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गत वर्श की तुलना में इस बार प्रतियोगिता हेतु प्राप्त लघुकथाओं की संख्या काफी अधिक थी, परन्तु इनमें से कुल तीस (प्राप्त लघुकथाओं का लगभग 0.024 प्रतिशत) लघुकथाओं को निर्णायकों ने विचार योग्य पाया। प्रथम दृष्टया इन रचनाओं का स्तर भी बहुत उत्साहित करने वाला प्रतीत नहीं हो रहा था। इस दषा पर हरिनारायण जी काफी निराश दिखे। पिछले कईवर्षोंसे लघुकथा प्रतियोगिता आयोजित कर लघुकथा के विकास एवं प्रचार प्रसार में उन्होंने अविस्मरणीय योगदान किया है। उन्होंने सच्चे मन से यह बात शेयर की कि अन्य पत्रिकाओं में छप रही लघुकथाओं की संख्या देखकर अक्सर उनके भीतर प्रश्न उठता था कि कहीं रचनाओं के चयन हेतु उनके द्वारा प्रयुक्त स्केल (sieve)बहुत उच्च (fine) तो नहीं। उन्होंने इस दृष्टि से भी समय-समय पर प्राप्त होने वाली रचनाओं की पड़ताल की और इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि लघुकथा के क्षेत्र में अच्छी रचनाओं का संकट आज भी बना हुआ है।
मैं हरिनारायण जी से सहमत हूँ। लघुकथा डॉट कॉम के सम्पादन में मुझे और काम्बोज जी को भी इस संकट का सामना करना पड़ता है। स्तरीय लघुकथाओं के सामने न आने के पीछे, जहाँ एक और इसमें सक्रिय युवा पीढ़ी की अगम्भीरता,जल्दबाजी उत्तरदायी है तो वहीं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के असावधान सम्पादक भी कम जिम्मेदार नहीं। मुझे लगता है बड़े पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक फिर लघुकथा को फिलर के रूप में इस्तेमाल करने लगे हैं। देश के प्रसिद्ध दैनिक के 16 सितम्बर 2013 के साहित्यिक पृष्ठ पर लघुकथाएँ भेजने हेतु आमंत्रण देखने को मिला-‘ लघुकथा साहित्य की महत्त्वपूर्ण एवं लोकप्रिय विधा है। युवा कथाकारों से नावक के तीर की तरह मर्मभेदी,अर्थपूर्ण और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी मौलिक लघुकथाओं की अपेक्षा है़।’ इसी पृष्ठ पर ‘पदोन्नति’ लघुकथा प्रकाशित की गई है:
पहले वो घर की बहू थी, बहू अर्थात् घर की लक्ष्मी। धीरे-धीरे समय बीतता गया। फिर वो सास बनी यानी सिर्फ समाज की नजर में घर की बड़ी बुजुर्ग। और आज...आज वो घर की आया है , काम वाली आया।
देश की जानी मानी पत्रिका के अगस्त 2013 के अंक में लघुकथा (गया काम से) के नाम पर चुटकला छापने के पीछे संपादक मण्डल की क्या मजबूरी हो सकती है-
