तीसरी रचना का शीर्षक ‘भारत’ है और रचनाकार पारस दासोत। ऐसे भारत एक साधनहीन, दीनहीन मलिन स्कूली छात्र का नाम है पर ‘भारत’ अपने देश का भी भार ढो सकता है इसका सांकेतिक व प्रतीकात्मक अर्थ भी लगाया जा सकता है जो संभवत: रचनाकार का भी इष्ट अभीष्ट हो सकता है। वैसे रचना कोई बहुत प्रभावोत्पादक नहीं है पर जिस भाव या विचार का यह संवहन संप्रेषण करती है वह निश्चित रूप से अत्यन्त मूल्यवान है, कीमती है। कथ्य मूल्यवान है, संदेश कीमती है। किसी भी उपलब्धि के लिए गरीबी बाधक नहीं हो सकती। प्रतिभा की विजय, मेधा का विस्फोट गरीबी में भी संभव है, बल्कि ज्यादा संभव है। सम्पन्नता व समृद्धि जीवन में सतही खुशहाली ला सकती है, पर जीवन की गहरी सच्चाई से साक्षात्कार के लिए विपन्नता का वरदान आवश्यक हो जाता है। प्रतीकार्थ में कहा जा सकता है कि भारत सर्वाधिक साधनहीन व विपन्न होते हुए भी जीवन की दौड़ में सर्वथा विजयी होता है, संस्कृति के क्षेत्र में सर्वदा स्वर्णपदक प्राप्त करता है। रचना में सृजनात्मक रस मिठास की कमी खटकती है इसलिए इसे द्वितीय कोटि में ही स्थान मिल पाएगा।