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भारतेन्दु काल से लेकर पाँचवें दशक तक किसी महिला ने लघुकथाएँ लिखीं या
नहीं–कहना कठिन है। किन्तु पाँचवें दशक में इलाहाबाद की शांति मेहरोत्रा
ने इस दिशा में अवश्य पहल की है। इनकी कुछ लघुकथाएँ उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ के
संपादन में प्रकाशित पत्रिका ‘निकष’ में देखी जा सकती है। और फिर सातवें
दशक से लघुकथा के विकास के दौर में भी महिलाएँ चुप नहीं बैठीं और उन्होंने
भी इस विधा हेतु पूरी निष्ठा एवं श्रम से कार्य किया, जिसकी चर्चा लघुकथा
इतिहास में अनिवार्य होगी। निबन्ध की सीमा और समय को देखते हुए यहाँ हम
कतिपय उन महिलाओं की चर्चा करेंगे जिनसे लघुकथा की परम्परा समृद्ध हुई। इस
क्रम में सर्वप्रथम अंजना अनिल का नाम आता है, जो मोदीनगर की निवासी हैं।
सम्प्रति अलवर में रहकर इस विधा हेतु निर्बाध रूप से कार्य कर रही हैं।
अंजना अनिल की लगभग 150 लघुकथाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी लघुकथाएँ आम
आदमी के जीवन से सीधा साक्षात्कार करती हैं। श्री महेन्द्र सिंह महलान के
अनुसार ‘‘इनकी लघुकथाओं में नारी की नियति एवं स्थिति की सूक्ष्म पकड़,
भूख व भ्रष्टाचार का विकराल रूप देखने को मिलता है। संवेदना के स्तर पर डॉ
शकुन्तला ‘किरण’ तथा विभा रश्मि की भाँति इनकी रचनाएँ लघुकथा–लेखन की
ऊँचाइयों का स्पर्श करती हुई अपनी अलग पहचान बनाती हैं। अंजना ने युवा
रचनाकार समिति के अन्तर्गत प्रतियोगिताओं तथा संग्रहों के द्वारा
महत्वपूर्ण कार्य किये हैं।’’ (राजस्थान का लघुकथा–संसार, पृ 31)
अंजना अनिल की तरह ही डॉ शकुन्तला ‘किरण’ ने भी हिन्दी–लघुकथा को अनेक
स्तरों एवं माध्यमों से समृद्ध एवं गौरवान्वित किया है। भारत में
लघुकथा पर सर्वप्रथम शोधकार्य डॉ शकुन्तला ने किया। इनका विषय ‘कथा–लेखन
का एक और पिरामिड’ था। इसमें इन्होंने लघुकथा के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर
कार्य किया था, जिसने बाद में शोधकार्य करने वालों को न मात्र उत्प्रेरित
किया, अपितु उन्हें इस विषय को और आगे बढ़ाने हेतु एक ठोस आधार भी प्रदान
किया। ‘धुँधला दर्पण’, ‘कोहरा’, ‘मौखिक परीक्षा’, ‘शॉप इंस्पेक्टर’,
‘कैरियर’, ‘हार’, ‘चेकिंग’ इत्यादि इनकी दर्जनों रचनाएँ आज भी पाठक
विस्मृत नहीं कर पाए हैं। लघुकथा के कई चर्चित संकलनों में इनकी लघुकथाएँ
संकलित हैं। डॉ शकुन्तला ‘किरण’ के बाद दूसरा शोध–कार्य डॉ शमीम शर्मा ने
किया, जो आजकल हिसार के एक कॉलेज की प्राचार्या हैं। डॉ शमीम शर्मा ने
वस्तुत: शकुन्तला ‘किरण’ के कार्य को ही आगे बढ़ाया। वस्तुत: इनके
सम्पादकत्व में ‘कुरुशंख’ पत्रिका का लघुकथांक तथा ‘हस्ताक्षर’
लघुकथा–संकलन जो 1981 ई में प्रकाशित होकर ख्याति अर्जित कर चुका है। इनकी
लघुकथाओं का एकल संग्रह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ।फिर भी, इनकी लघुकथाएँ
महिलाओं को प्रगतिशील दिशा देने में सफल रही हैं। इनके बाद जिन महिलाओं ने
लघुकथा में शोध्कार्य करके उसके विकास में अपना उल्लेखनीय योगदान दिया,
