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आलेख :सुकेश साहनी
बाल मनोविज्ञान पर आधारित लघुकथाएँ

मेरा बचपन संयुक्त परिवार में बीता है। एक घटना याद आ रही है। सुबह उठ कर देखता हूँ–माँ रसोई में नहीं है बल्कि रसोई के बाहर बने स्टोर में अलग–थलग बैठी हैं। दादी माता जी को वहीं चाय नाश्ता दे रही है। मुझे हैरानी होती है। माँ तो बहुत सबेरे उठकर काम में लग जाती है हम रसोई उनके पास बैठकर ही नाश्ता करते हैं। हमें खिलाने–पिलाने के बाद ही खुद खाती हैं।
‘‘आपको क्या हुआ है?’’ मैं माँ से पूछता हूँ।
‘‘कुछ भी नहीं।’’ माँ कहती है।
‘‘तो आज आप यहाँ क्यों बैठी हैं, दादी खाना क्यों बना रही है?’’
‘‘वैसे ही, मेरी तबीयत ठीक नहीं है।’’ माँ हँसते हुए कहती हैं।
मेरा बाल मन सोच में पड़ जाता है– माँ बीमार भी नहीं लग रहीं,तबीयत खराब होने की बात हँसते हुए कह रही है? मैं खेलकूद में लग जाता हूँ और इस बात को भूल जाता हूँ। दोपहर में खाने के समय फिर मेरा ध्यान इस ओर जाता है। दादी माता जी को रोटी हाथ में दे रही हैं, किसी बर्तन में नहीं।
‘‘आप प्लेट में रोटी क्यों नहीं खा रही ?’’ मैं पूछता हूँ।
माँ मेरी ओर देखते हुए कुछ नहीं कहतीं। मैं अपना सवाल फिर दोहराता हूँ।
‘‘आज मैं गंदी हो गई हूँ।’’ माँ फिर हँसती हैं।
‘‘मतलब?’’
‘‘दरअसल आज जमादारिन को डिब्बे में पानी डालते समय कुछ छींटे मुझपर पड़ गए थे।’’
‘‘तो फिर?’’ मेरी समझ में कुछ नहीं आता।
‘‘जाओ खेलो, तुम अभी छोटे हो कुछ नहीं समझोगे।’’
माँ कहती हैं और दादी और ताई हँसने लगती है।
बात बहुत पुरानी है लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है। बाल मन कितनी गहराई से सोचता है, इसी को स्मरण करते हुए इस घटना के बारे में लिख रहा हूँ। मुझे याद है इस बात पर मैंने काफी माथापच्ची की थी अपने बड़े भाइयों से भी पूछा था।
दरअसल माँ मासिक धर्म से थीं। उन दिनों उनका रसोई में प्रवेश वर्जित था। देखने की बात यह है कि मेरे द्वारा उठाए गए सवाल पर माँ ने जो उत्तर दिया उससे मेरे बाल मन पर क्या प्रभाव पड़ा? उन दिनों हमारे यहाँ आधुनिक टायलेट नहीं थे। मैला उठाने जमादारिन आती थी। माँ द्वारा मासिक धर्म की बात न बता सकने की विवशता के चलते जो कारण दिया गया, उससे बाल मन पर दलितों के अपवित्र होने की बात कहीं गहरे अंकित हो जाती है। बहुत सी बातें धीरे–धीरे खुद ही समझ में आने लगती है।
अकसर हम बच्चों को बहलाने के लिए लापरवाही से कुछ भी कह जाते हैं; जबकि बच्चे हमारी बातों को काफी गम्भीरता से लेते हैं। बाल मनोविज्ञान पर आधारित संचयन के अध्ययन से यह बात और भी स्पष्ट होकर सामने आती है। आज भी स्थितियों में बहुत बदलाव नहीं आया है। भूपिन्दर सिंह : रोटी का टुकड़ा, नीलिमा टिक्कू : नासमझ, मीरा चन्द्रा : बच्चा जैसी लघुकथाओं में बच्चों द्वारा पूछे जा रहे प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। इतना अंतर अवश्य आया है कि ाहरी क्षेत्रों में दलित वर्ग का बच्चा अब अपने शोषण के प्रति जागरूक है (कमल चोपड़ा : खेलने दो, रंगनाथ दिवाकर : गुरु दक्षिणा )
विषयों के आधार पर लघुकथा के विभिन्न संचयनों को तैयार करते समय लघुकथा की ताकत का अहसास होता है। लघुकथा लेखक उस विषय की कितनी गहन पड़ताल करने में सक्षम हैं, इसे वर्तमान संचयन में भी देखा जा सकता है।
प्रस्तुत संग्रह की लघुकथाओं को अध्ययन की दृष्टि से निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है–

