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आलेख - डॉ0 शंकर पुणतांबेकर
लघुकथा का शिल्पविधान

मूलत: उसके शिल्प से ही जानी जाती है और उसमें कोई एक तत्त्व प्रधान होता है। यथा कविता में कथा और संवाद के रहते भी उसका प्रधान तत्त्व लय अथवा छंद है, नाटक में कथा और लय के रहते भी उसका प्रधान तत्त्व संवाद है। कहानी में कथा और संवाद के रहते भी उसका प्रधान तत्त्व तथ्यविस्तार है; निबंध में विचारान्विति है; व्यंग्य में विडंबना–वैदग्ध्य हैं ;इसी तरह लघुकथा में प्रधान तत्त्व उसकी लघुता है। यही इसे अन्य विधाओं से अलगाती है। कहानी की भांति तथ्यान्विति लघुकथा में भी है; पर लघुकथा में लघुता या सामासिकता होती है, इसलिए वह कहानी से भिन्न है, वैसे ही जैसे उपन्यास से कहानी अथवा नाटक से एकांकी भिन्न है। इस तरह लघुकथा के शिल्प में मूल बात लघुता की है।
अब सवाल यह उठता है कि लघुकथा कितनी लघु हो? उसके संबंध में विभिन्न मत प्रस्तुत किए गए हैं। अधिकांशत: इसके शब्दों की संख्या बताई गई है, यथा जगदीश कश्यप ‘मिनीयुग’ के एक संपादकीय में कहते हैं–‘आदर्श लघुकथा तीन सौ शब्दों तक होनी चाहिए और उसका अधिकतम विस्तार अमूमन पाँच सौ शब्दों तक किया जाना चाहिए।’ पर संपादक महोदय अपनी इस बात से खुद ही संतुष्ट नहीं लगते, तभी वे आगे कहते हैं–‘पाँच सौ से आठ सौ शब्दों या नौ सौ शब्दों तक की लघुकथाओं को भी आधुनिक लघुकथा की श्रेणी में रखा जा सकता हे।’ माना कि लघुकथा छोटी है, पर हम उसे शब्दों में नहीं बाँध सकते। ऐसा करना अवैज्ञानिक और असाहित्यिक काम होगा।
‘लघुकथा के मानदंड’ लेख में मैंने लघुकथा को ‘वैचारिक कथागीत’ माना है। गीत छोटा होता है। वह कितना छोटा होना चाहिए, इसके लिए क्या हम उसके शब्दों की गिनती करते हैं, उसको समय से नापते हैं? वास्तव में गीत एक विशिष्ट भाव–प्रभाव उत्पन्न करता है, जिसमें निमग्नता की अपनी सीमा होती है। आप कोई गीत चाहे तो रेकॉर्ड के दोनों ओर बजा लीजिए। उससे अधिक में श्रोता की निमग्नता संभव नहीं। वह चाहे कितना ही अच्छा से अच्छा गीत क्यों न हो। अब तो बात ‘भाव–गीत’ पर लागू होती है, वही बात हमारी लघुकथा यानी ‘कथा–गीत’ पर भी। तात्पर्य यह कि लघुकथा की संक्षिप्तता केवल उसका लघु आकार नहीं, बल्कि उसमें सामविष्ट प्रभावात्मकता भी है। लघुकथा धनुष की वह टंकार है, जहाँ से चला बाण दूर कहीं भेदता है और गहरे भेदता है।
लघुकथा की लघुता सामासिकता से ही संभव है, जो संक्षेप में विस्तार की अथवा दूरान्वयी बात कह जाती है सहजता से अथवा संकेतात्मक ढंग से। इस सामासिकता का अर्थ जब खुलता है तो वह अपना एक विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न करती है, किसी यथार्थ की विडंबना को हम पर दे मारती है। एक अच्छा लेखक अपनी लघुकथा में दूरान्वयी संकेत वाली सामासिकता का विशेष ध्यान रखता है; जो अपनी कुंडली में कटु यथार्थ के फन को लिये होती है। यह सामासिकता सिद्धहस्त शैली से ही संभव है।
