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आलेख : डॉ. शमीम शर्मा
लघुकथा और कहानी: डॉ. शमीम शर्मा

हिन्दी साहित्य के इतिहास में आधुनिक युग की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है–गद्य। गद्य की विविध विधाओं में कथा सर्वाधिक लोकप्रिय हुई। जीवन की यथार्थ व्याख्या के समन्वित होने के कारण कथा के अंतर्गत उपन्यास और कहानी नामक दो साहित्य विधाएँ आधुनिक बन गई। द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर हिंदी साहित्य में प्रयोग की भूमिका, दृष्टि बिंदुओं का अंतर, विषय–वैविध्य, विदेशी शैली का अनुकरण, एप्रोच की भिन्नता, अभिव्यक्ति का आयाम, प्रस्तुतीकरण के शिल्प आदि के कारण गद्य में अनके नव्यतर विधाओं का विकास हुआ। इन नव्यतर विधाओं में लघुकथा नामक विधा सर्वाधिक तीव्रता और विविधता से विकसित हुई। अन्य नव्यतर विधाओं से लघुकथा का निकट का संबंध होते हुए भी मूल रूप में तात्विक भिन्नता है। आज लघुकथा एक स्वतंत्र साहित्य प्रकार है। लघुकथा एक वह नूतन गद्य विधा है जिसमें सामान्यत: लघु विस्तार के साथ किसी एक ही विषय अथवा तथ्य का उत्कट संवेदन इस प्रकार हो कि वह अपने आप में पूर्ण तो हो ही साथ ही उसके तत्व एकोन्मुखी होकर प्रभावान्विति में पूर्ण योग देते हों। आज जबकि लघुकथा के स्वरूप के संबंध में एक सुनिश्चित खाका या यूँ कहें कि इसके तथ्यों का निर्धारण हो चुका है और सृजनात्मकता में निरंतर अभिवृद्धि हो रही हे तो भी लघुकथा के नाम पर बोधकथा, नीतिकथा, प्रेरक प्रसंग, लोकोक्तियाँ, सूक्तियाँ,पौराणिक संदर्भ, परीकथा, व्यंग्य कथा, चुटकुले, संस्मरण, आपबीती आदि का धड़ल्ले से प्रकाशन हो रहा है जिससे इस विधा की गंभीरता पर बार- बार बहस छिड़ने का मौका मिलता है। जबकि बिल्कुल स्पष्ट है कि नीतिकथा और बोध कथा में तो नीति,उपदेश या शिक्षा का स्वर प्रधान रहता है और लघुकथा में जन जीवन की संवेदना रहती है। इसी तरह चुटकुले और लघुकथा के स्वरूप में भी कोई साम्य नहीं है। चुटकुले क्षणिक मनोरंजन प्रदान करते हैं, विशुद्ध हास्य उत्पन्न करते हैं जबकि लघुकथा में बौद्धिक कचोट होती है, सनातन संकेत निहित होता है या किसी समस्या के निरूपण की झलक। संस्मरण और आपबीती तो नाम से ही अपने स्वरूप का लघुकथा से अलगाव प्रकट करते हैं। ‘लघुकथा’ लघुकथा के नाम पर प्रकाशित अनाप-शनाप नहीं है, वरन् अपने आधुनिक स्वरूप में यह यथार्थ पर आधारित संक्षिप्त व चुस्त शिल्प में बुनी एक कथात्मक विधा है। वस्तुत: लघुकथा शिल्प की साधना है। आज लघुकथा फुटपाथ, गली, झोपड़ी, दो जून की रोटी और अगणित आर्थिक–सामाजिक प्रश्नों से जा जुड़ी है। पेड़, पौधों, पक्षियों, पशुओं, चांद–सितारों, वन पर्वतों, व निर्झरों को त्यागकर, जंगल में किसी पेड़ की छाया में शिष्यों के समक्ष बैठे उपदेशक से भी वह दूर बहुत दूर हो गई है।

