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लघुकथाएँ - देश - रंजीत कुमार ठाकुर  





दिल्ली–दर्शन



उसकी आँखों में आँसू  भर आए। हर न्यूज चैनल पर एक ही खबर थी – दिल्ली में एक बार फिर हुई मानवता शर्मसार और आगे संवाददाता बता रहे थे कि किस तरह से सामूहिक बलात्कार की वारदात हुई। किषोरशो वृद्ध, वयस्क, स्त्री हो या पुरुष–सब माइक के सामने एक ही बात कह रहे थे–पुरुष को मानसिकता बदलने की जरूरत है। जानवर की तरह बर्बर व्यवहार करने वालों को फाँसी पर तो लटकाया ही जाना चाहिए। उसके  दु:ख का कारण यह था कि वह पुरुष था। नैतिक रूप से वह स्वयं का दोषी महसूस करने लगा था, इसलिए रो पड़ा था।
गृहकार्य से फुर्सत पाकर जब पत्नी उनके पास आई तो आश्चर्यचकित रह गई। ‘‘क्या बात है।’’ बड़़ी विकलता थी उसके शब्दों में।
‘‘कुछ नहीं।’’ पति ने स्वयं को सहज करने का प्रयास किया।
‘‘आँसू यूँ हीं नहीं आते’’ -पत्नी ने अपनेपन से उसके सिर पर हाथ फेरा।
‘‘पुरुष जानवर बनता जा रहा है–डरता हूँ– नई  बीमारी तेजी से फैल रही है। यह दिल्ली से हमारे गाँव–घर तक न पहुँच जाए। फिर क्या होगा–मेरे जैसे लोग दिन–रात रोएँगें, क्योंकि हम स्वयं को स्त्री में नहीं बदल सकते।’’
पत्नी ने पहला काम यह किया कि उठकर टेलीविजन का स्वीच ऑॅफ कर दिया। फिर इत्मीनान से आकर पास बैठ गई। मुस्कराती हुई बोली – ‘‘सब न्यूज चैनल का ही दोष है। केवल नकारात्मक चीजों को दिखाते हैं, वह भी इस तरह से कि इसका प्रचार–प्रसार बढ़ता रहे। नैतिकता नाम की चीज नहीं रह गई है इनके पास। सिर्फ़ पैसा बनाना है–समाज चाहे जहाँ पहुँच जाए।’’ पति ने उसकी बातों से सहमति जताई और आगे जोड़ा, ‘‘मुझे दिल्ली जाना होगा।’’
पत्नी अवाक् । बोली –’’क्या कहते हैं?’’ 
‘‘मेरी जरूरत अब इस गाँव को नहीं है। मैं समझता हूँ अब दिल्ली को मेरी जरूरत है। मैं प्रयास करूँगा– पुरुष की मानसिकता को बदलने की। एक जिम्मेदार व्यक्ति ही दूसरे को जिम्मेदारी का एहसास करा सकता है–यह तो तुम मानती हो।’’
पत्नी ने रोका, ‘‘आपकी जरूरत इस गाँव को है–मुझे है। दिल्ली को आप जैसे लोगों की कतई आवश्यकता नहीं है। कहीं आग लग जाए ,तो उसमें जाकर स्वयं को स्वाहा करने से अच्छा है कि अपने गाँव–समाज, घर परिवार को बचाने का प्रयास किया जाए।’’
 पति ने एक बार फिर पत्नी की बातों से सहमति जताई, किन्तु दिल्ली जाने की बात पर अड़े रहे, बोले ‘‘ आश्चर्य है कि तुम मुझे पूरी तरह नहीं पहचान पाई हो– मैं परिवर्तन ला सकता हूँ।’’
और वह दिल्ली के लिए प्रस्थान कर गए। तकरीबन दो महीने बाद वह गाँव लौटे। चेहरे पर असफलता का भाव स्पष्ट दिख रहा था। पत्नी के चेहरे प्रसन्नता फैल गई थी और मुख से सहज ही एक प्रश्न फूटा–‘‘क्या हुआ?’’
    पति ने थोड़ी देर तक पत्नी की तरफ देखा, फिर गंभीर स्वर में बोला–‘‘अभी कुछ नहीं हो सकता। चाहे सरकार हो, न्यायपालिका हो या फिर सामाजिक संगठन से जुड़े स्त्री पुरुष, सब एक तरफ आधुनिकता के नाम पर स्त्रियों के नंगेपन को प्रोत्साहन दे रहे हैं, और दूसरी तरफ न्याय के नाम पर लड़कों को फाँसी पर लटका रहे हैं।’’    
                                       
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