देश में हिन्दी लघुकथा का उन्नयन बीसवीं सदी के आठवें दशक से माना जाता है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस विधा का जन्म बीसवीं सदी के सातवें दशक के लगभग हुआ होगा। किसी भी विधा को गतिशील होने में आठ-दस वर्ष तो लग ही जाते हैं। पंजाब में रचा जा रहा हिन्दी साहित्य देश के अन्य भागों के हिन्दी साहित्य से प्रभाव ग्रहण करता है। ऐसे में लगता है कि पंजाब में भी पहली लघुकथा उन्हीं दिनों लिखी गई होगी। वर्ष 1961 में लिखी गईं डॉ. सुरेंद्र मंथन की लघुकथाएँ ‘उसका खजाना’ तथा ‘प्रतिद्वंद्वी’ इस बात की गवाही देती हैं। सातवें दशक में किसी लेखक ने बहुतायत में लघुकथाएँ लिखी हों, ऐसा दिखाई नहीं देता। ऐसा दौर ‘सारिका’ जैसी पत्रिका के लघुकथा विशेषांक प्रकाशित होने के पश्चात व लघु पत्रिकाओं के बड़ी संख्या में अस्तित्व में आने के बाद ही संभव हुआ।
पंजाब में लघुकथा उन्नयन में रमेश बत्तरा, कमलेश भारतीय, सिमर सदोष व डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति का विशेष योगदान रहा। रमेश बत्तरा ने ‘निर्झर’, ‘तारिका’ व ‘बढ़ते कदम’, कमलेश भारतीय ने ‘प्रयास’ व ‘दैनिक ट्रिब्यून’ तथा सिमर सदोष ने दैनिक ‘हिन्दी मिलाप’ तथा दैनिक ‘अजीत समाचार’ के माध्यम से लघुकथा लेखकों को प्रोत्साहित किया। उन्हें आगे बढ़ने के लिए ऊर्जा प्रदान की। बाद में रमेश बत्तरा ने ‘सारिका’ में रहते हुए भी लघुकथा के प्रति अपने दायित्व को बखूबी निभाया। बीसवीं सदी के नवें दशक में डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति ने पत्रिका ‘अस्तित्व’ में लघुकथाएँ प्रकाशित की।
पंजाब में हिन्दी में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र तो बहुत हैं, लेकिन पत्रिकाएँ नाम मात्र की ही हैं। इसलिए प्रारंभिक दौर में लघुकथाओं को प्रकाशित करने का श्रेय दैनिक ‘हिन्दी मिलाप’ व ‘वीर प्रताप’ को जाता है। समय के साथ ये दोनों पत्र बुक स्टालों से गायब हो गए। बाद में यह कार्य ‘दैनिक ट्रिब्यून’, ‘अजीत समाचार’, ‘अमर उजाला’, ‘दैनिक जागरण’ व पंजाब केसरी’ ने किया। इस तरह लघुकथा उन्नयन में पंजाब के समाचार पत्रों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
पंजाब सरकार की दो पत्रिकाएँ ‘जागृति’ तथा ‘पंजाब सौरभ’ लघुकथाओँ को योग्य सम्मान देती रही हैं। इन दोनों पत्रिकाओँ में लघुकथाएं प्रकाशित होती हैं। डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति के संपादन में प्रकाशिक होने वाली पत्रिका ‘अस्तित्व’ ने लघुकथाएँ प्रकाशित करने की ओर विशेष ध्यान दिया। पत्रिका ने नवंबर-1987 में लघुकथा विशेषांक प्रकाशित किया। यह विशेषांक ‘शतकथाएँ’ नाम से लघुकथा संकलन के रूप में भी सामने आया। जहाँ तक मेरी जानकारी है, पंजाब से हिन्दी में प्रकाशित होने वाला यह एकमात्र संपादित लघुकथा संकलन है।