उनमें सागर की डॉ मंजु पाठक, बोकारो की डॉ आशा पुष्प, डॉ अंजलि शर्मा,
विभा खरे इत्यादि के नाम प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त आगरा की मनोरमा शर्मा,
उज्जैन की भारती इत्यादि अनेक
महिलाओं के साथ ही जर्मन की इरा शर्मा पर(लंदन के विश्वविद्यालय से
अंग्रेजी माध्यम से) ने भी हिन्दी–लघुकथा पर अपना शोध–कार्य पूरा कर लिया
है। इरा शर्मा जो अब डॉ इरा वले रिया शर्मा नाम ने भी पहचानी जाती है ।
हिन्दी–लघुकथा के विकास में जिन महिलाओं ने अनेक माध्यमों से इस विधा के
विकास में अपनी अहम् भूमिका का निर्वाह किया, उनमें भोपाल की मालती महावर,
अब मालती वसन्त भी महत्त्वपूर्ण हैं। इनकी साठ लघुकथाओं का संग्रह ‘अतीत
का प्रश्न’ 1991 ई में प्रकाशित हुआ। डॉ सतीश दुबे के अनुसार–‘‘लघुकथा
आन्दोलन के इतिहास में 22–23 नवम्बर, 1980 ई को एक यादगार ‘लघुकथा
सम्मेलन’ होशंगाबाद में आयोजित हुआ। मय प्रदेश के इस सम्मेलन में अनेक
महत्त्वपूर्ण लघुकथा विद्वानों के अतिरिक्त मालती महावर ने भी हिस्सा
लिया। मालती ने प्राय: तीन प्रकार की लघुकथाएँ लिखी हैं जिनमें पहला
छायावादी, दूसरा यथार्थवादी और तीसरा मानवतावादी। इनकी यथार्थवादी
लघुकथाओं को अपेक्षाकृत अधिक सफलता प्राप्त हुई। इनकी चर्चित
लघुकथाओं में ‘भूख का एहसास’, ‘मध्यस्थ’, ‘समय’, ‘फूल और भंवर’, ‘गांधारी
से एक कदम आगे’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
बोकारो इस्पात नगर (झारखण्ड) की डॉ आशा पुष्प की लघुकथाओं का संग्रह
‘झलझला’ अपना अलग महत्त्व रखता है। इनकी लघुकथाएँ सोते हुए पाठक को उसकी
आँखों में उँगली डालकर जगा देने की क्षमता रखती हैं, इन्होंने भी अनेक
महत्त्वपूर्ण लघुकथा–गोष्ठियों, संगोष्ठियों और सम्मेलनों में उपस्थित
होकर इस विधा को लाभान्वित किया है। लघुकथा–विकास हेतु किये गए कार्यों
हेतु ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच’ ने इन्हें ‘मंच सम्मान’ से
सम्मानित भी किया है।
मेरठ की चर्चित गीतकार स्व डॉ शैल रस्तोगी ने भी शताधिक लघुकथाएँ लिखीं,
जो प्राय: सभी महत्वपूर्ण पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर पाठकों से
सीधा सम्बन्ध स्थापित कर चुकी हैं। उनकी छप्पन लघुकथाओं का संग्रह ‘यह भी
सच है’ है कि अतिरिक्त उनकी 75 लघुकथाओं का दूसरा संग्रह उनके निधन के बाद
चर्चित कथाकारआलोचक डॉ सतीशराज पुष्करणा के संपादन में ‘ऐसा भी है’ प्रकाश
में आकर ख्याति अर्जित कर चुका है। प्रकाशित हुआ है। ‘मनहूस’, ‘एक गुमनाम
मौत’, ‘नई रोशनी’, ‘जीवन का नक्शा’ इत्यादि इनकी श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं;
जिनकी चर्चा ‘यह भी सच है’ नामक पुस्तक की भूमिका लेखक डॉ सतीशराज
पुष्करणा ने की है। शैल जी की छब्बीस अन्य लघुकथाएँ डॉ पुष्करणा के संपादन
में प्रकाशित संकलन ‘आठ कोस की यात्रा’ में भी संकलित हैं।
लघुकथा को विकास देने में कलकत्ता की माला वर्मा का भी महत्त्वपूर्ण
योगदान रहा है। इनकी लघुकथाएँ ‘हंस’, ‘जनसत्ता’, ‘कथाबिम्ब’, ‘मधुमती’,
‘पंजाब सौरभ’, ‘हरिगंधा’, ‘माधुरी’, ‘परिधि से बाहर’ इत्यादि
