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लघुकथाएँ - देश - प्रेम गुप्ता ‘मानी’
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मुख़ौटे
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उस
घर के लिए यह कोई नई बात नहीं थी । पर उस दिन तो हद ही हो गई...। ठण्डे
गैस-स्टोव के ऊपर रख़ी पतीली की अधपकी दाल सारी कहानी कह रही थी, तो रसोईघर
के फ़र्श पर लुढके बर्तन अपनी किस्मत को रो रहे थे । बाहर ड्राइंगरूम की
हालत भी कुछ ऐसी ही थी । ऐसी परिस्थिति में बच्चे भी सहमे बैठे थे ।
उस
घर के इस रेखाचित्र का कोई ख़ास कारण नहीं था । बस्स , पति-पत्नी के
सम्मिलित गुस्से ने तिल का ताड बना दिया था । थोडी देर पहले ही उन दोनो
में बच्चों को लेकर भीषण तकरार हुई थी और यह अस्त-व्यस्त स्थिति उसी का
परिणाम थी ।
घर
के सामानों पर गुस्सा उतारने के बाद वे दोनो अभी एक-दूसरे पर गुस्सा उतार
ही रहे थे कि तभी बाहरी दरवाज़े की कुण्डी ख़डकी । उन दोनो के लडने में
व्यवधान पडा तो पति ने आग्नेय दृष्टि से पत्नी की ओर देख़ा," जाओ, जाकर
देखो, तुम्हारे मायके से कोई मरने तो नहीं आया है...।"
प्रत्युत्तर में पत्नी ने भी आग बरसाई," तुम्हीं देखो, मरने तो अक्सर
तुम्हारे ही घर से कोई आता है...।"
दरवाज़ा ख़ोलने के सवाल पर दोनो उलझ ही रहे थे कि तभी उनके बेटे ने दरवाज़ा
खोल दिया," मम्मी...पापा... मिश्रा अंकल-आंटी आए हैं...।"
मिश्रा दम्पती के आने की बात सुन कर दोनो ही हड़बड़ा गए,"
अरे...आइए...आइए...बहुत दिनो बाद आना हुआ...। अभी हम लोग आप ही को याद कर
रहे थे...।"
पति
ने उन दोनो को बैठने का इशारा किया तो सहसा पत्नी व्यस्त हो उठी," अरे
मुन्नी-पप्पू...यह सब सामान तो ठीक से रख दो...। अंकल-आंटी क्या
सोचेगे...?" फिर मेहमानो की ओर मुख़ातिब हुई," क्या बताऊँ...ये बच्चे तो
धमाचौकड़ी मचा कर पूरा घर ही उलट-पलट कर देते हैं...।"
माँ
की बात पर हतप्रभ होकर नन्हीं -मुन्नी कुछ कहने को घूमी कि तभी समझदार
पप्पू उसे घसीटता बाहर ले गया ।
थोड़ी
देर बाद बडी आत्मीयता से एक-दूसरे से सटे बैठे पति-पत्नी मिश्रा जी की
किसी बात पर ठहाके लगा रहे
थे...।
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