शहर के व्यस्त चौराहे पर एक कविनुमा व्यक्ति खादी का कुर्ता पैजामा पहने, काँधे पर शबनमी झोला लटकाए जा रहा था। अचानक पीछे से मोटरसाइकिल वाला आदमी आया और उसका झोला छीनकर भाग गया। लोगों ने उसे पकड़ना चाहा ; पर वह हाथ न आया। कुछ लोग सहानुभूति जताने के लिए उसके पास गए। लोग कुछ कहते इसके पहले ही वह व्यक्ति ,जिसका झोला झपटमार ले भागा था, जोर से हँसने लगा। लोगों को आश्चर्य हुआ, कैसा आदमी है, एक तो उसका झोला छीना गया, इस पर वह हँसता है।लोगों ने पूछा-‘‘क्या बात है, हँसते क्यों हो?’’ उसने वैसे ही हँसते हुए कहा, ‘‘साला गया काम से, झोले में मेरी कविता की डायरी थी।’’
आकारगत लघुकथा के कारण आभासी संसार में लघुकथा पोस्ट करने में सुविधा रहती है, दूसरे आप कुछ भी प्रकाशित करने के लिए स्वतंत्र है। छोटी रचना को लोग पढ़ भी लेते हैं। कुछ गंभीर प्रयासों को छोड़ दिया जाए ,तो यहाँ भी चुटकलों, खबरों ,सच्ची घटनाओं का बोलबाला है। बिना किसी स्क्रीनिंग से गुजारे अपनी रचनाओं की प्रस्तुति/पोस्टिंग की स्वतंत्रता के चलते अस्तरीय रचनाओं को बढ़ावा मिलता है ; क्योंकि बिना पढ़े ‘लाइक’ करने वालों की यहाँ कमी नहीं है। पिछले दिनों फेसबुक पर एक लेखिका की लघुकथा पढ़ने को मिली ; जो किसी भी कोण से लघुकथा नहीं थी। उस पोस्ट पर उनके मित्रों के कमेंट्स देखने लायक थे-‘वाह! क्या बात हैं.’...‘लाजवाब!’ ‘स्पीचलैस!’ ‘मार्मिक!’ ‘हिलाकर रख दिया’ ‘बहुत खूब!’ ‘संग्रह कब आ रहा?’ ‘जोरदार!’ आदि आदि। और लेखिका शुक्रिया! धन्यवाद! कहते नहीं थक रही थीं।
इन विपरीत परिस्थतियों के बीच कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता जैसे आयोजन ताजी हवा के झोंके की तरह महसूस होते हैं। बरेली,पटना समेत विभिन्न शहरों में समय-समय पर आयोजित लघुकथा -पाठ और उसपर विमर्श ने इस विधा के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ‘संगमन’ की तरह ही लघुकथा को लेकर ‘मिन्नी’ त्रैमासिक, अमृतसर द्वारा अंतर्राज्यीय लघुकथा लेखक सम्मेलन आयोजित किया जाता है। इस सम्मेलन का प्रमुख आकर्षण होता है‘जुगनुओं’ के अंग-संग’। इसमें देश के जाने माने लेखकों द्वारा भाग लिया जाता है। रात्रि -भोजन के बाद सभी कथाकार बड़े से गोलदायरे में बैठ जाते हैं,एक कथाकार अपनी लघुकथा का पाठ करता है और दूसरे बारी -बारी से उस रचना की खूबियों/खामियों पर अपने विचार प्रकट करते हैं। इसकी एक विषेषता यह भी है कि इसमें सम्बन्धित लेखक को अपनी रचना पर टिप्पणी करने का अधिकार नहीं होता। यह कार्यक्रम रात भर चलता है। इस कार्यशाला का उद्देश्य लघुकथा के शास्त्रीय पक्ष को लेकर व्यावहारिक निष्कर्षों पर पहुँचना रहा है। कहना न होगा कि इन कार्यशालाओं से लघुकथा के निकष को लेकर छाया धुंधलका छटा है। इस कार्यक्रम के एक सूत्रधार श्याम सुंदर अग्रवाल इस बार के निर्णायकों में से एक हैं। लघुकथा के निकष पर पुरस्कृत लघुकथाओं की चर्चा से पूर्व स्पष्ट करना जरूरी लगता है कि लघुकथाओं पर चर्चा का उद्देश्य भी ‘जुगनुओं के अंग-संग’ जैसी कार्यशालाओं की तरह लघुकथा लेखन के लिए बेहतर जमीन तैयार करना हैं न कि किसी रचना की कमज़ोरी गिनाना।
