सुकेश साहनी की लघुकथा ‘वापसी’ एक बहुत सुन्दर,बहुत उत्कृष्ट रचना है। सृजनात्मक का समस्त सुषमा–सौरभ इस सर्जना में समाहित है, समाविष्ट है। ‘वापसी’ शीर्षक भी बड़ा सटीक है, बड़ा उपयुक्त–ईमानदारी की वापसी (Good Sence), चरित्र–सिद्धान्त–आदर्शों की वापसी, विवेक–वैभव की वापसी।
एक अभियंता की अतीत ईमानदारी से उसकी वर्तमान बेईमानी की तुलना की गई है–उसके दोनों रूपों–भावों की पुष्टि की गई है–इससे उत्पन्न जो अंतर्मथन, उद्वेलन, आत्म–ग्लानि है वह बड़ी सुंदरता से, साहित्यिकता से, मर्मस्पर्शता से प्रस्तुत किया गया है। आदर्श और यथार्थ के केन्द्र को, सदाचार और भ्रष्टाचार के अन्तर्द्वन्द्व को बड़ी खूबी से, बड़े प्रभावशाली ढंग से रखा गया है। वर्तमान के स्खलन या पतन में अपने गौरवशाली अतीत का स्मरण विवेक के उदय का, चैतन्य के विस्फोट का कारण बनता है। अतीत की विरुदावली पथभ्रष्ट मानव को पुन: मार्ग पर लाने का उपक्रम करती है–पटरी से गिरी गाड़ी फिर पटरी पर आ जाती है और वांछित दिशा में सर्व–शक्ति से दौड़ने लगती है। कभी–कभी जीवन की कोई साधारण घटना या अनुभव ही जीवन में ऐतिहासिक मोड़ Turning pointया सिद्ध होता है। जीवन का रूपान्तरण–भावान्तरण–कायाकल्प हो जाता है– Ressurrection जीवन पुन: उज्जीवित हो उठता है अपने संपूर्ण भाव–वैभव के साथ। आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण, आत्मग्लानि व पश्चात्ताप से मानव जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन, चमत्कारित तब्दीलियाँ उपस्थित हो जाती है।
ईमानदारी के प्रत्यावर्तन की यह कहानी, सदाचरण की वापसी की यह कथा, आदर्शों के पुनरागमन व पुनर्स्थापन का यह आख्यान घोर नैराश्यांधकार में सहसा सूर्योदय की संभावना का संधान कर लेती है जिससे जीवन का दैन्य–नैराश्य, जीवन की दिग्भ्रांति और मूल्यभ्रष्टता और आशा और विश्वास आस्था व मूल्यबोध में परिवर्तित हो जाती है। यह रचना सर्वतोभावेन तृप्तिकर है, तुष्टिदायिनी है। रचना के महत् उद्देश्य की सत्पूर्ति करती यह रचना, सृजनात्मकता के स्वच्छ सौरभ–सुवास से संग्रथित यह सर्जना वस्तुत: उत्कृष्ट पदाधिकारिणी है। निश्चय ही यह प्रथम कोटि में उच्च स्थान की अधिकारिणी है।