कुलरियाँ
:
सबसे
पहले अपने जन्म व परिवार के
बारे में बताएँ?
अग्रवाल
:
कुलरियाँ
जी,
मेरे
पूर्वजों का संबंध हरियाणा
राज्य के शहर रेवाड़ी के पास
स्थित गाँव खालेटा से है। मेरे
पुरखें का संबंध खेती–बाड़ी
से रहा है। उन्नीसवीं सदी के
उत्तरार्ध में जब उधर लगातार
कई साल तक अकाल पड़ा तो पुरखे
अपना पुश्तैनी गाँव छोड़ने
को विवश हो गए। उस समय कोटकपूरा
की दानामंडी को आबाद करने के
लिए फरीदकोट रियासत के राजा
ने लोगो को यहाँ आकर बसने के
लिए निमंत्रित किया,
तभी
मेरे पूर्वजों ने इधर का रुख
किया। गाँव में अभी भी हरियाणा
के नगर नारनौल में है। मेरा
जन्म 8
फरवरी
1950
को
कोटकपूरा (पंजाब)
में
हुआ। जब होश संभाला,
परिवार
में माता–पिता,
दादा–दादी
के अतिरिक्त हम पाँच भाई–बहन
थे। मुझसे छोटी एक बहन का जन्म
बाद में हुआ। माता–पिता
अनपढ़ थे । मुझसे बड़ी तीनों
बहनें भी। बड़ा भाई मिडिल से
आगे नहीं पढ़ पाया। हम सभी
भाई–बहनों
में से कोई भी कालेज पढ़ने के
लिए नहीं गया। पिता के गर्म
स्वभाव व माँ की व्यस्त दिनचर्या
के चलते प्यार की कमी सदा महसूस
की। भाई से भी कभी प्यार नहीं
मिला। प्यार की इस कमी को दूर
करने के लिए ही सदैव मित्रों
की तलाश रही।
कुलरियाँ
:
ऐसे
हालात में भी आपने अपनी शिक्षा
कैसे ग्रहण की और सम्मान योग्य
रोजगार तक पहुँचे?
अग्रवाल
:
जैसे
पहले बताया कि सभी बहन–भाइयों
में से कोई भी कालेज नहीं जा
सका। माता–पिता
का अनपढ़ होना व गरीबी इसके
मुख्य कारण रहे। मैंने राजकीय
हायर सेकेंडरी स्कूल,
कोटकपूरा
से वर्ष 1967
में
हायर सेकेंडरी की परीक्षा
पास की। सन् 1964
में
ही मेरे व मेरी माता जी के
अतिरिक्त सारा परिवार आन्ध्रप्रदेश
की राजधानी हैदराबाद जा बसा
था। मजबूरी में मुझे भी 1967–68
में
एक वर्ष तक हैदराबाद में रहना
पड़ा। वर्ष 1970
में
पंजाब विश्वविद्यालय से
प्रभाकर की परीक्षा पास की
और इसके आधार पर ही प्राइवेट
विद्यार्थी के रूप में 1973
में
स्नातक की डिग्री प्राप्त
की। दिसंबर 1972
में
शादी हो गई तथा 1973
में
पंजाब सरकार के लोक निर्माण
विभाग में क्लर्क की नौकरी
मिल गई। वर्ष 1974
में
बेटे अजय विश्वास का जन्म हुआ
और 1978
में
बेटी दीपशिखा का। पत्नी ललिता
बहुत पढ़ी–लिखी
नहीं है। बस देवनागरी में लिखी
हिन्दी पढ़ लेती है,
थोड़ी
बहुत। मैंने खुद पंजाबी पहली
भाषा के रूप में मिडिल तक ही
पढ़ी। अपने पंजाबी अध्यापक
की नाजायज मारपीट तथा अमीर व
गरीब विद्यार्थियों में भेदभाव
की नीति से परेशान हो मैंने
अपनी प्रथम भाषा हिन्दी रख
ली। छोटी उम्र में ही बहुत
परिश्रम करना पड़ा। केवल चौदह
वर्ष की उमर में ही पिता के
गलत निर्णय के विरुद्ध बगावत
कर दी। फिर जो रोजी–रोटी
और स्कूल फीस के लिए स्वयं ही
कमाना पड़ा। उस उम्र में ही
बच्चों को टयूशन पढ़ानी पड़ीं
। सत्रह वर्ष की उमर में हैदराबाद
में प्राइवेट नौकरी भी की।
कुछ वर्ष पेंटर के तौर पर भी
कार्य किया। मुझे तो सरकारी
नौकरी भी अधिक रास नहीं आई।
पच्चीस वर्ष की नौकरी के दौरान
कुछ बेहद अच्छे अधिकारी मिले
,तो
कुछ बेहद खराब भी मिले,
जिनके
अधीन काम करना कठिन रहा। अंतत:
1998 में
सरकारी नौकरी को भी अलविदा
कह दिया।
कुलरियाँ
:
गैर–पंजाबी
पृष्ठभूमि के बावजूद आपने
पंजाबी साहित्य को ही अपनी
भावनाओं की तर्ज़ुमानी के लिए
क्यों चुना?