बच्चे और शिक्षा

होश संभालते ही हर माँ–बाप बच्चे को शिक्षित करना चाहता है। सबकी सोच अलग–अलग होती है। बालक, अभिभावक और शिक्षक के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है ।शिक्षा की कोई भी विधि -प्रविधि ,पाठ्यक्रम-पाठ्यचर्या लागू करने से पहले बच्चे को समझना होगा।कोई भी तौर-तरीका बच्चे से ऊपर नहीं है और न हो सकता है ।कोई भी व्यक्ति या संस्था इसके ऊपर नहीं है ,वरन् इसके लिए है ।यह बात सदैव ध्यान में रखनी होगी ।
गिजु भाई की लघुकथा तुम क्या पढ़ोगे उन अभिभावकों पर करारा व्यंग्य है जो आनंद लेकर अक्षर ज्ञान प्राप्त कर रहे बच्चे को बाल पोथी पढ़ने के लिए विवश कर पढ़ाई के प्रति अरुचि पैदा करते हैं। आज हमारे स्कूल बच्चों के लिए यातना गृह हो गए हैं (श्याम सुन्दर अग्रवाल : स्कूल)। ऐसे पिंजरों में बंद बच्चे अपनी बाल सुलभ जिज्ञासाओं एवं इच्छाओं से विमुख होकर मशीन बन जाते हैं। ऐसे में जब किसी पाठशाला में बच्चे से खुश होकर कुछ मांगने के लिए कहा जाता है तो यदि वह ‘लड्डू’ की माँग करता है तो श्रीचन्द्रधर शर्मा गुलेरी आश्वस्त होते है उन्हें लगता है कि बच्चा बच गया, उसके बचने की आशा है। स्कूल के अध्यापकों एवं अभिभावकों ने बच्चे की जन्मजात प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। प्रेम भटनागर की शिक्षाकाल उस विडम्बना से परिचय कराती है जहाँ स्कूल वाले बच्चे की प्रतिभा को सम्मानित करना चाहते है परन्तु स्कूल में अभिभावकों को बुलाने का एक ही अभिप्राय समझा जाता है कि बच्चे ने कोई शरारत की होगी। इस पर अभिभावक बच्चे की डायरी में लिख भेजते हैं –हमने कल रात को उसकी जम कर पिटाई कर दी है। उसने वादा किया है कि वह आगे से कोई शिकायत का मौका नहीं देगा। आशा है अब सम्पर्क की आवश्यकता नहीं रह गई है। बच्चों के मन में स्कूल के प्रति डर का बीजारोपण जाने अनजाने माता–पिता द्वारा भी कर दिया जाता है (सुरेश अवस्थी : स्कूल)। शिक्षा को कंधों पर भार के रूप में ढोता बच्चा युनिवर्सिटी तक की पढ़ाई समाप्त करने के पश्चात् खूब–खूब खेलने के सपने देखता है (अशोक भाटिया : सपना)। जहाँ शिक्षक अपने दायित्व के प्रति समर्पित हैं वहाँ बच्चा शिक्षा ग्रहण करते हुए अपने मन की गाँठें गुरुजन के आगे खोलने में देर नहीं करता (सतीशराज पुष्करणा : अन्तश्चेतना) । इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं अहमद निसार : पद चिह्न, भगीरथ : शिक्षा, बलराम अग्रवाल : जहर की जड़े, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र : जिज्ञासा, शैलेन्द्र सागर : हिदायत ।