पत्र–पत्रिकाओं के अतिरिक्त अनेक चर्चित संकलनों में प्रकाशित हैं। इनके
लेखन का विषय मुख्यत: जीवनानुभव है। इनकी भाषा सहज, सरल और स्वाभाविक है।
इनकी लघुकथाओं में ‘साक्षात्कार’, ‘विडम्बना’, ‘रैन बसेरा’, ‘आदमी और
कुत्ता’, ‘पहचान–पत्र’ इत्यादि को श्रेष्ठ लघुकथाओं में गिना जा सकता है।
इनकी साठ लघुकथाओं का संग्रह ‘परिवर्तन’ अक्टूबर, 2000 ई में प्रकाशित
हुआ। महेन्द्र सिंह महलान के अनुसार वर्ष 1983 ई प्रकाशित ‘अनमोल सीपियाँ’
कृष्णा भटनागर का लघुकथा–संग्रह
है, जो महिला लघुकथा–लेखिकाओं में राजस्थान का ही नहीं, संभवत: देश का
पहला एकल लघुकथा–संग्रह है। संग्रह की अधिकतर लघुकथाएँ उपदेशात्मक
हैं।(राजस्थान का लघुकथा संसार, पृ 26)इनकी लघुकथाएँ भी आठवें–नौवें दशक
में पाठकों की प्रिय रही हैं। राजस्थान की धरती से ही आठवें–नवें दशक की
चर्चित कथाकार पुष्पलता कश्यप की बासठ लघुकथाओं का संग्रह ‘अहसासों के
बीच’ प्रकाश में आया। इनकी लघुकथाएँ प्राय: जीवन मूल्यों के रक्षार्थ खड़ी
दिखायी देती है। इनकी लघुकथाओं के पात्र जुझारू हैं, जो हथियार डालने की
अपेक्षा संघर्ष करने में विश्वास करते हैं। महेन्द्र सिंह महलान के
अनुसार–‘अहसासों के बीच से गुजरती हुई पुष्पलता कश्यप जीवन की विकृत एवं
विडम्बनात्मक स्थितियों को जोरदार ढंग से प्रकट करती हैं। आपकी लघुकथाओं
में आदर्शों के सतरंगी सपने नहीं, यथार्थ की टकराहट और सीधी–सीधी चोट है।
‘बहू–बेटी’, ‘पटाक्षेप’, ‘बदला’, ‘चौराहे पर’, ‘यथार्थ की टकराहट’, ‘अक्ल
का दुश्मन’, ‘चट्टान’, ‘सुअर संस्कृति’ इत्यादि रचनाओं का अवलोकन करने पर
हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। राजस्थान की धरती से अन्य जिन महिलाओं ने
अपनी रचनाओं से लघुकथा–जगत् को समृद्ध किया है, उनमें पुष्पा रघु, उर्मिला
नागर, रेणु माथुर, अर्चना अर्ची, अपर्णा चतुर्वेदी, ‘प्रीता’, नील प्रभा
भारद्वाज, नीलम सैनी, उषा शर्मा, उषा महेश्वरी के अतिरिक्त डॉ स्नेह
इन्द्र गोयल भी एक प्रमुख नाम है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। 1985 ई
में उनका तन्वंगी लघुकथा–संग्रह ‘वकील साहेब’ प्रकाश में आया तो 1989 ई
में इन्हीं के सम्पादकत्व में श्रीगंगानगर से ‘दर्पण’ लघुकथा–संकलन
प्रकाशित हुआ। इनकी लघुकथाओं में समाज में व्याप्त दकियानूसी परम्पराओं के
विरुद्ध संघर्ष का आान है। स्नेह इन्द्र भारतीय समाज को अपनी स्वस्थ
परम्पराओं के आधार पर चलने–चलाने की आग्रही प्रतीत होती हैं और सार्थक
आधुनिक मूल्यों के प्रति उनकी सहमति भी झलकती है।
मयप्रदेश से जिन प्रमुख लेखिकाओं के नाम सामने आते हैं उनमें मीरा जैन
जिनकी ‘सर्वश्रेष्ठ’ एवं ‘दीपोत्सव’ लघुकथाएँ ध्यान खींचती हैं तो सुमति
देशपाण्डे ‘विदाई’ एवं ‘घर’ आदि लघुकथाओं के कारण अपनी पहचान बना लेती
हैं। सीमा पाण्डेय की ‘स्थानान्तरण’, ‘खुशखबर’ आदि लघुकथाएँ चर्चा की
अपेक्षा रखती हैं तो कोमल ‘बोतल में बंद ममता’, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’
जैसी रचनाओं के कारण उल्लेखनीय बन गई है। प्रज्ञा पाठक की लघुकथाओं में