अग्रवाल
:
कुलरियाँ
जी,
जिस
तरह के माहौल में मेरा बचपन
बीता,
उसमें
साहित्य के बारे में सोचा भी
नहीं जा सकता था। जहाँ तक याद
है कभी–कभार
इलाहाबाद से प्रकाशित होने
वाली पत्रिका ‘माया’
घर में नजर आती। पता नहीं इसे
बड़ा भाई खरीद कर लाता था या
उसका कोई मित्र। अवसर मिलता
तेा मैं भी उस पत्रिका को पढ़ने
का प्रयास करता,
यद्यपि
उसकी रचनाएँ मेरी समझ में नहीं
आती थीं। इस तरह ‘माया’
ने ही साहित्य से मेरी पहली
जान–पहचान
करवाई। थोड़ा बड़ा हुआ तो खुद
ही ‘माया’
खरीद कर पढ़ने लगा। बाद में
‘कादम्बनी’
मेरे आकर्षण का केन्द्र बनी।
फिर ‘हिन्द
पॉकेट बुक्स,
दिल्ली’
की ‘घरेलू
लाइब्रेरी योजना’
का सदस्य बन गया तो पुस्तकें
घर आने लगीं। उस दौर में मैंने
राजिन्द्र सिंह बेदी,
कृष्णचन्दर,
अमृता
प्रीतम व कई अन्य लेखकों के
उपन्यास पढ़े,
सब
हिन्दी में। एक लड़की के प्रति
टीन–एज
आकर्षण बढ़ा तो उसको लेकर ही
1967
से
1970
के
दौरान कुछ काव्य रचनाएँ लिखी,
हिन्दी
में। उस दौर में ही मेरी पहली
रचना दैनिक ‘पंजाब
केसरी’
में प्रकाशित हुईर्।
कुलरियाँ जी जब उस लड़की की
शादी हो गई तथा बाद में मेरी
भी तो लिखने का सिलसिला टूट
गया। पंजाब सरकार की नौकरी
मिली तो पंजाबी भाषा से वास्ता
पड़ा। मेरे अधिकतर सहकर्मी
सिख परिवारों से थे।
मार्कसवादी–विचारधारा
वाले कुछ साथियों ने मिलकर
एक सभा बनाई। सरकारी नौकरी
में आने से पहले ही मुझ पर
मार्क्सवाद का प्रभाव था। हम
पैसे एकत्र करके पुस्तकें
खरीदते तथा उन्हें बारी–बारी
से पढ़ते। इस तरह एक लाइब्रेरी
स्थापित हो गई। इस लाइब्रेरी
की अधिकतर पुस्तकें पंजाबी
भाषा की ही थीं। इस तरह पंजाबी
साहित्य से रिश्ता बना लाइब्रेरी
का इंचार्ज मैं ही था,
इसलिए
इन पुस्तकों को मैंने ही
सर्वाधिक पढ़ा। इससे मेरे
पंजाबी भाषा के ज्ञान में
वृद्धि हुई। जनवरी 1980
के
अंतिम सप्ताह में दैनिक
‘नवाँ–जमाना’
के संपादक की लेखकों–पाठकों
के नाम प्रकाशित एक अपील ने
ही मुझे पंजाबी में लिखने को
प्रेरित किया। उस अपील ने ही
मुझे लेखक बनाया। पाठकों को
अपने विचारों की अभिव्यक्ति
के लिए ‘नवाँ–जमाना’
को माध्यम बनाने की वह अपील
न छपी होती तो शायद मैं आज लेखक
नहीं होता। जैसे–जैसे
पंजाबी में मेरी रचनाएँ छपती
गईं,
मैं
पंजाबी साहित्य के उतना ही
करीब होता गया।
कुलरियाँ
:
लघुकथा
विधा को अपनाने के लिए विशेष
कारण कौन से रहे?