हम सभी मानते हैं कि लघुकथा को ‘लघु’ होना चाहिए और उसमें ‘कथा’ होनी चाहिए। कथा की अनिवार्यता पर इसलिए बल दिया जाता है ; क्योंकि कथा का चुम्बक हमारे दिल और दिमाग को रचना की ओर खींचता है और हम पात्रों से एकात्म होकर पूरी रचना को सही रूप में ग्रहण कर पाते हैं। आकारगत लघुकथा के कारण यहाँ ‘कथा’ के लिए सीमित अवसर ही है। यह लेखक के रचना -कौशल पर निर्भर है कि वह कैसे इनका संयोजन कर मुकम्मल रचना का सृजन कर पाता है।
उर्मिल कुमार थपलियाल की लघुकथा ‘मुझमें मंटो’ को लघुकथा की कसौटी पर कसा जाए तो प्रथम दृष्टया इसमें (1)कथा नहीं है (2) शीर्षक कमज़ोर है, कथ्य को सम्प्रेषित नहीं करता (3) मानवेतर पात्र का उपयोग किया गया है, जैसी कमियाँ मालूम पड़ती हैं। लघुकथा में बात इतनी- सी है कि दहशतगर्द ने सड़क पार कर रहे बच्चे पर निशाना साधा और दन्न से गोली चला दी ; मगर गोली बच्चे के करीब से निकल गई। इसमें लेखक ने मंटो से संवाद स्थापित किया है, मंटों अपने अंदाज में जवाब देते है कि बच्चा इसलिए बच गया ; क्योंकि गोली को पता था कि वह बच्चा है। इसमें गोली के रूप में मानवेतर पात्र का उपयोग किया गया है। विभिन्न लघुकथा गोष्ठियों में चली लम्बी बहसों के बाद हम सभी ये मानते हैं कि लघुकथा में मानवेतर पात्रों का प्रयोग कम से कम किया जाना चाहिए ;क्योंकि इनका इस्तेमाल उसे अपनी विकास यात्रा में फिर नीति/बोधकथा की ओर धकेलता है। मानवेतर पात्र का उपयोग वहीं किया जाना चाहिए ; जहाँ रचनाकार को लगे कि ऐसा करने से वह रचना को और प्रभावी बनाने में सफल होगा। प्रष्न उठता है इस लघुकथा में ऐसी क्या बात है; जिनकी वजह से प्रथम स्थान पर रही है।
‘मुझमें ‘मंटो’ पर आगे चर्चा से पूर्व यहाँ प्रस्तुत है मंटो की लघुकथा ‘‘बेखबरी का फायदा’’-
‘लिबलिबी. दबी। पिस्तौल से झुँझलाकर गोली बाहर निकली। खिड़की में से बाहर झाँकने वाला आदमी उसी जगह दोहरा हो गया।
लिबलिबी थोड़ी देर बाद फिर दबी-दूसरी गोली भिनभिनाती हुई बाहर निकली। सड़क पर माशकी की मशक फटी। औंधे मुँह गिरा और उसका लहू मशक के पानी में मिलकर बहने लगा।
लिबलिबी तीसरी बार दबी-निशाना चूक गया। गोली एक गीली दीवार में जज्ब हो गई। चौथी गोली एक बूढ़ी औरत की पीठ में लगी। वह चीख भी न सकी और वहीं ढेर हो गई। पाँचवी-छठी गोली बेकार गई। न कोई हलाल हुआ, न जख्मी।
गोलियाँ चलाने वाला भिन्ना गया। दफअतन सड़क पर एक छोटा-सा बच्चा दौड़ता दिखाई दिया। गोलियाँ चलाने वाले ने पिस्तौल का मुँह उस तरफ मोड़ा।
उसके साथी ने कहा, ‘‘यह क्या करते हो?’’
गोलियाँ चलानेवाले ने पूछा,‘‘क्यों?’’
‘‘गोलियाँ तो खत्म हो चुकी हैं।‘’
‘तुम खामोश रहो। बच्चे को क्या मालूम!’’