‘अप–टू–डेट’, ‘विभाजन’ आदि चर्चित हैं। इन सबके अतिरिक्त जया नर्गिस
मयप्रदेश की महिला लघुकथाकारों में एक ऐसा नाम है, जिसकी चर्चा के बिना
मध्यप्रदेश की बात पूरी हो ही नहीं सकती। इनकी पाँच दर्जन से अधिक
लघुकथाएँ चर्चित पत्र–पत्रिकाओं तथा उल्लेखनीय संकलनों के माध्यम से अपनी
सफल एवं सार्थक पहचान बना चुकी हैं। ‘सतयुग नहीं’, ‘निश्चिंत’ जैसी
लघुकथाएँ तो हिन्दी की श्रेष्ठ लघुकथाओं में आने का अधिकार रखती हैं। इसी
धरती से कृष्णा अग्निहोत्री भी एक महत्त्वपूर्ण लेखिका हैं।
लघुकथा–जगत् में ‘सच की परछाइयाँ’ एवं ‘दो सौ ग्यारह श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ की
लेखिका उषा जैन ‘शीरी’ एक ऐसा नाम है जो बहुत चर्चा में तो नहीं है,
किन्तु उसने साध्नारत रहकर आलोचकों को सहज ही आकृष्ट किया है। एक नारी
होने के नाते इन्होंने नारीत्व भावना को तो मूल विषय बनाया ही है –इसके
साथ–ही–साथ घर–परिवार की समस्याओं को भी सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है।
‘सच की परछाइयाँ’ एवं ‘दो सौ ग्यारह श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ इनके दो
लघुकथा–संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।
महिला लघुकथा–लेखिकाओं में चित्रा मुद्गल निश्चित रूप में एक महत्त्वपूर्ण
नाम है। कहानीकार एवं उपन्यासकार होते हुए भी इन्होंने पर्याप्त मात्रा
में लघुकथाएँ लिखी हैं। ‘ऐब’, ‘पहचान’, ‘गरीब की माँ’ इत्यादि इनकी चर्चित
एवं प्रतिनिधि् लघुकथाएँ हैं, जिन्हें मानक लघुकथाओं की श्रेणी में सहज ही
शामिल किया जा सकता है। इनका लघुकथा–संग्रह ‘बयान’ पाठकों के मय कापफी
चर्चा में रहा है। अभी हाल में ही इनका दूसरा लघुकथा–संग्रह भी
प्रकाश में आया है।
हरियाणा की धरती का भी लघुकथा–जगत को समृद्ध करने में महत्त्वपूर्ण योगदान
रहा है। यहाँ से शमीम शर्मा, इंदिरा बंसल, गार्गी तिवारी, चाननबाला जैन,
उषा यादव, रक्षाकमल शर्मा, इन्दिरा खुराना, सन्तोष गर्ग, उषा मेहता,
‘दीपा’ इत्यादि महिलाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इनमें इंदिरा
खुराना, उषा यादव, सन्तोष गर्ग के एकल संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं।
इन्दिरा खुराना इतनी सतर्क हैं कि नित्यप्रति घट रही घटनाओं पर इनकी पैनी
दृष्टि रहती है और इन घटनाओं को लघुकथाओं का विषय बनाकर अपने समकालीनों
में अपनी विशिष्टता सिद्ध करती है। ‘समकालीन लघुकथाएँ’ में प्रकाशित इनकी
पाँच लघुकथाएँ–‘विश्वशांति के अग्रदूत’, ‘ये नि:स्वार्थी बेटे’, ‘पराजित
मृत्यु’, ‘कुण्ठा’ और ‘स्वार्थ के सम्बन्ध’ को देखा जा सकता है।
ऐतिहासिक–पौराणिक पात्रों को लेकर वर्तमान स्थितियों से जोड़कर सार्थक ढंग
से प्रस्तुत करना इनकी अतिरिक्त विशेषता रही है। वैचारिक धरातल पर भी
इन्होंने इस विधा को समृद्ध किया है। आप एक साप्ताहिक पत्र ‘झरोखा उर्वर’
भी प्रकाशित करती रही हैं, जिसमें लघुकथाएँ एवं कभी–कभी लघुकथा परिशिष्ट
प्रकाशित करके आपने इस विधा के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। आप
भी ‘मंच सम्मान’ से सम्मानित हो चुकी हैं। सन्तोष गर्ग के लघुकथा–संग्रह