लघुकथा और कहानी :
गल्प के प्रयोग तीन आयामों में हुए–उपन्यास कहानी और लघुकथा। उपन्यास में सहकारी उपन्यास, आंचलिक उपन्यास, लघु उपन्यास आदि के नये नये प्रयोग हुए और कहानी में नई कहानी, सचेतन कहानी और अकहानी आदि के रूप में कई नवीन प्रयोग देखने में आए। गल्प का तीसरा आयाम है–लघुकथा। आज समयाभाव और बात कहने की छटपटाहट ने लघुकथा को बच्चन की मधुशाला की तरह लोकप्रिय बना दिया है। हर पत्र–पत्रिका में लघुकथा का स्थान निश्चित है। उपन्यास कहानी और लघुकथा का यदि कथा की दृष्टि से तात्विक अन्तर किया जाए तो तीनों का भेद स्पष्ट हो जाएगा। उपन्यास में एक मुख्य कथा के साथ अनेक उपकथाएँ हो सकती हैं, कहानी में उपन्यास में वर्णित उपकथाओं में से एक की ही सक्रियता होती है,लेकिन उसमें अनेक मन:स्थितियाँ, हो सकती हैं और उसी से मूल संवेदना निष्पन्न की जाती है। कहानी में उपन्यास के से विस्तार की गुंजाइश नहीं होती। लघुकथा अजनबी यात्री को घर तक हाथ पकड़ कर छोड़ आने का कार्य नहीं करती और राह बताने का कार्य भी नहीं करती, मात्र घर की ओर संकेत करती है। शैली की चुस्ती, संक्षिप्तता, तीव्रता और सांकेतिकता आदि उसे कहानी से अलगाते हैं। डा0 शकर पुणतांबेकर के अनुसार–कहानी को जिस भाँति उपन्यास का लघुरूप नहीं माना जाता, उसी तरह लघुकथा को हम कहानी का लघुरूप नहीं कह सकते। उपन्यास की अपेक्षा कहानी में अनुभूति कहीं अधिक होती है और कहानी की अपेक्षा लघुकथा में और भी अधिक। आकार में अत्यंत संक्षिप्त होने के कारण लघुकथा में अनुभूति की तीव्रता इतनी घनीभूत होती है कि वह हमें बिजली के तार की भांति झटका दे जाती है। हमारी चेतना को एकदम झकझोर देती है।
स्पष्ट है कि लघुकथा कहानी का संक्षिप्तीकरण कदापि नहीं है। यहाँ विस्तार के लिए कोई स्थान नहीं होता। थोड़े में अधिक कहने की प्रवृत्ति प्रबल है। सांकेतिक एवं ध्वन्यात्मकता इसके प्रमुख तत्व हैं। अनेक मन: स्थितियों में से एक की ही सक्रियता सघनता से संप्रेषित करने का लक्ष्य रहता है। अवध नारायण मुद्गल की अवधारणा है कि लघुकथा समूची कथाधारा की एक उपधारा है और इसे मुख्य धारा से उसी प्रकार अलग किया जा सकता है जब उपन्यास को एक नदी, कहानियों को नहरें और लघुकथाओं का उपनहरें मान लें। इन उपनहरों का अपना अलग अस्तित्व और महत्व है, दूर दराज की जिस बंजर जमीन को नहरों से नहीं जोड़ा जा सकता, उसे उपनहरों से जोड़ कर उपजाऊ बनाया जा सकता है। कहानी में जीवन के एक या दो आयामों का चित्रण उभरता है और लघुकथा में जीवन के एक पहलू के किसी एक अंश या खण्ड का बखूबी निरूपण किया जाता है। शकुंतला किरण के शब्दों में–‘जो कथ्य कहानी के लिए अपर्याप्त रहता है, अथवा कहानी के विस्तार वर्णनों के बोझ तले अप्रभावी या धूमिल हो जाता है, वही कथ्य लघुकथा के माध्यम से प्रखर एवं प्रभावशाली बन जाता है, और अपनी बात को उसके समग्र प्रभाव सहित पाठक तक संप्रेषित कर देता है।