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‘स्याह हाशिए’ के अन्तर्गत भारत- पाक विभाजन की त्रासदी पर लिखी गई इस रचना में मंटों ने दंगों के दौरान दहशतगर्दों का मखौल उड़ाते हुए उनकी मानसिक स्थिति पर करारा व्यंग्य किया है।
वर्तमान संदर्भों में थपलियाल जी की लघुकथा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण एवं अर्थगर्भी है। जब हम इसका रचनात्मक विश्लेषण करते हैं ; तो पाते हैं कि ‘गोली’ के रूप में मानवेतर पात्र का उपयोग लघुकथा की जरूरत है। इस रचना के माध्यम से लेखक यह संदेश देने में सफल रहा है कि संवेदनाएँ कभी नहीं मरेंगी, वे अपना गुण-धर्म निभाती रहेंगी, मनुष्य की क्रूरता को परास्त करती रहेगी। खूंखार दरिंदें दहशतगर्द का सड़क पार कर रहे छोटे बच्चे पर निशाना साधना और दन्न से गोली चलाना यानी दहशतगर्द की बच्चे के प्रति संवेदना का लोहे की तरह कठोर हो जाना। यहाँ गोली को (जब तक दरिंदे के कंट्रोल में है) दहशतगर्द की बच्चे की प्रति संवेदनहीनता के प्रतीक के रूप में प्रयोग किया गया है परन्तु दहशतगर्द की चंगुल से छूटते ही संवेदना अपना गुण-धर्म निभाती है और बच्चे की रक्षा करती है। यही रचनाकार का संदेश है। यहाँ लेखक ने जानबूझकर मंटो से संवाद किया है ताकि रचना को विभाजन की त्रासदी के बाद आधुनिक संदर्भों में रेखांकित किया जा सके। ‘मुझमें मंटों’ सकारात्मक सोच के साथ मानवोत्थान की अभिलाषा की कथा है। मानवेतर पात्र के उपयोग से रचना का प्रभाव कई गुना बढ़ गया है। मानवेतर पात्रों के प्रयोग से प्रभावशाली बन पड़ी अन्य लघुकथाओं में जानवर भी रोते है (जगदीश कश्यप), अतिथि कबूतर (राम पटवा) तोता (सु.सा) एवं पुल (फ्रांजं काफ्का) जैसी अनेक लघुकथाओं को देखा जा सकता है।
सविता पाण्डेय की लघुकथा ‘छवियाँ ऐसे भी बनती है’ विषय की नवीनता के कारण निर्णायकों का ध्यान खींचने में सफल रही है। लघुकथा में जटिल पारिवारिक सम्बन्धों की कलात्मक अभिव्यक्ति हुई है। लघुकथा के चरमोत्कर्ष -‘हमारी नजरों में माँ नहीं,’ क्यों नंगे हो रहे थे पिता??!! पर पहुँचकर एक सवाल बहुत देर और दूर तक पाठक का पीछा करता रहता है, ‘ माँ को बच्चों के लिए पिता क्यों बनना पड़ता था?’ इस रचना के माध्यम से लघुकथा में नेपथ्य के महत्त्व को रेखांकित किया जा सकता है।
‘खेमकरण ‘सोमन’ की लघुकथा ‘अंतिम चारा’ अपने कांटेट के कारण तीसरा स्थान पाने में सफल रही हैं। शीर्षक ‘अंतिम चारा’ जहाँ अंतिम विकल्प के तौर पर प्रयोग किया गया है, वहीं रचना पाठ के दौरान वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में विभिन्न स्तरों पर महिलाओं के चारे के रूप में इस्तेमाल की ओर भी हमारा ध्यान खींचता है। आज भी बहुत से ग्रामीण क्षेत्रों में यह मान्यता है कि भयंकर सूखे के दौरान महिलाएँ निर्वस्त्र होकर हल चलाएँ तो भगवान इन्द्रदेव प्रसन्न होकर वर्षा कर देते हैं। लघुकथा में इस अंधविश्वास के खिलाफ आवाज बुलन्द करती महिलाओं की व्यथा है-‘‘दुख है कि हर कोई हम महिलाओं को नंगी ही देखना चाहता है,चाहे भगवान हो, बादल हो, या इंसान हो।’’ लघुकथा अंत में आकर अपनी बुनावट में ढीली पड़ जाती है। कथा वहीं समाप्त हो जानी थी, जहाँ पुरुषों की सभा में बात पहुँचा दी जाती है कि महिलाएँ निर्वस्त्र होकर हल नहीं चलाएँगी। अंतिम पंक्तियों की उपस्थिति लघुकथा की प्रकृति के विपरीत है।
