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लघुकथाएँ - देश - डॉ सतीशराज पुष्करणा





उधेड़बुन



मानवता ने वर्षा का दृश्यावलोकन करने हेतु अपने कमरे की खिड़की खोली। हरे-भरे पेड़ों का भीगना जहाँ उसे अच्छालग रहा था, वहीं जनवरी की ठंड उसे परेशान करने लगी थी।वह खिड़की बंद करने जा ही रही थी कि उसने एक पेड़ के नीचे एक अधेड़ को भींगते-कँपकँपाते हुए देखा तो उसे दया आ गयी। उसने खिड़की बंद कर दी....उसने सोचा, उसे क्या! कोई जिये या....। किन्तु उसका मन नहीं माना। उसने फिर खिड़की खोली, अब उसका ध्यान पेड़ों पर नहीं....उस अधेड़ पर केन्द्रित था! दयाभाव पुनः उमड़ा। उसने फिर खिड़की बंद कर दी। उसने अपने कमरे में चारों ओर दृष्टि घुमाई....सभी चीजे़ं खामोश थीं। सभी निर्जीव-सी अपने-अपने स्थान पर पड़ी थीं। उसे उनमें सौन्दर्य का कोई आभास नहीं हुआ।

    उसे चिन्ता हो आयी कि बच्चे अभी स्कूल से नहीं आये ....पति के कार्यालय से लौटने तक यदि वर्षा थम जाए तो .....वह घर के मुख्य-द्वार पर आ खड़ी हुई। उसने जैसे ही दरवाज़ा खोला, उसकी दृष्टि फिर उसी अधेड़ पर जा चिपकी।इस बार उस अधेड़ ने बहुत ही कातर एवं याचनाभरी दृष्टि से उसकी ओर देखा। उसकी ममता का सागर पुनः उमड़ पड़ा।उसने सोचा संकेत से बुला ले .....पति का पुराना कुर्त्ता-पैजामा और स्वेटर दे दे। कुछ बिस्कुट आदि के साथ गर्मा-गर्म चाय पिला दे। चाय पीने को उसका भी मन हो आया। किन्तु संकेत में उठता हुआ हाथ एकाएक रुक गया। वह सोचने लगी....घर में अकेली है। कहीं उस अधेड़ ने कोई ऐसी-वैसी हरक़त...।किन्तु अगले ही क्षण उसके जे़ह्न में आया कि....दुनिया में किसी पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता....क्या सारे पुरुष या फिर सारी स्त्रियाँ....नहीं! नहीं! ये सब अपने मन का वहम एवं संकीर्णता है....फिर वह कोई अबला थोड़े ही है....यह सोचते ही उसने अधेड़ की याचनाभरी दृष्टि को हाथ से संकेत किया ....अपने घर के बरामदे में आने को कहा।
    अधेड़ किसी तरह सिमटा-सिकुड़ता-सा उठा और धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगा।
बरामदे के कोने की ओर संकेत करते हुए मानवता ने कहा, ‘‘भैया! वहाँ बैठ जाओ। मैं चाय लाती हूँ।’’

    उत्तर में अधेड़ ने कृतज्ञता भरी दृष्टि से देखा और चुपचाप ठिठुरता हुआ बैठ गया।वह किचेन में चली आयी। उसने फिर सोचा, उसने उसे क्यों बुला लिया? कोई आता-जाता देखेगा तो क्या कहेगा! मगर उसके मन ने कहा ...... मानवता भी तो कोई चीज़ है।

चाय का पानी रखकर वह दूसरे कमरे में गयी और पति का पुराना कुर्त्ता-पैजामा तथा स्वेटर ढूँढ़ने लगी। ज़्यादा वक़्त नहीं लगा, वे तीनों चीज़ें मिल गई गईं। वह ले-जाकर देने गयी और एक दृष्टि किचेन में भी डाली, पानी खौल रहा था। रुक कर
उसने उसमें चाय की पत्ती आदि डाल दी और वह बरामदे में चली गयी। उसने तीनों वस्त्र उसे पहनने हेतु दे दिये और पुनः किचेन में लौट आयी।

खौल रहे कहवे में उसने चीनी एवं दूध मिलाकर चाय तैयार कर ली। अपने लिये उसने स्टील के गिलास में डाली तथा उसके लिये शीशे के गिलास में। शीशे का गिलास उठाकर और हाथ में ही चार-पाँच बिस्कुट लिये वह बरामदे में चली
गयी, ‘‘लो! भैया पी लो।’’

उत्तर में उसने कृतज्ञता भरी दृष्टि से देखा और वह किचेन में लौट आयी। उसने स्टील का गिलास उठाया और कमरे में चली गयी, चाय सिप करते-करते वह सोचने लगी। घर  में वह अकेली है। बाहर बरामदे में वह अधेड़ ..... पुरुष, परपुरुष!वह परेशान हो उठी कि कहीं ....।

बचपन में पढ़ी उस एक कथा का स्मरण हो आया कि ऐसे ही कोई सज्जन ठंड से मर रहे साँप को उठा लाया था। घर लाकर उसे दूध पिलाया। जैसे ही दूध पीकर साँप में गर्मी आई, उसने उस सज्जन को डस लिया। यह बात जे़हन में आते
ही वह परेशान हो उठी। उसने अपना गिलास एक ओर रखा और लपककर बरामदे की ओर बढ़ी।

मानवता ने देखा .... वर्षा थम गयी है। अधेड़ चाय-बिस्कुट चट कर चुका है। अपने को संयमित करते हुए वह बोली, ‘‘भैया! वर्षा थम गयी है ...... अब तुम जाओ।’’
वह उठकर गेट से बाहर चला गया। उसके जाते ही उसने खट् से गेट बंद कर दिया और लौटकर अपने कमरे में जाकर पुनः चाय सिप करने लगी। चाय कुछ ठंडी हो चुकी थी।
                                        
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