‘ ठीक इसी प्रकार कहानी के बहुमुखी कथ्य या एकाधिक मन:स्थितियों के भार को भी लघुकथा वहन नहीं कर सकती, उसे सँवार नहीं सकती क्योंकि उसकी अपनी लघुसीमाएँ हैं, सीमाओं के इन्हीं परिप्रेक्ष्यों में देखने पर लघुकथा और कहानी में अंतर के साथ–साथ लघुकथा का रूप और अधिक स्पष्ट हो जाता है। सतीश दुबे लिखते हैं–‘कहानी अपने विस्तृत कैनवास पर क्षणिक अनुभूति या विचार को जिस प्रभावशाली तेवर और मारक शक्ति के साथ व्यक्त नहीं कर पाती, उसे लघुकथा अपने छोटे कैनवास, कम शब्दों और शिल्प की हल्की सी कनी के साथ प्रस्तुत कर जाती है।‘ पूरन मुद्गल के अनुसार–कहानी में प्रेरणा के बिंदु को विस्तार दिया जाता है, लघुकथा में विस्तार की गुंजायश नहीं होती। लघुकथा को लघुकहानी कह देना या मान लेना भी उचित नहीं है।
लघुकहानी में कहानी के सभी तत्व सर्वांश में या अल्पांश में विद्यमान होते हैं जबकि लघुकथा के तत्व कहानी से भिन्न होते हैं। प्रभावान्विति की दृष्टि से कहानी वह है जो कोड़े की तरह चोट करती है, कहानी में हजारों चाबुकों की चोट रहती है पर लघुकथा में बिच्छु का डंक विद्यमान है। लघुकथा कहानी की अपेक्षा अधिक रचनात्मक, जिम्मेवार तथा ऊर्जा से ओतप्रोत होनी चाहिए। लघुकथा किसी स्थिति या व्यक्ति अथवा घटना के एक ही पक्ष को रेखांकित करती है और अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाती है। लघुकथा का अनिवार्य तत्व व्यंग्य को माना जाता रहा है जबकि व्यंग्य किसी विधा का तत्व नहीं, गुण मान जा सकता है, यह कहानी में भी हो सकता, कविता में भी नाटक आदि सभी में। डा0 श्याम सुन्दर के अनुसार चितेरे और अंगुली निर्देशक में जो अंतर है, वही अंतर कहानियों और लघुकथाओं में है। यदि कहानियाँ गांव–गली से गुजरने वाली गली हैं तो लघुकथाएँ निर्जन सुनसान से होकर गुजरने वाली पगडंडी हैं। डा0 रामदरश मिश्र की अवधारणा है कि इसमें कोई घटना आवश्यक नहीं होती लेकिन कम से कम एक तो होती ही हैं। अंत सर्वाधिक प्रभावशाली होता है। तीखा व्यंग्य जो हिट करे अपेक्षित है। कहानी में ऐसा कदापि आवश्यक नहीं। रमेश बतरा का कहना है कि इनका पाठक न तो इन्हें गाड़ी या बस में पढ़ने की चीज़ समझता है और न वह इन्हें चूल्हे पर सब्जी चढ़ा कर उसे पकने तक तुरत- फुरत में कुछ पढ़ लेने के लिए पढ़ता है और न इसलिए पढ़ता है कि ये छोटी है जल्दी पढ़ी जाएंगी। इनका पाठक गंभीर,सुरूचिपूर्ण,सजग और सचेत नागरिक है, वह इन्हें समय निकाल कर पढ़ता है और आशा करता है कि इनमें जीवन के जीवंत क्षणों को अभिव्यक्ति मिले। लघुकथाएँ कहानी की स्टैंडबाई या सथानापन्न नहीं हैं, वे अपनी अनिवार्यता को सिद्ध कर चुकी हैं। लघुकथा व कहानी एक ही साहित्य परिवार की विधाएँ हैं। कभी–कभी कहानी के तत्वों का आरोपण लघुकथा पर कर दिया जाता है। कहानी एवं लघुकथा के तत्वों में न्यूनाधिक साम्य संभव है परंतु इन तत्वों की मात्रा, प्रयोग पद्धति,आवश्यकता आदि में अंतर अवश्य है।