अग्रवाल
:
कुलरियाँ
जी,
जैसा
मैंने पहले कहा,
साहित्य
से मेरी जान–पहचान
पत्रिका ‘माया’
ने करवाई। पुस्तक रूप में
उपन्यास ही अधिक पढ़े। कहानियाँ
पत्रिकाओं में ही अधिक पढ़ीं।
लघुकथा से मेरी पहली मुलाकात
हिन्दी पत्रिका ‘नई
कहानी’
ने करवाई। अब ये तो याद नहीं
कि लघुकथाएँ उसमें किस कैटेगिरी
के तहत छपती थीं,
लेकिन
छोटी–छोटी
रचनाएँ मुझे अच्छी लगती थीं।
पंजाबी भाषा के दो समाचार–पत्रों
‘पंजाबी
ट्रिब्यून’
तथा ‘
नवाँ–जमाना’
में भी लघुकथाएँ पढ़ने को
मिलती थीं। मैं बचपन से ही
बहुत शर्मीला तथा मितभाषी
रहा हूँ । बहुत कम बोलता था।
थोड़े शब्दों में अधिक कहने
का अभ्यास हो गया था। लुकथा
भी बहुत कम बोलती है। इसलिए
यह मुझे अपने स्वभाव के अनुकूल
लगी। दूसराकारण यह रहा कि
मैंने साल 1980
में
लेखन की शुरूआत पंजाबी भाषा
में की। पंजाबी भाषा में मेरा
हाथ तंग ही था। इसलिए शुरूआत
में छोटी रचनाएँ लिखना सुविधाजनक
लगा। 29जनवरी
1980
को
मैंने पंजाबी में अपनी पहली
लघुकथा ‘नास्तिक’
शीर्षक से लिखी। यह रचना लिखने
के मात्र पाँच दिन बाद 3
फरवरी
(रविवारीय–अंक)
के
‘
नवाँ–जमाना’
में प्रकाशित हो गई। मेरी
रचनाओं पर प्रसिद्ध पंजाबी
आलोचक डॉ.
तेजवंत
मान की टिप्पणियों ने मेरा
साहस बढ़ाया। मुझे महसूस हुआ
कि लघुकथा विधा द्वारा मेरे
विचारों की सही अभिव्यक्ति
संभव है।
कुलरियाँ
:
कुछ
आलोचक लघुकथा को विधा मानने
के लिए तैयार ही नहीं हैं। आप
इस बारे में क्या कहना चाहेंगे?
अग्रवाल
:
किसी
के लघुकथा को विधा मानने अथवा
न मानने से क्या फर्क पड़ता
है। हर नई विधा अथवा वस्तु के
साथ ऐसा ही होता है। शुरू में
तो कविता ही आई। जिस ने सबसे
पहले गद्य–साहित्य
रचा होगा,
उसे
भी किसी ने मान्यता नहीं दी
होगी। कहानी का विरोध उपन्यासकारों
ने किया। फिर लघुकहानी
(शार्ट–स्टोरी)
से
भी वही कुछ हुआ। अब लघुकथा से
भी वही इतिहास दुहराया जा रहा
है। जो व्यक्ति आम तौर पर
रूढि़वादी मानसिकता का पोषक
होता है,वह
नई विचारधारा अथवा वस्तु को
आसानी से स्वीकार नहीं करता।
नये व महत्त्वपूर्ण आविष्कार
करने वाले वैज्ञानिकों को भी
तीखे विरोध का सामना करना
पड़ा। लोगों ने तो आसानी से
यह भी स्वीकार नहीं किया कि
पृथ्वी गोल है तथा यह सूर्य
के गिर्द घूमती है। महान
दार्शनिक सुकरात को तो जहर
भी पीना पड़ा। नई पीढ़ी व समय
के साथ कुछ न कुछ नया आता है।
देर–सवेर
लोग इसे मान्यता भी देते हैं।
चाय जो आज हमारी खुराक का
महत्त्वपूर्ण भाग बन गई है,
प्रारंभ
मे तो चाय कंपनियों के मुफ्त
पिलाने पर भी कोई इसे पीने को
तैयार नहीं होता था;
इसलिए
इस बात के प्रति अधिक चिंतित
होने की आवश्यकता नहीं है।
कुलरियाँ
:
क्या
आपने लघुकथा विधा के अतिरिक्त
किसी अन्य विधा में भी लिखा
है?
अग्रवाल
:
कुलरियाँ
जी,
लघुकथा
के अतिरिक्त मैंने मुख्य तौर
पर बाल साहित्य ही रचा है। कई
बाल कहानियाँ,
बाल
कविताएँ लिखी हैं। मेरा बाल
साहित्य हिन्दी–पंजाबी
दोनों भाषाओं में छपा है।
हिन्दी में बाल कहानियों की
एक पुस्तक ‘एक
लोटा पानी’
प्रकाशित हुई है। कुछ रचनाएँ
पाठय–पुस्तकों
में भी रही हैं। इसके अतिरिक्त
कुछ कहानियाँ,
कविताएँ
व व्यंग्य भी लिखे हैं। कुछ
आलेख भी हैं। ये रचनाएँ
हिन्दी–पंजाबी
दोनों भाषाओं में छपी हैं।
कुलरियाँ
:
आप
हिन्दी लघुकथा की ओर कैसे
प्रेरित हुए?