जब मैं लघुकथा को कथा–गीत कहता हूँ तो उससे तात्पर्य केवल लघुकथा के आकार तक सीमित नहीं होते हैं, उससे और भी अर्थ निकलते हैं। गीत में एक ही एक भाव होता है, आदि से अंत तक, लघुकथा में भी यही अपेक्षित है। इसमें एक ही एक विचार होता है आदि से अंत तक, और तीव्र प्रभाव गीत का प्राण है तो लघुकथा का भी। गीत में भावान्विति होती है, लघुकथा में विचारान्विति। गीत में भावात्मक लय होती है तो लघुकथा में विचारात्मक लय अपेक्षित है, भले ही लघुकथा गद्य की विधा है।
कहानी को उपन्यास का लघु रूप नहीं माना जाता, उसी तरह लघुकथा को भी हम कहानी का लघु रूप नहीं कहते। उपन्यास किसी मूल संवेदना और उससे जुड़े या उससे फूटते विभिन्न संवेदना–सूत्रों का अंकन है, जबकि कहानी मूल संवेदना की वह निरपेक्ष झलक है, जो किंचित् घटना, पात्र और परिवेश के विस्तार में जाती है। इससे भी आगे लघुकथा मूल संवेदना की वह सूक्ष्म एवं तीव्रतर अभिव्यक्ति है, जो अपनी किसी भी घटक के विस्तार की आकांक्षी नहीं है। इसीलिए इसे कहानी का संक्षेप नहीं कहा जाता। लघु होते हुए भी इसकी कथा की मूल संवेदना अपने आप में पूर्ण होती है। संवेदना कभी भी खंडात्मक या अंशात्मक नहीं होती। तात्पर्य यह नहीं कि उसकी कथा की मूल संवेदना ही अंशात्मक होती है, बल्कि इससे ताप्पर्य यह है कि लघुकथा हमारे अंशात्मक या खंडात्मक जीवन की संवेदनाओं को प्रस्तुत करती है। आज जन–जीवन खंड सत्यों को ही जीवन सत्य मानने को अभिशप्त है, हर खंड की अपनी संवेदनाएं हैं। बीमारी,बेरोजगारी,बेचारगी अपने आप में संवेदनाएं जगाती हैं, पर उन क्षणों की अनुभूति कम महत्त्च की नहीं, जब बीमारी में गंभीर स्थिति चोंचलों के मुकाबले अस्पताल में जगह नहीं पाती, बेरोजगारी में योग्यता अयोग्यता के मुकाबले परास्त हो खाली हाथ लौटती है या बेचारगी में भूख अपनी अस्मिता तक लुटा देने को मजबूर है। इस तरह लघुकथा की कथा जीवन के खंड तत्त्वों की तस्वीर प्रस्तुत करती है, जो अपनी मूल संवेदना में खंड या अंश न होकर पूर्ण होती है।
यहाँ हमने कथा में संवेदना की बात कही है। मूल बात तो संवेदना ही है, जो कथा के माध्यम से लेखक पाठक में जगाता है। संवेदना भी किसी विडंबना की, काल्पनिक नहीं, यथार्थ विडंबना की। संवेदना की बात बहुत कम लेखक जानते हैं, इसलिए वे कथा को रच या बुन लेते हैं, यथार्थ कथा, लेकिन वह कितनी संवेदनावाही बन पाई है, इसकी ओर उनका ध्यान नहीं जाता। यथार्थानुभूति काव्यानुभूति के धरातल पर तब पहुँचती है, जब शब्दावली उसमें निहित सुख–दुख को मुखर करने वाली हो। इसलिए कथा (स्टोरी) और कथानक (प्लॉट) में फर्क है।