बच्चे और परिवार

बच्चे अपना अधिकांश समय घर और स्कूल में बिताते हैं। ऐसे में माता–पिता की जिम्मेवारी और भी बढ़ जाती है। बच्चों का कोमल मस्तिष्क चीजों को बहुत जल्दी ग्रहण करता है। आज भागम–भाग के दौर में काम काजी माता–पिता के पास बच्चों के लिए अवकाश नहीं है। विभिन्न कारणों से टूटते पति–पत्नी के रिश्ते बच्चों के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालते हैं। आधुनिकता की दौड़ में बच्चों को कान्वेंट स्कूल में पढ़ाने वाले माता–पिता बच्चों की प्रतिभा की नुमाइश करते हुए गर्व महसूस करते हैं ऐसे अभिभावकों की पोल बहुत जल्दी खुल जाती है (महेन्द्र रश्मि : कान्वेंट स्कूल)। अक्सर माता–पिता बच्चों के प्रतिकूल आचरण हेतु टी.वी. को दोषी मानते हैं, जबकि बच्चा उनके आचरण का अनुसरण करता है (माघव नागदा : असर)। ऐसे माता–पिता की परस्पर विरोधी विचारधाराओं के बीच नन्हा बचपन पिसता रहता है (बलराम : गंदी बात)। हमारा आचरण किसी नन्हें बच्चे के मस्तिष्क में साम्प्रदायिकता के विष बीज का रोपण कर सकता है (सूर्यकांत नागर : विष बीज)। बच्चों के मानसिक विकास में आर्थिक कारण बड़ी बाधा के रूप में सामने आते हैं। गरीबी की रेखा के नीचे जीवन जीता आम आदमी बच्चे को पाठ पढ़ाते हुए सेब और अनार के बारे में बता तो सकता है लेकिन बच्चे के प्रश्नों के आगे खुद को लाचार महसूस करता है (सुभाष नीरव : बीमार)। पारस दासोत की भूख में उस माँ की पीड़ा को महसूस किया जा सकता है जो यह कहती है कि दौड़ने कूदने से भूख अच्छी नहीं अधिक लगती है इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं –सतीश दुबे : विनियोग, नासिरा शर्मा : रुतबा, प्रेम जनमजेय : जड़, अमरीक सिंह दीप : जिंदा बाइसस्कोप, उर्मि कृष्ण : अमानत, हरदर्शन सहगल : गंदी बातें, अनूप कुमार : मातृत्व, निर्मला सिंह : आक्रोश, विजय बजाज : संस्कार, काली चरण प्रेमी : चोर, ।