‘अपनी–अपनी सोच’ में सत्तर लघुकथाएँ हैं। सन्तोष हिन्दी एवं पंजाबी दोनों
भाषाओं में इस विधा को समृद्ध कर रही हैं। इनकी लघुकथाएँ हरिगन्धा, पंजाब
केसरी, दैनिक ट्रिब्यून, दैनिक भास्कर, पंजाब सौरभ, विश्वज्योति इत्यादि
पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर पाठकों से सरोकार बना चुकी हैं। वरिष्ठ
लघुकथा–लेखक कमलेश भारतीय इनकी लघुकथाओं के विषय में लिखते
हैं–‘‘छोटी–छोटी उपेक्षित–सी ऐसी घटनाएँ, जिनकी ओर सहज ध्यान ही नहीं
जाता, लेखिका की रचनाओं का आधार बनते हैं। किसी में पीड़ा है, तो किसी में
व्यंग्य पर सादगी व मासूमियत मिलेगी (अपनी–अपनी सोच, पृ 7)। इसी धरती से
डॉ शील कौशिक भी एक उल्लेखनीय हस्ताक्षर हैं। 2004 ई में इनका
लघुकथा–संग्रह ‘पगडंडी पर पाँव’ प्रकाशित हो चुका है। इस संग्रह के विषय
में डॉ सतीशराज पुष्करणा लिखते हैं कि इनकी लघुकथाएँ अपने समय के यथार्थ
को परोसने में पूरी तरह सक्षम रही हैं (फ़्लैप नं एक)। इनके अतिरिक्त इनका
दूसरा संग्रह भी प्रकाश में आ चुका है। पच्चीसवें अखिल भारतीय लघुकथा
सम्मेलन, पटना में उन्हें ‘मंच–सम्मान’ से सम्मानित किया गया था।
उत्तरप्रदेश की वरिष्ठ लेखिका डॉ नीलम जैन का भले ही अभी तक एकल
लघुकथा–संग्रह प्रकाश में नहीं आया, किन्तु उन्होंने अपनी शताधिक लघुकथाओं
के माध्यम से पत्र–पत्रिकाओं एवं उल्लेखनीय
संकलनों के द्वारा ख्याति अर्जित की। ‘शताब्दी शिखर की हिन्दी लघुकथाएँ’ में उनकी लघुकथा ‘बीच की स्थिति’ प्रकाशित है।
विगत दो दशकों से इस विधा में अपना योगदान देती रही लेखिका निर्मला सिंह
धीरे–धीरे अपनी पहचान बनाने में सफल हो रही हैं। इनके दो लघुकथा–संग्रह
‘बबूल का पेड़’ एवं ‘साँप और शहर’ प्रकाश में आ चुके हैं। निर्मला की
लघुकथाएँ प्राय: श्रेष्ठ पत्र–पत्रिकाओं में स्थान बना पाने में सक्षम हो
रही हैं। ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच’ ने उनकी सेवाओं हेतु उन्हें
‘मंच सम्मान’ से सम्मानित भी किया है। बरेली शहर की अन्य लघुकथा लेखिकाओं
में स्वराज शुचि, कृष्णा खण्डेलवाल, पूनम सूद और डॉ महाश्वेता चतुर्वेदी
महत्त्वपूर्ण हैं। पूनम सूद की लघुकथाएँ कभी–कभी ‘हंस’ में भी देखने को
मिलती हैं। इनमें डॉ महाश्वेता चतुर्वेदी को छोड़कर अन्य किसी का एकल
संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है। डॉ महाश्वेता चतुर्वेदी का संग्रह ‘सर्पदंश’
1994 ई में प्रकाशित हुआ था। इनका दूसरा संग्रह भी आने को है।
लघुकथा के विकास में बिहार का योगदान सर्वविदित है। यहाँ की महिलाएँ भी
पीछे नहीं हैं। अभी हाल में ही बिहार से अलग हुए राज्य झारखण्ड में
डालटनगंज नगर की डॉ लक्ष्मी विमल का 2000 ई में प्रकाशित संग्रह ‘सादा
लिफाफा’ चर्चा में है। इस संग्रह में इनकी इकसठ लघुकथाएँ संकलित हैं। इनकी
लघुकथाओं पर विचार करते हुए प्रख्यात आलोचक डॉ जगदीश्वर प्रसाद लिखते
हैं–‘‘डॉ लक्ष्मी विमल की इन लघुकथाओं में पर्यवेक्षण की सूक्ष्मता भी है
और चित्रण की प्रभविष्णुता भी प्रभावित करती है। (सादा लिफाफा, पृ 14)।