कथावस्तु दोनों के केंद्र में निहित है। कहानी की तरह यह तत्व लघुकथा की रीढ़ है। उसमें उपकथाएँ, अंत:कथाएं या प्रासंगिक कथानक नहीं होते, केवल आधिकारिक कथा ही रहती है। लघुकथा में कथावस्तु की एकतंता, लघुता और एकांगिता अति आवश्यक है। लघुकथा की कथावस्तु अत्यंत प्वाइंटिड होती है। लघुकथा रचना के मूल में एक बिंदु होता है। एक संश्लिष्ट टुकड़ा जो उद्दीप्त व पर्याप्त उत्तेजित होता है। अनावश्यक पात्रों, वस्तुओं, व्यापारों आदि से लघुकथा को कहानी से पृथक् कर सकते हैं, वह है–एकान्विति–प्रभावानिन्वति। तीव्रगामिता,संक्षिप्तता और सांकेतिकता के कारण लघुकथा की प्रभावोत्पादकता अधिक बढ़ जाती है। छोटे से कलेवर में भी इतनी सजीवता और संप्रेषणीयता होती है कि इसका प्रभाव कोंध की तरह होता है जो बिजली की भांति चमक कर कड़क सी उत्पन्न कर जाता है डा0 शंकर पुणतांबेकर मानते हैं कि लघुकथा की खिड़की से हम जीवन के किसी कमरे में ही झाँकते हैं, खिड़की का छोटापन यहाँ बाधक नहीं बनता। उलटे वह हमारी दृष्टि को ठीक उस जगह केंद्रित करता है जिसे दिखाना खिड़की का मन्तव्य है। कहानी के कथानक को लघुकथा के रूप में नहीं रखा जा सकता क्योंकि कथानक जिन बिंदुओं पर विस्तार चाहता है, वरित्रों का रूपायन चाहता है, वह लघुकथा नहीं दे सकती। इस प्रकार लघुकथा में एक अवयव,सक व्यक्तित्व की केवल एक विशिष्टता, एक घटनांश विशेष, एक संकेत, एक जीवन खंडांश हो सकता है। विश्लेषण की अपेक्षा एकान्विति की गहनता ही इसके कथानक को सुगुंफित रख सकती है। इन सभी दृष्टियों से रमेश बतरा की ‘सूअर’ लघुकथा का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा।
वो हो हल्ला करते हुए एक पुरानी हवेली में जा पहुँचे। हवेली के हाते में सभी घरों के दरवाजे बंद थे। सि‍र्फ़ एक कमरे का दरवाजा खुला था। सब दो–दो, तीन–तीन में बंटकर- होले बज रहा था और एक आदमी खाट पर सोया हुआ था।
यह कौन है? एक ने दूसरे से पूछा।
‘मालूम नहीं’ दूसरा बोला, ‘कभी दिखाई नहीं दिया मोहल्ले में।’
‘कोई भी हो’ पहला ट्रांजिस्टर समेटता हुआ बोला, ‘टीप तो गला!’
‘अबे कहीं अपनी जात का न हो?’
‘पूछ लेते हैं इसी से’ कहते–कहते उसने उसे जगा दिया, ‘कौन हो तुम?’
वह आँखें मलता नींद में ही बोला, ‘तुम कौन हो?’
‘सवाल जवाब मत करो। जल्दी बताओ वरना मारे जाओगे।’
‘क्यों मारा जाऊँगा?’
‘शहर में दंगा हो गया है।’
‘क्यों....कैसे?’
‘मस्जिद में सूअर घुस आया।’
‘तो नींद क्यों खराब करते हो भाई! रात की पाली में कारखाने जाना है।’ वह करवट लेकर फिर से सोता हुआ बोला, ‘यहाँ क्या कर रहे हो?....जाकर सूअर को मारो न!’