अग्रवाल
:
कुलरियाँ
जी,
सरकारी
सेवा के दौरान मैं 1975
से
1981
तक
पंजाब के भोगा शहर में रहा।
वहीं पर मैंने अपनी पहली रचनाएँ
लिखीं। तब वहाँ से मुक्तसर
तबादला हो गया। रिहायश मोगा
से बदल कर कोटकपूरा हो गई।
यहीं पर 1982
में
पंजाबी कथाकार राजिंदर बिमल
से भेंट हुई। उसने मुझे नई
दिल्ली से प्रकाशित होने वाली
प्रसिद्ध हिन्दी पत्रिका
‘सारिका’
के दर्शन करवाए। उस वक्त मैं
साहित्य के क्षेत्र में नया
ही था तथा किसी लेखक से मेरा
परिचय नहीं था। बिमल को मेरी
लघुकथाएँ अच्छी लगीं। उसने
मुझे अपनी रचनाएँ ‘सारिका’
को भेजने के लिए प्रेरित किया।
मैंने भी साहस जुटाया और
‘सारिका’
को अपनी एक लघुकथा प्रकाशनार्थ
प्रेषित कर दी। इस तरह हिन्दी
में मेरी प्रथम लघुकथा ‘सारिका’
के जून–1982
के
द्वितीय अंक में प्रकाशित
हुई। उन दिनों ‘सारिका’
एक पाक्षिक पत्रिका थी। इस
पत्रिका में छपना लेखक के लिए
सम्मान वाली बात थी। ‘सारिका’
में मेरी कई रचनाएँ छपीं तथा
बाद में कमलेश्वर के संपादन
में छपने वाली पत्रिका ‘गंगा’
में भी। वैसे भी पंजाबी से
हिन्दी में लिखना मेरे लिए
सुविधाजनक था।
कुलरियाँ
:
आपकी
रचनाएँ किन–किन
भाषाओं
में अनुवाद हुई हैं?
अग्रवाल
:
कुलरियाँ
जी,
सबसे
पहले मेरी रचनाओं का अनुवाद
गुजराती भाषा में हुआ। फिर
बंगला,अंग्रेजी,उर्दू
तथा निमाड़ी में भी लघुकथाओं
का अनुवाद हुआ। रचनाओं के
हिन्दी या अंग्रेजी में छपने
के पश्चात् पता ही नहीं चलता
कि आपकी रचनाएँ किन–किन
भाषाओं में अनुवाद होकर कब
और कहाँ प्रकाशित हुईं। रचना
अनुवाद होकर छप जाती है और मूल
लेखक को पता ही नहीं चलता। यह
सिलसिला भाषा दर भाषा चलता
रहता है। पाकिस्तान में पहले
मेरी लघुकथाएँ पंजाबी भाषा
तथा शाहमुखी लिपि में एक लघुकथा
संग्रह ‘लाहिन्दे–चढ़दे
पंजाब दीआँ मिन्नी कहाणीआँ’
में प्रकाशित हुई,
तो
एक मित्र से ही पता चला। इस
लघुकथा संग्रह का संपादन
पाकिस्तानी लेखक अशरफ सुहेल
ने किया। बाद में एक अन्य मित्र
से ही सूचना मिली कि लाहौर से
प्रकाशित होने वाली उर्दू की
साहित्यिक पत्रिका ‘स्पुतनिक’
के मार्च–2006
केअंकमें
मेरी आठ लघुकथाएँ अनुवाद होकर
छपी हैं। कुछ अनुवादकों ने
मेरी रचनाएँ हिन्दी से पंजाबी
तथा पंजाबी से हिन्दी भाषा
में अनुवाद कर प्रकाशित करवाई
हैं।
कुलरियाँ
:
आपकी
अब तक कितनी मौलिक तथा संपादित
पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं?
अ्रग्रवाल
:
कुलरियाँ
जी,
लघुकथा
की मौलिक पुस्तकें तो दी ही
हैं?
‘नंगे
लोकाँ दा फिक्र’
(1989)
तथा
‘मारूथल
दे वासी’
(2004)
ये
दोनों लघुकथा संग्रह पंजाबी
में हैं। पंजाबी में संयुक्त
रूप से संपादित लघुकथा संग्रहों
की संख्या 27
है।
पंजाबी लघुकथाओं के तीन संग्रह
हिन्दी में भी संपादित किए
हैं। हिन्दी लेखकों सुकेश
साहनी,
डॉ
सतीश दुबे व डॉ.
