चौथी लघुकथा ‘माँ’ शीर्षक से प्रस्तुत है रचनाकार है, प्रबोधकुमार गोविल। प्रबोध कुमार गोविल की यह रचना मानव के सनातन भावों में सबसे विराट भाव–मातृत्व भाव का बड़ा ही तीखा अंकन करती है। अंतिम अंश तो बड़ा ही हृदयभावक,मर्मस्पर्शी है। मातृत्व- भाव की विशाल उदारता से ओत–प्रोत पाठक भी मातृत्व के उस रस विस्तार में ममतामयी मां केअपार रस पारावार में तरंगायित होने लगता है, डूबने–उतराने, ऊभ–चूभ होने लगता है–एक अजीब अकथनीय सौंदर्य मिठास, ममत्व–माधुर्य से भर उठता है। सचमुच मातृत्व जीवन का सर्वाधिक सुंदर रूप है, भाव है। मातृत्व मानवता की उत्कृष्टतम दिव्यतम छवि है जो देवत्व को छू लेती है, ईश्वर को स्पर्शित करती है। मातृत्व एक पूर्ण रस, पूर्ण रसास्वादन है, इस भाव के उदित होते ही, इस महाभाव के अवतरित–प्रसरित–विस्तरित होते ही जीवन के सारे अभाव, कष्ट–क्लेश, वेदना–व्यथा काफूर हो जाते हैं और मानव दीनता में भी पूर्ण समृद्धि की अनुभूति करने लगता है। रचना हर तरह से अच्छी बन पड़ी है। इसमें साहित्य के शाश्वत आकर्षण–सम्मोहन विद्यमान हैं–शाश्वत अपील के अमृत अंश है जो अच्छी रचना की पहली व अंतिम शर्त हो सकती है। सार्वभौमिक सत्य को कथ्य बनाकर उसे संवेदना की धीमी स्थिर आंच में पकाकर गोविल ने रचना को जीवनदायी मधुर पेय के रूप में उपस्थित कर दिया है। रचना निश्चित रूप से प्रथम कोटि की है।