‘राजा मर गया और रानी मर गई’, मात्र स्टोरी या सामान्य घटना है, जिसमें से कोई संवेदना नहीं जागती, किंतु वहीं यह कहा जाए कि राजा मर गया और इस कारण रानी भी मर गई तो यह प्लॉट या असामान्य घटना है, जिसमें से संवेदना जागती है। इस कसौटी से हमारी अधिकतर लघुकथाएँ लघुकथा नहीं रह जातीं। फिर वे भले ही ‘लघु’ हों और उनमें ‘कथा’ भी हो। इसीलिए आज लिखी जा रही ढेरों कथाएँ ‘लघु’ और ‘कथा’ दोनों होकर भी लघुकथा नहीं हैं।
ठीक है कि प्लॉट में संवदेना होती है, क्या कहानी के, उपन्यास के, नाटक के अथवा लघुकथा के। लघुकथा का प्लॉट छोटा होगा अपनी आकारगत सीमा के कारण, पर लघुता मात्र लघुकथा के प्लॉट को अन्य विधाओं के प्लॉट से नहीं अलगाती। लघुता के साथ–साथ एक बात और है उसकी तीक्ष्ण–तीखी प्रभावात्मकता। वास्तव में यह तीक्ष्ण–तीखी प्रभावात्मकता ही लघुकथा का प्राण है। लघुकथा में से यह प्रभावात्मकता तभी उत्पन्न हो सकती है, जब लेखक की अनुभूति तीव्र से तीव्रतर और घनी होगी। लघुकथा में अनुभूति की तीव्रता इतनी घनीभूत होती है कि वह हमें बिजली के तार की भाँति झटका दे जाती है, हमारी चेतना को एकदम झकझोर देती है। कहना न होगा कि यह झटका विचारगत होता है, प्रसंग अथवा शैली से संबद्ध चमत्कारगत नहीं। साथ ही यह भी कि इस झटके के लिए यों ही बनावटी चरम सीमा की भी आवश्यकता नहीं होती।
मैं शैली को रचना का बा अंग नहीं मानता। उसका भी रचना की आत्मा के साथ वैसा ही संबंध है, जैसा कथ्य का। सही रचना, सही कहा जाए तो कथ्य और शैली के परस्पर बिंब–प्रतिबिंब भाव से बनती है। कथ्य और शैली का ताना–बाना ही रचना को बुनता है, इसलिए दोनों का समान रूप से महत्त्व है। शैली विषयवस्तु का बा अंग नहीं है। वह विषयवस्तु से, उनके गुण–धर्म से, उसमें प्रतिबिंबित युग से, पात्रों के चरित्र से, उसमें से निरूपित तथ्यों से जुड़ी ‘भाषा–संवेदना’ है–‘खा ले रे। खा लीजिए। खा, मत खा। खा, कहता हूँ न। खा भी लो अब। खा–खा, खा डाल। शब्दों के ये बंध अपने स्वरूप में से क्या ‘संवदेना’ का परिचय नहीं देते! मूल ‘भाव–संवेदना’ के साथ वह ‘भाषा–संवेदना’ अपने आप बनती है।
लघुकथा सहित किसी भी पुष्ट रचना में ‘भाव–संवेदना’ और ‘भाषा–संवेदना’ दोनों कनक–कुंडल न्याय–सी विद्यमान होती है। सशक्त भाव (वस्तु) के साथ सशक्त भाषा (बिंब) लेखक के मस्तिष्क में अपने आप कौंधती है। वर्षा में जैसे अपने आप पानी है और अपने आप धार है, बिजली में अपने आप दीप्ति है, अपने आप गति है। इसी तरह किसी आवेग में अपने आप भाव है, अपने आप बिंब है। इस दृष्टि से यहाँ यह लक्षणीय है कि शैली लेखक विशेष की जितनी वैयक्तिक है, उतनी ही वह विषय से जुड़ी निर्व्यैक्तिक भी है, जिस पर बस लेखक का नहीं, कथ्य का है।
शैली संबंधी मुख्य मुद्दा यह नहीं है कि कौन–सी शैली अपनाई गई है–नाटकीय, प्रतीकात्मक अथवा व्यंग्यात्मक। लोककथा शैली है, पौराणिक शैली है या सामान्यत: प्रचलित वर्णनात्मक शैली। मुख्य मुद्दा है लघुकथा की प्रभावात्मकता बहुत कुछ अनोखेपन से उत्पन्न होती है। इसी अनोखेपन के कुछ उदाहरण देखिए–‘उन्होंने बोतल का ढक्कन नहीं, हमें ही निकालकर फेंका और गिलास में शराब उड़ेलकर आराम से पीने लगे। जब हमने उनकी आवाज सुनी कि सामने के बच्चे को हमारे कुत्ते ने काटा है, उसे फौरन अस्पताल ले जाओ, तो तत्काल हम उनके कुत्ते को अस्पताल ले गए।’