उर्दू साहित्य के प्रख्यात हस्ताक्षर श्री नादिम बलखी के शब्दों में–‘‘डॉ
विमल की कलम व्यंग्य पेश करने में बड़ी सुबूक मगर असर रखने वाली चाल रखती
है। (सादा लिफाफा, पृ 16) डॉ ब्रजकिशोर पाठक के शब्दों में ‘‘डॉ विमल
वर्तमान जीवन की विसंगतियों की लघुकथाकार तो हैं, परन्तु, उनका कथाकार आज
के जीवन की त्रासदी–विद्रूपता और विडंबनाओं की परख भी रखता है। वर्तमान
जीवन की विद्रूपता है–सम्बन्धों का विघटन, आदमी का दो मुँहापन, जड़ता एवं
संवेदनहीनता और सामाजिक जीवन में राजनीति का केन्द्रीकरण। इन सब का अहसास
है डॉ विमल की लघुकथाएँ। ये लघुकथाएँ बोलती हैं कि आज का आदमी किस प्रकार
सम्पूर्णता में नहीं, खण्डों में जी रहा है। यही खण्ड–खण्ड आज के आदमी का
जीवन इनकी लघुकथाएँ हैं। (सादा लिफाफा, पृ 42) बिहार के बेगूसराय की
सुनीता सिंह का सद्य प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘राजा नंगा हो गया’ में
पचहत्तर लघुकथाएँ संकलित हैं। इनकी लघुकथाओं पर वरिष्ठ लघुकथाकार बलराम
अग्रवाल लिखते हैं–‘‘इनकी कुछ लघुकथाओं में ठहराव नजर आता है और कुछ में
उनके चिंतन–मनन की सीमा। ऐसी लघुकथाओं में प्रमुखत: ‘तरकीव’, ‘औरत’,
‘तीसरा आदमी’ तथा ‘माँ की ममता’ का नाम आसानी से लिया जा सकता है।’’ (राजा
नंगा हो गया, पृ 4)। डॉ रमेश नीलकमल लिखते हैं–‘‘सुनीता सिंह के इस संग्रह
की लघुकथाओं में भी तत्त्व, पात्र, चारित्रिाक विकास, संवाद, देशकाल और
क्लाईमेक्स की दृष्टि से एक से बढ़कर एक लघुकथा संगृहीत हैं। विषय–वैभिन्य
तथा संयोजन ने इसकी चारुता बढ़ाई है।’’ (राजा नंगा हो गया, कवर फ़्लैप)।
मेरी दृष्टि में इनकी लघुकथाओं में ‘राजा नंगा हो गया’, ‘माँ का पत्र’,
‘अहमियत’, ‘शिकार’ श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं। सुनीता की लघुकथाएँ प्राय: लघु
पत्र–पत्रिकाओं में अधिक पढ़ने को मिलती हैं। आप भी ‘अखिल भारतीय
प्रगतिशील लघुकथा मंच’ द्वारा ‘मंच सम्मान’ से सम्मानित हो चुकी हैं। इस
शहर से स्वाति गोदर भी इस विधा में अपना सक्रिय योगदान दे रही हैं।
डालटनगंज की एक अन्य कथा–लेखिका श्यामा शरण ने भी पर्याप्त लघुकथाएँ लिखी
हैं। उनका एवं उनके पति का संयुक्त लघुकथा–संग्रह ‘लघुकथाएँ: उनकी और
मेरी’ प्रकाश में आ चुका है। इस संग्रह की अनेक लघुकथाएँ चर्चा के योग्य
हैं। पुष्पा जमुआर बिहार की एक ऐसी प्रतिभावान लघुकथार हैं, जिन्होंने
बहुत कम समय में अपनी श्रेष्ठ लघुकथाओं ‘अनुशरित प्रश्न’, ‘रजाई’आदि के
कारण राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनायी है। इनकी रचनाएँ सरस्वती सुमन,
‘हिन्दुस्तान, दैनिक–भास्कर, तृणगन्धा, शब्द–संवाद, अविराम साहित्यिकी,
दैनिक जागरण, कलरव, राजभाषा पत्रिका इत्यादि तमाम पत्र–पत्रिकाओं में
प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘टेढ़े–मेढ़े रास्ते’ इनका लघुकथा–संग्रह पच्चीसवें
लघुकथा सम्मेलन, पटना में डॉ परमेश्वर गोयल लघुकथा शिखर–सम्मेलन से
सम्मानित हो चुका है। प्रियंका गुप्ता ( प्रेम गुप्ता मानी की बेटी) सशक्त
कहानीकार , लघुकथाकार और कवयित्री हैं। इनकी लघुकथाएँ देश-विदेश की