जो लोग लघुकथा में एक ही विषय पर कई कई लघुकथाएँ लिखते हैं ;उन्हें रंजीत कुमार ठाकुर की लघुकथा ‘सुन्दरता’ पढ़नी चाहिए, जिसमें लेखक अतिसाधारण -सी घटना पर रोचक लघुकथा लिखने में सफल रहा है। यहाँ लघुकथा को और कसने की जरूरत थी। प्रथम अवतरण अनावश्यक हैं। सुलेखा चौहान की ‘मजूरी’ में पुरुष से अच्छा और अधिक काम करने वाली स्त्री को पुरुष से कम मेहनताना देने की परम्परा पर चोट की गई हैं। अंत में लेखकीय टिप्पणी किसी निबंध का उपसंहार मालूम पड़ती है और रचना को कमजोर करती है।
अनुपम अनुराग की ‘स्मृति संध्या’ पूरन सिंह की डोर और जयमाला की ‘फर्क’ अपने आप में मुकम्मल उद्देश्यपूर्ण लघुकथाएँ हैं और लघुकथा के निकष पर खरी उतरती हैं। ‘फर्क’ जैसी बहुत सी रचनाएँ लिखी गई हैं ; परन्तु समापन बिंदु पर बेटी द्वारा उठाए गए मार्मिक सवाल के कारण लघुकथा चौथा स्थान पाने में सफल रही है। ‘डोर’ की नारी पुरुष के साथ बराबरी पर खड़ी है और ईंट का जवाब पत्थर से देने भी सक्षम हैं ,पर यहाँ भी पुरुष उसके षोषण के लिए नित नए हथकंडे अपनाता है और मातृत्व जैसी प्रकृति प्रदत्त देन को उसके खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल करने से गुरेज़ नहीं करता। ‘स्मृति संध्या’ में शहीदों के प्रति हमारे राजनेताओं के सोच को बेनकाब किया गया है।
संतोष सुपेकर की ‘महंगी भूख’, कस्तूरी लाल तागरा की ‘पुरुष-मन’ एवं मनोज अबोध की ‘दहेज’ लघुकथा की परिभाषा पर खरी उतरती हैं।
पिछले वर्ष की भाति इस वर्ष भी प्रतियोगिता हेतु प्राप्त अनेकों लघुकथाओं में विषयों का दोहराव देखने को मिला है। पिछले वर्ष खलील जिब्रान (ऊँचाई), विष्णु प्रभाकर (फर्क),रतनसिंह (सरहद), श्यामसुन्दर दीप्ति (सीमा) की लघुकथाओं की प्रस्तुति के साथ विषयों के दोहराव के खतरों की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया था। फेसबुक पर इसी विषय पर एक अस्तरीय प्रस्तुति देखकर लगा कि युवा पीढ़ी इसे गम्भीरता से नहीं ले रही है। वर्तमान पीढ़ी को चाहिए कि वह समकालीन लघुकथाओं का भली- भाँति अध्ययन करें तथा जहाँ तक सम्भव हो विषयों के दोहराव से बचे। कई विषय/समस्याएँ ऐसी होती हैं ,जो सदैव प्रासंगिक होती है। ऐसे विषयों पर कलम चलाते हुए लेखक को अधिक कुशल होना चाहिए। लघुकथा में सांकेतिकता एवं शब्दों की मितव्यतता के सन्दर्भ में ‘दहेज’ जैसे विषय पर हंस, फरवरी 90 (लगभग 23 वर्ष पहले) में प्रकाशित ‘स्कूटर’ लघुकथा के प्रथम दो अवतरणों की ओर युवा पीढ़ी का ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा-
