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लघुकथाएँ - देश - आरती झा
प्यार

झील के शान्त नीले जल को एकटक देखना अच्छा लग रहा था। चप्पू की आवाज सुरीली थी। बोटवाला लड़का इक्कीस–बाईस साल का होगा। गहरी भूरी आंखें ढूँढती हुई–सी।
‘‘क्या करते हो बोट चलाने के अलावा?’’ मैंने पूछा।
‘‘पढ़ाई! कामर्स पढ़ रहा हूँ। यह पार्ट टाइम जॉब है मेरा। अभी पीक सीजन है न! टूरिस्टों की भीड़ रहती है, सो अपनी अच्छी कमाई हो जाती है।’’
‘‘बोट क्या तुम्हारी अपनी है?’’
‘‘नहीं! मलिक की है। अपनी कहाँ से....?’’ थोड़ी देर चुप वह कुछ सोचता रहा फिर बोला,‘‘लकड़ी महँगी है बोट...तीस–चालीस हजार रुपए पड़ जाते हैं एक अच्छी और मजबूत बोट बनाने में।’’
‘‘आप वह पहाड़ी देख रही है न...वह स्यूसाइडल प्वाइंट है।’’
डसकी बात सुन मेरा सर चकरा गया।
‘‘क्या? क्या कहा?’’ मैंने घोर आश्चर्य के साथ उसे गहरी नजरों से देखा।
‘‘हाँ सच! वहाँ से लोग कूदकर जान दे देते हैं। अभी कल ही की बात है...एक लड़की वहाँ से कूदकर मर गई। साथ में लड़का भी कूदनेवाला था, मगर कूद नहीं पाया...अब वो जेल में बन्द है।’’ उसके चेहरे पर उदासी छा गई। किसी दूसरी दुनिया में वह खो–सा गया। मैं कुछ कहना चाहती थी कि तभी जैसे किसी स्वप्न से जागकर वह बोलने लगा, ‘‘बड़ा प्यार करता था लड़की से...साथ–साथ जीने–मरने की कसमें खाया करता था। मगर जाने क्यों हिम्मत नहीं कर पाया कूदने की।’’
मैंने कुरेदा, ‘‘क्या कहना चाहते हो, प्यार में कमी थी उसके? प्यार क्या है तुम्हारी नजर में?’’
उसकी गहरी भूरी आँखों बिल्कुल स्थिर थीं, झाल की तरह। मानो बिना कुछ दिखाता हूँ आपको मैं...।’’
झील के उस तरफ मंदिर था। पूरा तो नहीं, बस एक हिस्सा दिखाई दे रहा था।
‘‘कैसे देखूँ? हलचल हो रही है चप्पू से...पानी बिखर रहा है....।’’
‘‘ठहरिए! चप्पू चलाना बन्द करता हूँ अब देखिए...दिखा?’’
‘‘हाँ! कुछ हिस्सा दिख तो रहा है, धुँधला–सा।’’ मैंने कहा।
वह बोला, ‘‘ऐसा ही है प्यार भी। हलचलों के बीच स्थिर–सी कोई चीज...कुछ देखा और बहुत कुछ अनदेखा।’’

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