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लघुकथाएँ - देश - मालती बसंत





अपनी–अपनी चिंता


‘‘पता नहीं कब आएगा,’’ लम्बी–लम्बी उसाँसे  भरती माँ फिर जाकर बिस्तर पर लेट जाती लेकिन नींद उनसे कोसों दूर थी। रात के बारह बज चुके थे। तभी दरवाजे पर घंटी बजी, माँ न दरवाजा खोला, अपने बेटे को देख उन्हें तसल्ली हुई। फिर भी उन्होंने बेटे पर अपनी चिंता व्यक्त की....
‘‘ बेटा तेरा इंतजार करते–करते दिल बड़ा घबरा रहा था, कैसी–कैसी  शंकाएं मन में उठ रही थी। आजकल का जमाना खराब है।’’
‘‘ माँ  तुम भी तो बेकार ​चिन्ता करती रहती हो, तुम्हारी चिंता करने से होनी क्या बदल जाएगी।’’
‘‘क्या बात है बेटा, क्यों परेशान हो? ’’ बूढ़ी हो चुकी माँ ने अपने बेटे को परेशान सा इधर–उधर कमरे में चहल कदमी करते देख पूछा।
‘‘ माँ  अभी तक बिंटू स्कूल से नहीं आया।’’
‘‘आता होगा।’’
‘‘अरे माँ  तुम नहीं जानती,आजकल जमाना बड़ा खराब है। बच्चों को स्कूल से अगवा तक कर लिया जाता है।’’
‘‘तुम्हारी चिंता करने से क्या होगा, तुम्हारी चिंता करने से क्या होगा होनी बदल जाएगी।’’
‘‘ माँ, तुम भी कैसी बात करती हो।’’
‘‘बेटा, मैं क्या जानूं आजकल का चलन, पहले मैं तुम्हारे लिए चिंता करती थी,तो तुम यही जवाब दिया करते थे। अपने बच्चे के लिए चिंता तो हर माँ–बाप को होती है।’’
‘‘हाँ माँ, तुम्हारी बात को आज ही समझ पा रहा हूँ। सच! माँ–बाप जैसा हितैषी कौन है?’’

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