छोटे स्टेशनों ने कहा, ‘जक्शनों को तो आपने कूलर भी दे दिए, हमारे यहाँ पानी तक नहीं।’ वे बोले, ‘जरूर ख्याल रखेंगे आप लोगों का, पर पहले बड़ी गाडि़याँ तो रुकने दो।’
प्रभावात्मक शैली के अनोखेपन में हैं–सूचकता, सांकेतिकता और व्यांग्यात्मकता। सपाटबयानी में कथ्य कमज़ोर बना रह जाता है। अभिधा शक्ति की अपनी सीमा है, व्यंजना शक्ति की नहीं। व्यंजना बिंब–प्रतीक से लेकर लोककथा–पुराणकथा–इतिहासकथा सभी को वैदग्ध्य की दृष्टि से अपनाती है। विदग्ध अभिव्यक्ति विशेष प्रभाव डालती है। ‘गधा’ कहने से हमारा वह काम बन जाता है, जो एक सौ आठ बार ‘मूर्ख’ कहने से नहीं बनता। ‘क्रूर शोषक’ में इतना बल नहीं है, जितना ‘शाइलॉक’ में है। ‘सत्यावादी भूखों मर रहे हैं’ में वह प्रभाव नहीं, जो ‘हरिश्चंद्र भूखों मर रहे हैं’ कहने में हैं। विक्रमादित्य न्याय न कर सके, धर्मराज सत्य का पालन न कर सके, शकुंतला की अंगूठी को नकली घोषित कर दिया जाए, तो ये स्थितियाँ व्यवस्था की विभीषका को जिस गहराई से प्रस्तुत करती हैं, उससे पाठक का मानस एकदम आंदोलित हो उठता है। देश में अपनी ही भाषा संस्कृत या हिंदी की जो दुर्दशा है और अंग्रेजी की जो धाक है, उसे देखते हुए कोई कहे कि हमारे यहाँ कालिदास या तुलसी भूखों मर रहे हैं और शेक्सपीयर जो है, राज कर रहा है तो इस वैदग्ध्य से बात कुछ और ही बन जाती है।
लोगों ने आदर्श लघुकथा में कुछ अनिवार्य विशेषताओं का उल्लेख किया है, वे इन्हें सौंदर्यशास्त्रीय ढंग से प्रस्तुत करते हैं। आधुनिक लेखन जब सौंदर्यशास्त्र से नाता तोड़ मुक्त चौकडि़याँ भर रहा है, उस दशा में लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र बनाना कहाँ तक उचित है। कथानक की प्रकृति, विषय, घटना, कथ्य की संरचना, लघुकथा का प्रभाव–लक्ष्य और न जाने क्या–क्या बातें लघुकथा के स्वरूप को, उसके शिल्प को लेकर कही जाती हैं और बिना उदाहरणों के निरे सिद्धांत रूप में इनका इस तरह विवेचन प्रस्तुत किया जाता है कि लघुकथा गोरखधंधे–सी नजर आने लगती है। विवेचन में कहा जाता है कि लघुकथा की अभिव्यक्ति सशक्त होती है। कहानी–नाटक या किस विधा की अभिव्यक्ति सशक्त नहीं होती? लघुकथा की पहुँच सूक्ष्मतम संवेदनाओं तक होती है। क्या कहानी–उपन्यास–नाटक में ऐसा नहीं होता? इसी तरह और भी बातें लघुकथा के संबंध में कही जाती हैं, जो और विधाओं पर भी लागू होती हैं, कथा लघुकथा का सत्य तीक्ष्ण होता है। लघुकथा में गंभीर तथा उपेक्षित तथ्यों का उद्घाटन होता है। लघुकथा अपने उद्देश्य सामाजिक–राजनीतिक–धार्मिक विसंगतियों पर प्रहार करना है। निकष के लिए सौंदर्यशास्त्र और उसका