कमल
चोपड़ा की लघुकथाओं का हिन्दी
से पंजाबी भाषा में अनुवाद
किया है। ये अनूदित रचनाएँ
पंजाबी में चार लघुकथा संग्रहों
‘डरे
होए लोक’
‘ठंडी
रजाई’
(सुकेश
साहनी),
‘‘आखिरी
सच्च’
(डॉ
सतीश दुबे)
तथा
‘सिर्फ़
इनसान’
(कमल
चोपड़ा)
में
प्रकाशित हुई हैं। एक बालकथा
संग्रह ‘एक
लोटा पानी’
भी प्रकाशित हुआ है। नवसाक्षरों
के लिए भी लोककथाओं पर आधारित
रचनाओं की दो पुस्तकें पंजाबी
भाषा में हैं।
कुलरियाँ
:
अग्रवाल
जी,
आपके
विचार में हिन्दी लघुकथा तथा
पंजाबी मिन्नी कहाणी (लघुकथा)
में
मुख्य रूप से अंतर है?
अग्रवाल
:
हिन्दी
लघुकथा पंजाबी मिन्नी कहाणी
से उम्र में बड़ी है। हिन्दी
लधुकथा को पंजाबी मिन्नी कहाणी
की बड़ी बहन भी कहा जाता है।
वेसे दोनों बहनें हमशक्ल हैं।
नाम के अतिरिक्त दोनों में
कोई अंतर नजर नहीं आता। हिन्दी
लेखक लघुकथा को लघुकहानी कहने
को तैयार नहीं। वे लघुकथा को
लघुकहानी से अलग मानते हैं।
मिन्नी कहाणी से कहाणी शब्द
अलग नहीं किया जा सका। रूप,
आकार
व गुणों के पक्ष से ‘लघुकथा
कोश’
जैसे संग्रहों में प्रकाशित
हुई हैं। मेरे बारे में तो कहा
जा सकता है कि मैं हिन्दी–पंजाबी
दोनों भाषाओं में लिखता हूँ।
अनेक नए
पंजाबी
लेखकों की मिन्नी कहाणियाँ
हिन्दी में लघुकथाओं के रूप
में छपी हैं। अत:
दोनों
में कोई अंतर नहीं है।
कुलरियाँ
:
क्या
आप वर्तमान में लिखी जा रही
पंजाबी लघुकथा के स्तर से
संतुष्ट हैं।
अग्रवाल
:
पंजाबी
साहित्य की इस विधा की उम्र्र
अभी मात्र चालीस वर्ष ही है।
इतनी कम उम्र में इसने जितना
सफर तय कर लिया है,
उसे
देखकर तो वर्तमान पंजाबी
लघुकथा से असंतुष्ट होने का
कोई कारण दिखाई नहीं देता।
कूड़ा–कबाड़
तो हर विधा में बहुतायत में
पाया जाता है। देखने वाली बात
यह है कि स्तरीय लेखन कितना
हो रहा है। नये संग्रह (मौलिक
व संपादित)
प्रकाशित
हो रहे हैं। पंजाबी लघुकथाओं
के हिन्दी में अब तक छह संग्रह
प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें
ऐ एक–एक
संग्रह डॉ.
अशोक
भाटिया (हरियाणा),
सुभाष
नीरव (दिल्ली)
व
भगीरथ (राजस्थान)
ने
संपादित किया है। आज शायद ही
किसी हिन्दी पत्रिका का लघुकथा
विशेषांक नजर आए उसमें पंजाबी
लघुकथाएँ शामिल न हों। पंजाबी
में एक ही विषय को लेकर लघुकथा
संग्रह संपादित हुए हैं। ये
संग्रह इस बात के गवाह हैं कि
पंजाबी लघुकथा संख्या व स्तर
दोनों पक्षों से समय की माँग
को पूरा कर रही है। और फिर
लघुकथा विधा को समर्पित पंजाबी
पत्रिका ‘मिन्नी’
का वर्ष 1988
से
नियमित रूप से प्रकाशन हो रहा
है। पंजाबी में लघुकथा विधा
पर केंद्रित और भी पत्रिकाएँ
निकलती रही हैं।
कुलरियाँ
:
आपने
पत्रिका ‘मिन्नी’
की बात की,
आप
इस पत्रिका से कैसे जुड़े?
अग्रवाल
:
बात
1987
की
है,
डॉ.