संतलाल डावर के संपादन में मलोट नगर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘काँटों में फूल’ ने अगस्त-2001 एवं जनवरी-2007 में लघुकथा विशेषांक प्रकाशित किए। इन विशेषांकों में पंजाब एवं अन्य प्रदेशों के लेखकों की लघुकथाएँ एवं आलेख शामिल किए गए। शुभदर्शन के संपादन में अमृतसर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘बरोह’ का जुलाई-सितंबर-1999 अंक लघुकथा विशेषांक के रूप में पाठकों के सामने प्रस्तुत हुआ। इस विशेषांक का अतिथि संपादन चर्चित लघुकथाकार संतोष ने किया। इस अंक में देश भर के पचास लेखकों की रचनाएँ दृष्टिगोचर हुईं। राजेन्द्र साहिल के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘सृज्यमान’(मुल्लांपुर दाखा, लुधियाना) का जुलाई-दिसम्बर, 2009 अंक लघुकथा विशेषांक के रूप में आया।
पंजाब में हिन्दी लघुकथा लेखकों की संख्या सौ से भी अधिक होगी। लेकिन उनमें से अधिकतर ने बहुत कम लघुकथाएं लिखीं या कभी-कभार ही लिखीं। कुछ लेखक नियमत रूप से लिखते रहे हैं। इन रचनाकारों में डॉ. सुरेन्द्र मंथन, जसबीर चावला, कमलेश भारतीय, रमेश बत्तरा, सिमर सदोष, डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति, रमेश कुमार संतोष, धर्मपाल साहिल, श्याम सुन्दर अग्रवाल, प्रेम विज, सैली बलजीत, दर्शन मितवा, सुकीर्ति भटनागर, केसरा राम, जगदीश राय कुलरियाँ, बलविंदर बालम, डॉ. हरनेक सिंह कोमल के नाम लिए जा सकते हैं। इनमें से भी रमेश बत्तरा, कमलेश भारतीय व केसरा राम दूसरे प्रदेशों में जाकर बस गए। कुछ लेखक समय के साथ कहीं खो गए।
अहिन्दी भाषी राज्य से होने के बावजूद रमेश बत्तरा, कमलेश भारतीय, डॉ. सुरेन्द्र मंथन, डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति, जसबीर चावला, सिमर सदोष, धर्मपाल साहिल और श्याम सुन्दर अग्रवाल ने अखिल भारतीय स्तर पर प्रकाशित होने वाले अनेक महत्त्वपूर्ण लघुकथा संकलनों एवं पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांकों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है।
पंजाब में हिन्दी लघुकथा पर विचार-विमर्श के लिए कभी गोष्ठियों का आयोजन नहीं हुआ। हिन्दी लघुकथा को समर्पित कोई पत्रिका भी नहीं रही। संभवतः इसीलिए नये लेखकों का न सही मार्गदर्शन हो पाया तथा न ही उन्हें आवश्यक प्रोत्साहन मिल पाया।
पंजाब, पंजाबी भाषी राज्य है। बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में ही पंजाबी में लघुकथा लेखन प्रारंभ हुआ। प्रारंभ से ही बड़ी संख्या में लेखकों ने इसे खुले दिल से अपनाया। हिन्दी के बाद पंजाबी ही वह भाषा है, जिसमें सर्वाधिक लघुकथाएं लिखी गई हैं। गुणवत्ता की दृष्टि से भी पंजाबी लघुकथा के सराहा जाता है। पंजाबी में लघुकथा लेखन का कार्य निरंतरता बनाए हुए है।
