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लघुकथाएँ - देश - संतोष सुपेकर





बहुवचन का सुख



घर पर परिवार के सदस्यों के बीच जब किसी किसी बहस में घिर जाता हूँ तो किसी एक सदस्य को अपने साथ शामिल कर लेता हूँ और यूँ ‘मैं’ से ‘हम’ बनकर बहस करता हूँ 

दफ्तर में जब मेरी कोई गल्ती पकड़ी जाती है तो ‘हम कर्मचारी’ बनकर स्टाफ को संगठित कर लेता हूँ।

बिल भरने की लाइन में खड़ा होते समय ‘हम आम आदमी’ का रोष पैदा कर लेता हूँ।

अपने मजहबियों के बीच होता हूँ  तो ‘हम मजहबी’ और गैर मजहबियों के बीच होता हूँ  तो ‘हम सब इंसान’ का जज्बा खड़ा कर लेता हूँ।

सड़क से गुजरते समय किसी छोटे मोटे गड्ढ़े में वाहन चला जाता है तो ‘हम पीडि़त’ चिल्ला–चिल्लाकर भीड़ इकट्ठी कर लेता हूँ।

भीड़ से निपटते की नौबत आती है तो खुद भी भीड़ में शामिल होने का प्रयास करता हूँ।

मैं,कभी ‘मैं’ बनकर रहा ही नहीं, हमेशा ‘हम’ बनकर ही सुरक्षा का अनुभव करता आया हूँ। यह अलग बात है कि ‘हम’ के मायने बदलते रहे है, हमेशा ।

ई-मेल-santoshsupeker@rediffmail.com                                       
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