श्याम
सुन्दर दीप्ति से पहली बार
पत्र–व्यवहार
हुआ। उस वक्त वे सरकारी मैडीकल
कालेज पटियाला में थे। वे दो
साहित्यक पत्रिकाएँ ‘होंद’
(पंजाबी)
तथा
‘अस्तित्व’
(हिन्दी)
का
संपादन कर रहे थे। उन्होंने
मेरी कुछ लघुकथाएँ इन पत्रिकाओं
में प्रकाशित कीं। डॉ.
दीप्ति
पंजाबी में लघुकथाओं की एक
फोल्डर पत्रिका निकालना चाहते
थे। उन दिनों ‘ललकार’
नाम से एक फोल्डर पत्रिका पटना
से प्रकाशित होती थी;
लेकिन
मैं पत्रिका निकालने के लिए
सहमत नहीं था। मेरा पत्रिका
‘मंथन’
के संपादन से जुड़ने का तजुर्बा
बहुत खुशगवार नहीं रहा था।
फिर 1988
में
डॉ0
दीप्ति
अमृतसर के मैडीकल कालेज में
आ गए। हमारी पहली मुलाकात
जुलाई 1988
में
रामपुरा फूल में लघुकथा लेखकों
की एक सभा में हुई। वहीं ‘मिन्नी
कहाणी लेखक मंच,
पंजाब’
की स्थापना हुई। अक्टूबर 1988
में
‘मंच’
की ओर से पहला सम्मेलन करने
वे इस अवसर पर स्व.
रोशन
फूलवी द्वारा संपादित पत्रिका
‘सतिसागर’
का लघुकथा विशेषांक प्रकाशित
करने का निर्णय हुआ। ‘सतिसागर’
के उस अंक के लिए रचनाएं एकत्र
करने व चुनने का कार्य मुझे
सौंपा गया। परंतु एकत्र रचनाओं
को छापने के मामले में ‘सतिसागर’
से सहमति नहीं बन पाई। इस असहमति
ने ही अकस्मात् पत्रिका ‘मिन्नी’
को जन्म दिया। जिन रचनाओं को
‘सतिसागर
ने छापने से मना कर दिया था,
वे
ही ‘मिन्नी’
के प्रवेशांक की शोभा बनीं।
इस तरह डॉ.
दीप्ति
व मेरे संयुक्त संपादन में
पत्रिका ‘मिन्नी’
का पहला अंक प्रकाशित हुआ।
‘मंच’
के पहले ही सम्मेलन में ‘मिन्नी’
के इस अंक का लोकार्पण हुआ।
पाठकों ने पत्रिका के इस अंक
को बहुत पसंद किया। तब से ही
‘मिन्नी’
का प्रकाशन जारी है।
कुलरियाँ
:
आपको
पंजाबी पत्र–पत्रिकाओं
का लघुकथा के प्रति व्यवहार
कैसा लगता है?
अग्रवाल
:
कुलरियाँ
जी,
पंजाबी
के लगभग सभी समाचार–पत्र
अपने साहित्यक पृष्ठों पर
लघुकथा को योग्य स्थान दे रहे
हैं। अब लघुकथाओं को ‘फिलर’
के रूप में नहीं छापा जा रहा,
जैसे
बीस–पच्चीस
साल पहले छापा जाता था। अब
उनके लिए स्थान बाकायदा तय
होता है। बहुत सी पत्रिकाएँ
भी लघुकथा को स्थान देती हैं।
बाकी तो प्रत्येक संपादक अपनी
सोच के अनुसार ही पत्रिका को
चलाता है। ऐसी पत्रिकाएँ भी
हैं जो कविताएँ प्रकाशित नहीं
करती। कुछ में केवल कविताएँ
ही प्रकाशित होती हैं। केवल
लघुकथाएँ प्रकाशित करने वाली
पत्रिकाएँ भी है। कुल मिलाकर
पंजाबी पत्र–पत्रिकाओं
का लघुकथा के प्रति व्यवहार
संतोषजनक है।
कुलरियाँ
:
पंजाबी
लघुकथा का रूप–विधान
अभी तक तैयार क्यों नहीं हो
पाया?
अग्रवाल
:
किसी
भी विधा का सर्व–स्वीकार्य
रूप–विधान
तैयार करना आसान काम नहीं है।
यह विश्वविद्यालय स्तर का
मसला है। लघुकथा तो नई विधा
है,
मेरे
विचार में तो अभी तक कहानी का
भी कोई तय वैधानिक ढाँचा नहीं
है। फिर भी मेरे विचार में
पंजाबी लघुकथा को गंभीरता से
ले रहे लेखकों व आलोचकों ने
मिल कर इसका रूप–विधान
तय कर लिया है। डॉ.