विवेचन बुरी बात नहीं, पर निकष में उसकी चार टाँगें, एक पूँछ, विशिष्ट चमड़ी जैसी बातें बता देने से काम नहीं बनता, जो उसी ऊँचाई–चमड़ी आदि के और जानवरों पर भी लागू हो सकती हैं। सही बात तो यह है कि हर लघुकथा का अपना शिल्प है। किसी भी जीवंत और प्रवाहमयी विधा का यही लक्षण है। और यह मान लेना गलत होगा, कि कहानी, उपन्यास, नाटक जैसी परंपरागत विधाओं का शिल्प, उनका निकष सुनिश्चित है। सो लघुकथा का भी हो ही जाना चाहिए।
हिंदी लघुकथा का लेखन सही रूप में आठवें दशक में हुआ और तभी से इसकी विधा के रूप में चर्चा होने लगी। आठवें दशक में इसका जो स्वरूप स्थापित हो चुका था, वही हमें अब तक दिखाई देता है, लेकिन बीसवीं सदी के अंतिम दशक में उसका रूप पूरी तरह से उभर और निखर आया। पिछले तीन दशकों में लघुकथा का विधागत स्वरूप जो सामने आया है, उससे यह स्पष्ट है कि यथार्थ के घनीभूत क्षणों को इसने बड़ी प्रभावात्मकता से पकड़ा है। पद्य में जो काम गीत का था, गद्य में वह लघुकथा ने कर दिखाया है। गीत भावों में ही तरंगता रहता है, बिना कथ के, इसके विपरीत लघुकथा विचारों के ठोस धरातल पर खड़ी होती है, कथात्मकता के साथ। पिछले वर्षों में से गुजरता लघुकथा का जो तेवर आज हमारे सामने है, उससे सहमत–असहत होने का सवाल महत्त्वपूर्ण नहीं। कितने रूप–रंगों में से डूबता–उतराता, अनेकानेक लेखकों की कलम की तराश–खराद से बनता–बिगड़ता आज वह हमारे सामने है। लेखकों के खेमें बने, उन्होंने अपने–अपने झंडे गाड़े, कुछ लेखकों ने मसीहाई नारे दिए, इस–उस बात की आवश्यक–अनावश्यक तरफदारियाँ कीं और अंतत: लघुकथा का तेवर वह बना, जो एक साथ ‘लघु’ था और ‘कथा’ था। ‘लघु’ की अनावश्यक चर्चा शब्द गिनाकर हुई, जबकि इसका आशय था सघनता, सामासिकता, तीक्ष्णता और ‘कथा’ का आशय था जहरीला यथार्थ बिंदु। कहना न होगा कि ‘लघु’ में केवल कथा की संक्षिप्तता नहीं, शैली की सांकेतिकता–विदग्धता भी निहित है, जिसे बहुत कम लेखक समझ पाए हैं। इस समझ के अभाव में ‘कथा’ भाग का जहरीला यथार्थ बिंदु उस तीक्ष्णता के साथ अभिव्यक्त नहीं हो पाया, जो लघुकथा में अपेक्षित है, जो सही अर्थ में लघुकथा को लघुकथा बनाता है।
यह एक अजीब तथ्य है कि लघुकथा के लघुत्व और कथात्व का ताना–बाना आरंभिक लघुकथा लेखकों ने ही जिस ढंग से बुना, वही लघुकथा का सही तेवर बना। विषय नए–नए, शैलियाँ भिन्न–भिन्न और विषय–शैली की ऐसी एकरूपता कि शैली भी देह नहीं, प्राण लगे। आगे नकलची बढ़े। इन नकलचियों के कारण लघुकथा को वह प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी, जो उसे वास्तव में आठवें दशक में ही मिल जानी थी। असहमति अथवा असंतोष इन्हीं नकलचियों से है। खेद तो इस बात का है कि बिना प्रेरणा के लिखने वाले कई नामवर लेखक भी इसके शिकार हैं। और असहमति अथवा अंसंतोष वहाँ भी उपस्थित होता है, जहाँ लेखक आलोचक के नाते तटस्थ न रहकर लघुकथा के संबंध में सही–गलत फतवे देता है और अपने तथा अपने खेमे के लोगों को स्थापित करने में अपनी प्रतिभा को नष्ट करता है। लघुकथा जब अपने निर्माण काल में थी, तब आठवें दशक के उत्तरार्ध में लघुकथा पर खूब बहसें हुईं, वाद–विवाद हुए, उखाड़–पछाड़ हुई, पर वह सब वैचारिक स्तर पर था, वैयक्तिक स्तर पर नहीं। किसी भी विधा की स्थापना या पुनर्स्थापना काल में ऐसा होता ही है।