लघुकथा को कहानी से पूर्णत: अलगाने वाला तत्व है–भाषा की सांकेतिकता। कहानी में भाषा की सांकेतिकता मन:स्थिति को चुस्ती से प्रस्तुत करती है। वातावरण निर्माण का भी यहाँ अवकाश नहीं होता। थोड़े में अधिक कहने के कारण एक–एक शब्द और वाक्य का निश्चित स्थान होता है। जरा सा भी विस्तार उसमें दरार डाल सकता है जबकि कहानी का एकाध पहरा निकाल भी दिया जाए तो पाठक को पता भी नहीं चलेगा।
कथोपकथन कहानी का तो अनिवार्य तत्व है पर लघुकथा का नहीं। यूँ तो लघुकथाकार भी संक्षिप्त और तेज तर्रार संवादों द्वारा लघुकथा में कसाव भरने की कोशिश करता है पर संवादहीन लघुकथाएँ भी काफी हैं। वस्तुत: लघुकथा संवादों के कथानक के अनुरूप् संवाद स्वयं सम्मिलित होते चले जाते हैं। संवादों के सटीक एवं प्रभावी प्रयोग का एक उदाहरण कमलेश भारतीय की लघुकथा ‘परेदेशी पांखी’ है।
–ए भाई साब....जरा हमार चिठिया लिख देवें...
–हाँ लाओ...कहाँ...?
–लिखे कि अब के दीवाली पे भी घर नाहिं आ पावेंगे।
–हूँ...आगे बोलो।
–आगे लिखें....हमार तबियत कछु ठीक नाहिं रहत, इहां का पौन–पानी सूट नाहिं किया...
–बाबू साब...इसे काट देवें।
–क्यों?
–जोरू पढि़ के उदास होई जावेगी।
–और क्या लिखूँ?
–दीवाली त्योहार की बाबत रुपिया–पैसे का बंदोबस्त करिके मनीआर्डर भेज दिया है, बच्चों को मिठाई–पटाखा ले देना और साड़ी पुरानी से ही काम चलाना। नई साड़ी के लिए जुगत कर रहा हूँ।
–हूँ...
‘काम धंधा मिल जाता है। थोड़ा बाबू लोगन से जान पहचान बढ़ गई है। बड़के को इदर ई बुला लूँगा। दोनों काम पे लग गए तो तुम सबको ले आऊँगा। दूसरों के खेतों में मजूरी से बेपत्त होने का डर लगा रहता है। अखबार सुनि के भय उपजता है। इहां चार घरों का चौका बर्तन नजरों के सामने होगा। नाहिं लिखना....मत लिखना बाबूजी,...अच्छा नाहिं लगत है!
–क्यों?
–जोरू ने कौन सा सुख भोगा है?
–और तुमने?
–ऐसे ई कट जाएगी जिंदगानी हमार...लिख दें...सब राजी–खुशी....थोड़ा लिखा बहोत समझना...सबको राम- राम, सबका अपना–मटरू...पढ़ने वाले को सलाम बोलना...।
कहानी और लघुकथा में एक अंतर चरित्रांकन का भी है। कहानी में एक पात्र के समग्र या अधिकांश जीवन का चित्रण संभव है। लघुकथा में पात्र की किसी एक मन:स्थिति को ही लिखा–परखा जाता है। और यह एक स्थिति भी इतनी प्रगाढ़ता से निरूपित की जाती है कि कई बार तो पात्र का समग्र चरित्र रेखांकित हो जाता है। इस संदर्भ में प्रबोध कुमार गोविल की लघुकथा ‘मां’ एक बेजोड़ मिसाल है–
उसका बाप सुबह–सुबह तैयार होकर काम पर चला गया। माँ रोटी देकर ढेर सारे कपड़े लेकर नहर पर चली गई। वह घर से बाहर निकली थी कि उसी की तरह रूखे उलझे मैले बालों वाली उसकी सहेली अपना फटा और थोड़ा ऊँचा फ़्रााक बार–बार नीचे खींचती आ गई। फिर एक एक करके बस्ती के दो चार बच्चे और आ गए।
‘चलो, घर–घर खेलो।’
‘पहले खाना बनाएंगे, तू जाकर लकड़ी बीन ला। और तू यहाँ सफाई कर दे।’
‘मैं तो इधर बैठूँगी।’
‘चल अपन दोनों चल कर कपड़े धोएंगे।’
नहीं, चलो पहले सब यहाँ बैठ जाओ। खाना खाओ, फिर बाहर जाना।’
‘मैं तो इसमें लूँगा।’
‘अरे! भात तो खत्म हो गया। इतने सारे लोग आ गए...चलो तुम लोग खाओ, मैं बाद में खा लूँगी।’
‘तू मां बनी है क्या?’