अनूप
सिंह की दो पुस्तकें ‘मिन्नी
कहाणी:
विकास
पड़ाअ’
तथा ‘मिन्नी
कहाण:
सीमा
ते संभावनावाँ’
इसकी सा़क्षी हैं। पंजाबी के
लगभग सभी लघुकथा लेखक इस
रूप–विधान
को ध्यान में रख कर ही लेखन कर
रहे हैं। अगर आलोचकों,
लेखकों
के मस्तिष्क में रूप–विधान
का कोई ढाँचा नहीं होता तो
पत्रिका ‘मिन्नी’
की ओर से आयोजित होने वाले
तिमाही कार्यक्रम ‘जुगनुआँ
दे अंगसंग’
में लघुकथाओं पर इतनी गंभीर
व सार्थक बहस नहीं हो पाती।
पंजाबी आलोचकों को मुंशी
प्रेमचन्द,
खलील
जिब्रान,
सआदत
हस मंटो की लघुरचनाओं को लधुकथा
की कसौटी पर परखने के लिए नहीं
कहा जाता। न ही हरिशंकर परसाई
की लघुव्यंग्य रचनाओं में
लघुकथा के तत्त्व खोजने का
प्रयास किया जाता।
कुलरियाँ
:
आपके
विचार में पंजाबी लघुकथा का
भविष्य कैसा है?
अग्रवाल
:
लघुकथा
एक समर्थ व सार्थक विधा है।
इसका भविष्य निश्चित रूप से
उज्ज्वल है। आज तो ऐसा कोई
कारण नजर नहीं आता जिससे पंजाबी
लघुकथा का भविष्य धूमिल नजर
आता हो। पच्चीस वर्ष पहले
हमदर्दवीर नौशहरवीं,
डा.
अमर
कोमल,
जगदीश
अरमानी,
भूपिंदर
सिंह पी.सी.एस.
आदि
ने कभी नहीं सोचा होगा कि पंजाबी
लघुकथा मौजूदा स्थिति तक
पहुँचेगी। भविष्य में और भी
नए लेखक व आलोचक इस विधा के
महव को समझेंगे तथा इसे नई
बुलंदियों तक लेकर जाएँगे।
कुलरियाँ
:
लघुकथा
व अन्य विधाओं में क्या अंतर
है?
अग्रवाल
:
कुलरियाँ
जी,
इस
प्रश्न का उार थोड़े शब्दों
में दे पाना संभव नहीं है।
प्रत्येक साहित्यक विधा अथवा
कला समय व सामाजिक परिस्थितियों
की देन होती है। प्रत्येक
साहित्यक विधा का अपना रूप
है व एक सीमा भी। समय की आवश्यकताओं
ने उपन्यास से कहानी को जन्म
दिया। कहानी जब समय की जरूरतों
के अनुरूप नहीं रही तो लघुकहानी
या जिसे हम पंजाबी में ‘निक्की
हुनरी कहानी’
(short
story )भी
कहते हैं,
का
जन्म हुआ। भारत की स्वतंत्रता
के बाद के हालातों,
व
भाग–दौड़
भरी जिंदगी के कारण ही लघुकथा
अस्तित्व में आई। बाकी तो हर
विधा का अपना रूप–विधान
है। किसी विषय या कथानक के लिए
कोई एक विधा ही उपयुक्त हो
सकती है। लघुआकारीय रचना होने
के कारण लघुकथा किसी एक क्षण
का वृतान्त होती है। कहानी
एक विषय व खास समय की बात करती
है। उपन्यास विशेष काल–खंड
के अनेक प़क्षों को उजागर करता
है। सभी विधाओं का अपना महव
है। हाँ,
कहानी
के संक्षिप्त रूप को लघुकथा
नहीं कहा जा सकता। लघुकथा की
गति कहानी के मुकाबले कहीं
तेज होती है।
कुलरियाँ
:
क्या
यह बात ठीक है कि लघुकथा के
पाठक वर्ग का दायरा बढ़ता जा
रहा है?