विभिन्न पत्रिकाओं में और अन्तर्जाल की पत्रिकाओं मे भी प्रकाशित हो
चुकी हैं इनके अतिरिक्त अनेक महिला लघुकथा–लेखिकाएँ हैं; जो एक समय में
काफी चर्चित रहीं, आज शिथिल हो गयीं। ऐसी लेखिकाओं में निशा व्यास एवं जया
नर्गिस का नाम सहज ही लिया जा सकता है। इनके अतिरिक्त कुछ लेखिकाएँ ऐसी भी
हैं जो निष्क्रिय तो नहीं हैं ; किन्तु अपेक्षाकृत कम लिखती हैं। हाँ, जो
लिखती हैं वह श्रेष्ठ लिखती हैं। ऐसी लेखिकाओं में अनन्दिता का नाम आता है
जो अपनी लघुकथा ‘सपना’ के कारण चर्चित है। मेरठ की चर्चित कवयित्री डॉ
सुधा गुप्ता ने भी कुछेक लघुकथाएँ लिखी हैं जिनका प्रकाशन ‘सर्जना’,
हिन्दी चेतना (कनाडा), लघुकथा डॉट कॉम इत्यादि में चुका हैं। ‘कन्पेफशन’
इनकी चर्चित लघुकथा है। शिमला निवासी आशा शैली की लघुकथाएँ गुणवत्ता की
दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। ‘पड़ोसी’ लघुकथा तो उनकी पहचान है। इनका
लघुकथा–संग्रह ‘उर्मिया’ अच्छा चर्चित रहा है। इसी प्रकार सुधा अरोड़ा
‘ताराबाई चॉल’ और माया कनोई ‘प्रत्याघात’ के लिए चर्चित हैं। प्रेमगुप्ता
मानी ‘आरोप’, ‘जन्म’ और ‘उसकी आवाज’ के कारण तथा डॉ मीरा दीक्षित ‘उल्टी
सीधी’ लघुकथा के कारण याद की जाती हैं।नासिरा शर्मा, मृदुला–सिन्हा और
सुमति अय्यर वस्तुत: कहानीकार हैं। किन्तु इन्होंने लघुकथाएँ भी लिखीं जो
संकलनों में संकलित हैं। नासिरा शर्मा की ‘लू का झोंका’, ‘रुतबा’ तथा
सुमति अय्यर की ‘पोस्टर’ लघुकथाएँ श्रेष्ठ मानी जाती हैं। मृदुला सिन्हा
की लघुकथाओं का संग्रह ‘देखन में छोटे लगें’ प्रकाशन में आ चुका है। इनकी
अनेक लघुकथाएँ अपनी श्रेष्ठता के कारण संकलनों में संकलित है।
पत्र–पत्रिकाओं में प्राय: इनकी रचनाएँ स्थान प्राप्त करती रहती हैं।
सुमति अय्यर दक्षिण भारतीय होते हुए भी हिन्दी–कथा के विकास में अपना
योगदान कर रही थीं। प्राय: छ: वर्ष पूर्व किसी असामाजिक तत्त्व ने कानपुर
में उनके निवास पर उनकी हत्या कर दी। बिहार के आरा नगर की लेखिका उर्मिला
कौल की लघुकथाओं की प्रौढ़ता और गंभीरता स्पष्ट झलकती है। उन्होंने अपनी
लघुकथाओं में अपना एक संघर्ष तथा अर्थपूर्ण जीवन जिया है। इनकी एक सौ
लघुकथाओं का संग्रह ‘स्वांत: सुखाय’ 2003 ई में प्रकाशित हुआ था और ‘अखिल
भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच’ ने इन्हें ‘मंच सम्मान’ से सम्मानित करने का
गर्व प्राप्त किया है। हापुड़ की कमलेश रानी अग्रवाल का भी एक संग्रह
प्रकाशित है। इसी श्रेणी में प्रिय कमल कालविजयिनी, साधना कुमारी,
डॉ राजकुमारी शर्मा ‘राज़’, डॉ शुभदा पाण्डेय, शकुंतला कुमारी, शशि प्रभा
शास्त्री, रश्मि नायर, सविता, डॉ सरोज अग्रवाल, नरेन्द्र कौर छाबड़ा,
पुष्पा कुमारी, अलका पाठक, इंदिरा कुमारी, आरती झा, वाणी, शशिप्रभा
सिन्हा, उर्मि कृष्ण, डॉ मीना कुमारी, डॉ अनीता राकेश, कृष्णा कुमारी,
अर्चना शर्मा, सुशीला शील, लक्ष्मी रूपल, शशि पाठक, मीना अग्रवाल, सुलक्षण
व्यथित, मनीषा मिश्र, ममता अग्रवाल, अलका पाठक, अंजु दुआ जैमिनी, आलम आरा
खाँ, आरती खेड़कर, उषा कुशवाहा, नीलिमा टिक्कू, मधु संधु, रजनी गुप्त,