एक बहुत बड़ा कमरा है-उसमें अनगिनत स्कूटर खड़े चमचमा रहे हैं। उनके बीच वह फटी जेबों में हाथ डाले खड़ा कुछ सोच रहा है। कमरे के तापमान के साथ ही उस पर एक विचित्र दबाव भी बढ़ता जा रहा है। तभी उसे लगा कि वह अपने शरीर पर नियंत्रण खोता जा रहा है। पैरों की तरफ से उसका शरीर एक स्कूटर में तबदील होने लगता है। पहले पिछला पहिया, बॉडी,सीट....फिर उसके हाथ हैण्डिल के रूप में और सिर माइलोमीटर में बदल जाता है। माइलोमीटर वाले भाग से वह अपने चारों ओर देख सकता है।
सुनील ने उसे अपने घर के बाहर सड़क पर खड़ा कर रखा है। नया स्कूटर पाकर वह बहुत खुश है। वह मस्ती में गुनगुनाता हुआ ‘किक’ मारता है। उसे इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं है कि स्कूटर के रूप में ससुर महोदय सामने खड़े हैं। सुनील से थोड़ा हटकर सरोज भी खड़ी है। वह अत्यन्त उदास है। सुनील उसे गेयर में डालता है और वह उन दोनों को बिठाए सड़कों पर दौड़ने लगता है। रिज़र्व का संकेत देने के बावजूद सुनील उसे दौड़ाता रहता है, पर चाहे स्कूटर हो या आदमी, बिना पेट्रोल या खून के कौन कितना दौड़ सकता है।
‘‘तुम्हारे बाप ने स्कूटर के नाम पर ये खटारा मेरे पल्ले बाँध दिया है....’’सुनील पत्नी पर चिंघाड़ रहा है-‘‘अपने बाप से कहो, इसे दुरुस्त कराए। छह महीने से पेट्रोल के पैसे भी नहीं भेजे, साले धोखेबाज!’’
‘‘इसे दौड़ना ही होगा!!’’ सुनील ज़ोर से स्कूटर पर लात जमाता है-‘‘वरना...मैं....’’ वह कोने में रखी मिट्टी के तेल की केन की ओर देखता है।
‘‘नहीं!!’’ वह बेबसी से अपने बूढ़े जर्जर शरीर को देखता है-‘‘उसे मत मारना....’’
वह जाग गया। शरीर पसीने-पसीने हो रहा था। वह बुरी तरह हाँफ रहा था। दिल की धड़कन अनियंत्रित होकर कनपटियों पर हथौड़े-सी चोट कर रही थी।
‘‘क्या हुआ जी?कोई बुरा सपना देखा है क्या?’’ पत्नी घबराई-सी उसकी ओर देख रही थी।
सपने के प्रभाव से वह अभी तक मुक्त नहीं हुआ था। उसने दीवार घड़ी की ओर देखते हुए सोचा....सुबह के पाँच बज गए....दिल्ली से आने वाली सभी गाड़ियाँ निकल गई होंगी।
‘‘सुनील आज भी नहीं आया!’’ काँपती कमज़ोर आवाज़ में उसने कहा।
‘‘लगता है तुम्हारी गिड़गिड़ाती चिट्ठियों का भी उस पर कोई असर नहीं हुआ है।’’ दीर्घ निःश्वास के साथ वृद्धा ने कहा-‘‘आज पूरे छह महीने हो गए सरोज को यहाँ आए।....अब तो उसकी सूरत देखकर कलेजा फटने लगता है...’’
कमरे में विचित्र-सा सन्नाटा पसर गया। दोनों ने एक-दूसरे से नज़र चुराते हुए अपने आँसू पोंछ लिये।
कथादेश द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता के फलस्वरूप बहुत सी प्रतिभाओं ने इस विधा में प्रवेश किया है। कुछ यादगार रचनाएँ लघुकथा -जगत् को प्राप्त हुई हैं। आषा है आगामी प्रतियोगिता में युवा पीढ़ी और भी उत्साह से इसमें प्रतिभागिता कर इस विधा को समृद्ध करने में अपना योगदान करेगी।
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