अग्रवाल
:
पंजाबी–भाषी
लोग साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने
में अधिक रुचि नहीं रखते।
बार–बार
विदेशी हमलावरों के आक्रमण
का सामना करने व लड़ाइयाँ
लड़ने वाली कौम में साहित्यक
रुचि कम ही है। साहित्यिक
पुस्तकों की प्रकाशन संख्या
कुछ सौ तक ही सिमट कर रह गई है।
पंजाबी पत्रिकाओं की सकुर्लेशन
भी चार–पाँच
सौ से लेकर कुछ हजार तक ही रहता
है। लेकिन पंजाबी अखबार लाखों
में लघुकथाएँ छपती हैं। आम
पाठक की पहुँच तो अखबारों तक
ही है। लघुकथा के लघुआकारीय
रचना होने के कारण पाठक इसे
एक ही बार में पढ़ लेता है।
बहुत से पाठकों के लिए समय की
कमी के कारण कहानी को एक ही
बैठक में पढ़ पाना संभव नहीं
हो पाता। उपन्यास तो अखबार
में धारावाहिक–रूप
में छपता है,
जिसे
बहुत कम पाठक ही मुकम्मल पढ़
पाते हैं। जो रचना एक ही बार
में मुकम्मल पढ़ ली जाए उसका
आनंद ही अलग होता है। इसलिए
साहित्यक–भूख
की तृप्ति के लिए लघुकथा ही
आम पाठक को अधिक उपयुक्त लगती
है। इसलिए यह बात ठीक है कि
लघुकथा का पाठक वर्ग दिन–ब–दिन
बढ़ता ही जा रहा है।
कुलरियाँ
:
अग्रवाल
जी,
लघुकथा
के बारे में कोई और विशेष बात?
अग्रवाल
:
कुछ
लघुकथा लेखक निराश हुए हैं।
कुछ लोग लघुकथा को आसान विधा
समझ कर रचनाएँ लिखने लगे तो
कुछेक ने इसे लेखक बनने का
शॉर्टकट समझ लिया। उनकी लघुकथा
विधा प्रति ऐसी धारणा ठीक नहीं
है। लघुकथा लिखना आसान कार्य
नहीं है। पर निराश होने वाली
भी कोई बात नही है जरूरत है,
विधा
प्रति गंभीर होने की,
इसे
ठीक से समझ कर परिश्रम करने
की व लेखन में निरंतरता बनाए
रखने की। जिन लेखकों ने लघुकथा
लेखन में निरंतरता कायम रखी
है,
दूसरों
से सीखने का प्रयास किया है,
विशष
रूप से ‘जुगनआँदे
अंगसंग’
कार्यक्रम में भाग लेकर,
वे
आज श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिख रहे
हैं। रचना छोटी हो या बड़ी,
उससे
केाई फर्क नहीं पड़ता। बस रचना
में जीवन का सत्य छिपा हो तथा
वह लोगों के हृदय को स्पर्श
करती हो। खलील जिब्रान,
सआदत
हसन मंटो व प्रेमचंद की लघुकथाएँ
लंबा अरसा बीत जाने के बाद भी
बार–बार
पढ़ी जा रही हैं तथा उनका अन्य
भाषाओं में अनुवाद हो रहा है।
कुलरियाँ
:
अ्रग्रवाल
जी आपको मिले मान–सम्मान
के बारे में भी बताइए?
अग्रवाल
:
कुलरियाँ
जी,
कभी
भी मान–सम्मान
की इच्छा नहीं रही। काम ही
अधिक संतुष्टि देता है मुझे।
मन में इच्छा रहती है कि लघुकथा
के क्षेत्र में जिन लोगों ने
महत्त्वपूर्ण कार्य किया है
उन्हें किसी न किसी रूप में
सम्मानित कर और काम करने के
लिए प्रोत्साहित किया जाए।
इसलिए ही हिन्दी लघुकथा लेखकों
को ‘माता
शरबती देती समृति सम्मान’
तथा ‘लघुकथा
किरण सम्मान’
से सम्मानित किया। अब पंजाबी
लघुकथा के क्षेत्र में
महत्त्वपूर्ण कार्य करने
वाले लेखकों के लिए ‘किरण
अग्रवाल समृति सम्मान’
की शुरूआत की है। हाँ,
मुझे
भी पंजाब की कुछ साहित्यिक
संस्थाओं ने सम्मानित किया
है,
इनमें
‘
पंजाबी साहित्य सभा,
तलवंडी
भाई’।
‘केंदरी
मिन्नी कहाणी लेखक मंच,
पटियाला’
की ओर से ‘श्रीमती
मान कौर यादगारी पुरस्कार’
दिया गया। हरियाणा प्रादेशिक
हिन्दी साहित्य सम्मेलन,
सिरसा
की ओर से 2012
में
‘श्री
बलदेव कौशिक स्मृति सम्मान’
से सम्मानित किया गया। दिसम्बर,
2005 में
मुझे पटना में ‘डॉ.
परमेश्वर
गोयल सम्मान’
दिया जाना था,
लेकिन
मैं वहाँ जा नहीं पाया। मेरी
कई हिन्दी–पंजाबी
लघुकथाएँ पंजाब में व पंजाब
से बाहर पुरस्कार प्राप्त कर
चुकी हैं।
-0-
|