बच्चे और समाज

बच्चों के चरित्र निर्माण में समाज का बहुत बड़ा योगदान होता है। यह दुनिया सबसे बड़ी पाठशाला है। (सुकेश साहनी : स्कूल)। आर्थिक कारणों से घर छोड़ कर कमाने निकला बालक जीवन संघर्ष करता हुआ समाज के कथाकथित ठेकेदारों को मुँह तोड़ उत्तर दे सकता है। संग्रह में सम्मिलित अधिकतर रचनाएं बच्चों के प्रति समाज की उपेक्षा को चित्रित करती है। यहाँ तक कि वक्त कटी के लिए किसी भिखारी बच्चे तमाम सवाल किए जाते हैं, बिना उसकी परिस्थितियाँ जाने। ऐसे उजबकों को बच्चा निरुत्तर कर देता है जब वह यह कहता है कि माँ को बेटा कमा कर नहीं खिलायागा तो कौन खिलाएगा (हीरालाल नागर : बौना)। समाज के निर्मम रवैये के चलते बच्चों में अपराध की प्रवृत्ति बढ़ रही है। हमारी जरा सी चूक किसी बच्चे की जीवन दिशा बदल सकती है इसे रावी की लघुकथा भिखारी और चोर में देखा जा सकता है। हरीश करमचंदाणी की लूट उन गरीब बच्चों के दर्द को रेखांकित करती है जो पतंग न खरीद पाने के कारण कटकर आई पतंग उड़ाना चाहते हैं पर यहाँ भी किसी बड़ी कोठी की छत पर खड़ा बच्चा पतंग की डोर थाम उन्हें इस खुशी से वंचित कर देता है।
छोटी उम्र में काम के लिए निकलना पड़ना जहाँ गरीब तबके के बच्चों की नियति है वहीं समाज के सक्षम तबके द्वारा आर्थिक लाभ कमाने के लिए भोलेभाले बचपन को बाल श्रम में झोंक दिया जाता है। सरकारी मशीनरी इस समस्या पर खानापूरी कर पल्ला झाड़ लेती है और यह अंतहीन सिलसिला (विक्रम सोनी) चलता रहता है। मजदूरी के लिए विवश ऐसे बच्चे सपनों (देवांशु वत्स) में जीने को विवश है। सपने और सपने (रामेश्वर काम्बोज ‘हिंमाशु’) में बहुत ही मार्मिक ढंग से इस हकीकत को रेखांकित किया गया है कि सपनों से जीवन नहीं चलता, भूख तो रोटी से ही शांत होगी। इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं–हरिमोहन शर्मा : सिद्धार्थ, भारत यायावर : काम, कुमार नरेन्द्र : अवमूल्यन, दीपक घोष : रोटी, यशपाल : सीख, अवधेश कुमार : मेरे बच्चे, दिनेश पाठक शशि : लक्ष्य, चित्रा मुद्गल : नसीहत, जोगिन्दर पाल : चोर, नीता सिंह : टिप, मुकीत खान : भीख।

बाल मन की गहराइयाँ

बाल मन की गहराई को रेखांकित करती अनेक लघुकथाएं यहाँ उपस्थित है। कामगार का बच्चा अपने पिता की परिस्थितियों से भली–भाँति वाकिफ है (रमेश बतरा : कहूं कहानी)। डॉ. तारा निगम की लघुकथा में बच्ची माँ से गुड़िया न लेने की बात कहती है क्योंकि उसे पता है कि आगे चलकर उसे गुड़िया नहीं बनना है। राजेन्द्र कुमार कन्नौजिया की लघुकथा की लड़की उस घरौंदे को बार–बार तोड़ देती है जिसपर लड़का सिर्फ़ अपना नाम लिखता है। वह उससे कहती है कि तू इस पर मेरा नाम क्यों नहीं लिखता। इस श्रेणी में राजेन्द्र यादव की अपने पार उत्कृष्ट रचना है। इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं–विष्णु नागर : बच्चा और गेंद, अनिंन्दिता : सपने, रमेश गौतम : बारात, जगदीश कश्यप : जन–मन–गण, पूरन मृद्गल : जीत, विनायक : नाव, प्रबोध कुमार गोविल : माँ, याम सुन्दर दीप्ति : बदला, राजकुमार घोटड़ : जन्मदिन का तोहफा, कमलेश भट्ट कमल : प्यास।
संग्रह में शामिल रचनाओं का संक्षिप्त वर्गीकरण प्रस्तुत है। देशान्तर में विभिन्न देशों की लघुकथाएं भी शामिल की गई हैं ।बच्चों को प्यार करने वाले लोग इन कथाओं पर चिन्तन ज़रूर करेंगे । यहाँ प्रस्तुत रचनाओं को पुस्तकाकार प्रकाशित करने की भी योजना है, आपके अमूल्य सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी।

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