लघुकथा से मेरी अपेक्षाएँ हैं। लघुकथा को मैं गद्य का विचारात्मक कथा–गीत मानता हूँ। मैं चाहता हूँ कि गीत में जो भावों का घनत्व होता है, वह लघुकथा में विचारों का घनत्व बने। गीत का जो भावात्मक विस्तार है अपने लघुत्व में, वही विस्तार अपने लघुत्व में कथा का लघुकथा में बने। इस दशा में लघुकथा की शब्द–संख्या के साथ ही नापजोख अपने आप खत्म हो जाती है। गीत की भावान्विति, लघुकथा में विचारान्विति बने, एक ही विचार आदि से लेकर अंत तक। गीत में जो सांकेतिकता–सूचकता, बिंब–प्रतीक प्रयुक्त होते हैं, कुछ इसी तरह की अभिव्यक्ति का ढंग लघुकथा का हो। अच्छी लघुकथाओं को पढ़–परखकर मैं लघुकथा संबंधी इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ। जहाँ तक लघुकथा के कथ्य का प्रश्न है; उसे वर्तमान के तीखे यथार्थ से जुड़ना चाहिए।
कोई भी लेखन अध्ययन–चिंतन के बाद की क्रिया है। हमारे लघुकथा लेखक, विशेष रूप से नई पीढ़ी के ऐसे कितने लेखक हैं, जिन्होंने साहित्य को ढंग से पढ़ा है? नज्म और शेरो–शायरी लिखने वाले लोग कितनी नज्में और शेर पढ़ते हैं। उनके मुख पर छा जाती हैं वह सब। लघुकथा लेखक अच्छे लेखकों की लघुकथाएँ पढ़ें। लघुकथा पर लिखी गई आलोचनाएँ पढ़ें। दो–चार लघुकथाएँ लिख लेने के बाद ही अपने को लेखक मान लेने वाले लघुकथा लेखकों से मेरा निवेदन है कि वे जगदीश कश्यप, भगीरथ, रमेश बतरा, बलराम, मालती बसंत, पुष्पलता कश्यप, कमल चोपड़ा, सतीश दुबे तथा कमलेश भारतीय जैसे पहली पीढ़ी के समर्थ लघुकथा लेखकों की कथाओं का गहराई से अध्ययन करें। दूसरी पीढ़ी के भी मेरे पास दर्जनों नाम हैं, जिन्होंने पहली पीढ़ी के कार्य को काफी आगे बढ़ाया है।
संकल्प रूप से भी अच्छा काम हुआ है। यथा बलराम द्वारा संपादित कथानामा, हिंदी लघुकथा कोश, भारतीय लघुकथा कोश, विश्व लघुकथा कोश एवं शमीम शर्मा द्वारा संपादित हस्ताक्षर आदि। कमल चोपड़ा, सतीशराज पुष्करणा, रूप देवगुण, राजकुमार निजात, सुकेश साहनी, अशोक भाटिया, रूपसिंह चंदेल तथा सतीश राठी आदि ने भी अच्छे संकलन निकाले हैं।
मुझे दो शब्द लघुकथा के समालोचकों से भी कहने हैं- उनका दृष्टिकोण जहाँ तटस्थ हो, वहाँ वे स्वयं भी औरों की समीक्षाओं को देखें–परखें और इस प्रतिपादन से बचें कि लघुकथा एक विधा है। वह तो है ही, साथ ही इस कथन से भी कि लघुकथा अब तक प्रतिष्ठित नहीं हो सकी है और कि उसका कोई समर्थ आलोचक नहीं है।

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