गहरी तपन, गर्म हवा के थपेड़े
जाने कहाँ गुम हो गए....अचानक जाने कैसे शीतल बयार का झोंका आया और
मल्लिका के फूल बरसा गया!
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