लघुकथा को पंजाबी में ‘मिन्नी कहाणी’ के नाम से जाना जाता है। पंजाबी में प्रथम लघुकथा संकलन ‘तरकश’(संपादकः रोशन फूलवी व औम प्रकाश गासो) 1973 में प्रकाशित हुआ था। तब से अब तक पचास के लगभग लघुकथा संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। एकल लघुकथा संग्रहों की संख्या तो इससे कहीं अधिक है। इसी से पंजाबी में लघुकथा लेखकों की संख्या का अनुमान लगाया जा सकता है। अब तक पंजाबी से अनूदित लघुकथाओं के छः संकलन हिन्दी में प्रकाशित हो चुके हैं। ऐसा एक संकलन अंग्रेजी भाषा में भी प्रकाशित हुआ है।
पंजाबी लघुकथा के उन्नयन के लिए वर्ष 1988 में एक मंच का गठन हुआ। लघुकथा विधा को समर्पित त्रैमासिक पत्रिका ‘मिन्नी’ का प्रकाशन भी इसी वर्ष प्रारंभ हुआ। लघुकथा लेखक एक मंच पर एकत्र हुए तथा लघुकथा पर गंभीर विचार-विमर्श शुरू हुआ। पंजाबी लघुकथा की मजबूत नींव के लिए हमदर्दवीर नौशहरवी, जगदीश अरमानी, भूपिंदर सिंह पी.सी.एस., सुलक्खन मीत, शरन मक्कड़, अनवंत कौर, दर्शन मितवा व प्रीतम बराड़ लंडे आदि को सदैव याद किया जाएगा।
पंजाबी लघुकथा की नींव पर भवन निर्माण के कार्य में डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति, सुरिंदर कैले, हरभजन खेमकरनी, बिक्रमजीत नूर, निरंजन बोहा, गुरचरण चौहान व श्याम सुन्दर अग्रवाल ने महत्त्वपूर्ण रोल अदा किया। डॉ. बलदेव सिंह खहिरा, डॉ. कर्मजीत सिंह नडाला, डॉ. नायब सिंह मंडेर, प्रीत नीतपुर, दर्शन जोगा, जसबीर ढंड, सतिपाल खुल्लर, जगदीश राय कुलरियाँ, हरप्रीत सिंह राणा, जगरूप सिंह किवी, दर्शन सिंह बरेटा, सुधीर कुमार सुधीर, रणजीत आजाद काँझला, विवेक, एम.अनवार अंजुम, गुरदीप सिंह पुरी, मंगल कुलजिंद, रशीद अब्बास, भीम सिंह गरचा, जंग बहादर सिंह घुम्मण, सुखवंत सिंह मरवाहा डॉ. हरभजन सिंह आदि अनेक लेखक हैं जिन्होंने इस भवन को श्रेष्ठ बनाने के लिए अपने-अपने ढंग से प्रयास किए।
पंजाबी लघुकथा इस मुकाम पर कभी नहीं पहुँच पाती अगर प्रत्येक तीसरे माह आयोजित होने वाले कार्यक्रम ‘जुगनूआँ दे अंगसंग’ में डॉ. अनूप सिंह व डा. कुलदीप सिंह ‘दीप’ जैसे लघुकथा को समझने वाले आलोचकों का मार्ग दर्शन न मिला होता। इन आलोचकों ने लघुकथा पर अनेक लेख लिखे हैं। डॉ. अनूप सिंह की पंजाबी लघुकथा पर आलोचना की तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पंजाबी लघुकथा ने शुरू से ही हिन्दी लघुकथा-जगत से अपना संपर्क बनाए रखा। पत्रिका ‘मिन्नी’ की ओर से हर वर्ष ‘अन्तर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन’ का आयोजन किया जाता है। इन सम्मेलनों में कई प्रदेशों से हिन्दी लेखक सम्मिलित होते रहे हैं। ‘जुगनूआँ दे अंगसंग’ कार्यशालाओं के आयोजन से पंजाबी लघुकथा का रूप केवल सँवरा ही नहीं, उसमें एकरूपता भी आई है। सम्मेलनों में हिन्दी लेखकों के साथ आदान- प्रदान भी लाभप्रद रहा है।
पंजाबी लघुकथा का सफर जारी है और पूर्ण आशा है कि यह जारी रहेगा।
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