नि:संदेह इस लघुकथा में थोड़े से शब्दों में ही मां का ऐसा रूप उभरता है जो सार्वभौम है और ्शायद ऐसी अभिव्यक्ति किसी कहानी में हो ही ना सके।
लघुकथा और कहानी में एक फर्क शैली का भी है। लघुकथा की शैली ही उसके लक्ष्य की, उसके प्रभाव की नियामक है। लघुकथा में किसी बात या स्थिति को उठाकर या तो आधे में ही छोड़ दिया जाता है या चरम पर ले जाकर एकदम झटक दिया जाता है। लघुकथा के अंतिम वाक्य का सर्वाधिक जानदार होना भी इसी बात का द्योतक है। रघुनाथ प्यासा का मत है कि बया के घोंसले की सी कारीगरी जैसी अभिव्यक्ति का प्रतिरूप। है लघुकथा। घौंसला कबूतर का भी होता है। इस अंतर को समझने का मर्म ही लघुकथा की आत्मा है। कहानी और लघुकथा को पार्थक्य प्रदान करने वाला महत्वपूर्ण तत्व शैली ही है। शैली ने ही लघुकथा के पृथक अस्तित्व को प्रतिस्थापित कर इसे प्रतिष्ठित किया है। शैली ही के कारण लघुकथा में पाठक को तिलमिला देने की क्षमता है।
कहानी और लघुकथा में एक अंतर जीवन दर्शन की अभिव्यक्ति का भी है। लघुकथा में एक ही प्रयोजन होता है और लघुकथाकार अपने उद्देश्य की तरफ धीरे–धीरे घटनाओं में से घटनाएं निकालता, घुमावदार मार्ग में से गुजरता, कथा का जाल सा बुनता हुआ नहीं बल्कि सीधे तीव्रता से मानो दौड़ता हुआ बढ़ रहा है। लघुकथा का लेखक डाक्टर की तरह रोग का निदान नहीं करता बल्कि सहृदय मित्र की तरह रोगी से इतना ही पूछता है कि क्या बात, तबियत खराब है क्या? कहानी में उद्देश्य,संदेश, शिक्षा या समाधान के रूप में छिपा हो सकता है पर लघुकथा में नहीं। लघुकथा के अंत में जिज्ञासा शांत नहीं होती बल्कि बढ़ती है, पाठक कुछ और पाने को तड़प उठता है, बस यहाँ तक पाठक को ले आना ही लघुकथा का उद्देश्य है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि कहानी और लघुकथा आकार, प्रभाव, शैली, संप्रेषण और ग्राह्यता की दृष्टि से पूरी तरह अलग विधाएँ हैं। लघुकथा में लघु विशेषण कथा के साथ जुड़कर लघुआकार का बोध देने वाला शब्द ही नहीं है, अपितु संपूर्ण शब्द का एक अविभाज्य अंग है। कथा विकास चर्चा में लघुकथा शब्द का अर्थ परंपरा से भिन्न नए कथाबोध की लघुता वाली रचनाएँ ही समझा जाना चाहिए।

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