रश्मि बड़थ्वाल, प्रभा दीक्षित, डॉ पुष्पा कुमारी, पुष्पा सिंह, इरा
स्मृति, सरोज व्यास, सविता सिंह नेपाली, शमा खान, अनिता रश्मि, अनिता
ललित, आकांक्षा यादव, उज्ज्वला केलकर, ॠचा शर्मा, कमल कपूर, कुमुद,
जयमाला, पुष्पा राव, पूर्णिमा मिश्रा, ज्योति जैन, तारा निगम, डॉ मीना
अग्रवाल, सुमुति देश पांडे, शोभा रस्तोगी, मुक्ता, सुलेखा जादौन, सुधा
भार्गव, सविता पाण्डेय, डॉ. सुधा ओम ढींगरा, डॉ आरती ‘स्मित’, भारती
पांडेय, सुधा भागर्व, प्रियंका गुप्ता,, शर्मा, सुदर्शन रत्नाकर, पवित्रा
अग्रवाल, संतोष श्रीवास्तव, डॉ प्रमिला वर्मा, रचना श्रीवास्तव, सीमा
स्मृति, ॠता शेखर ‘मधु’, सुर्दशन प्रियदर्शनी हरकीरत ‘हीर’ शैफाली पांडेय,
भावना सक्सेना, आशा मेहता, संतोष गोयल, डॉ अनीता कपूर ,सृष्टि सिन्हा,
निर्मला मून्दडा, सुनीता मिश्र ‘सुनीता’, अलका मित्तल, अलका जैन, प्रज्ञा
गुप्ता, प्रभा पाण्डेय, अंजन सवि, पूर्णिमा ढिल्लन, सुधा गोस्वामी, अमृता
जोशी, रेणु वर्मा, शशि मंगल, विनोद कुमारी किरण, किरण राज पुरोहित
‘नितिल’, करुणाश्री, ममता पनेरी, अरुणा श्याम, माधुरी शास्त्री, सुकीर्ति
भटनागर, राधारानी चौहान, वाणी दूबे, स्मृति जोशी, रेखा सूरी, कृष्णा लता
यादव, खदीजा खान, सुधा भागर्व, नीता श्रीवास्तव, कुमुद शाह, शैलचन्द्रा,
मीना गुप्ता, इन्दु गुप्त, आशा खत्री लता, उषा लाल, कमला चमोला, कमला
निखुर्पा, सुरम्या शर्मा, श्यामा शर्मा, मीनाक्षी जिजीविषा, रश्मि
त्रिापाठी, ओजसी मेहता, विनोद नंदिनी गोयनका, संगीत सुन्देचा, निशा
भोंसले, तारा लक्ष्मण गहलौत, पूनम अरोड़ा, सुधा अरोड़ा, डॉ निरुपमा
राय, सुधा जैन, सुष्मिता पाठक, सुनीति रावत, अनुराधा, आभा, मंजुला गुप्ता,
भावना वर्मा, पुष्पा चिले, निरुपमा अग्रवाल, रजनी मोरवाल, रीता कश्यप, डॉ
हरदीप कौर सन्धु, निरुपमा कपूर,उषा अग्रवाल ‘पारस’ सुषमा जैमिनी, इला
प्रसाद,कविता सूद,चन्द्ररेखा ठडवाल,जयमाला,ज्योतिर्मयी पन्त, नीलम
कुलश्रेष्ठ,मंगला रामचन्द्रन,ममता तिवारी,मनमोहन कौर,मीरा
चन्द्रा,विद्यालाल,शशि पाधा,सकीना अख्तर,सरोज परमार,सविता पाण्डेय
अन्नपूर्णा श्रीवास्तव इत्यादि अन्य अनेक ऐसी महिला लघुकथा लेखिकाएँ हैं
जो पत्र–पत्रिकाओं एवं संकलनों में तो दिखाई देती हैं; किन्तु उनके एकल
संग्रह आने को हैं। अभी हाल–फ़िलहाल ज्योति जैन का भी एक संग्रह प्रकाश में
आया तो लक्ष्मी शर्मा का ‘मुखौटा’, शोभा रस्तोगी का ‘दिन अपने लिए’ इन
दिनों में चर्चित हैं। कमल कपूर का भी एक लघुकथा संग्रह ‘हरी सुनहरी
पत्तियाँ’ प्रकाश में आया है। 2014 में कोटा की रचना गौड़ भारती का संग्रह
‘मन की लघुकथाएँ’ अपनी विशिष्ट शैल के कारण यान आकर्षित करती है। शोभा
बुक्कल मूलत: कवयित्री है किन्तु उन्होंने पर्याप्त लघुकथाएँ भी लिखीं जो
पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही। सुदर्शन रत्नाकर का संग्रह ‘साँझा
दर्द’ पिछले दिनों प्रकाश में आया है ।
है। अनेक संकलनों में भी संकलित हैं। अभी हाल में ही उनका ‘तिनका–तिनका’
नाम से संग्रह प्रकाश में आया है। किन्तु राजस्थान की डॉ सरला अग्रवाल एक
ऐसी अनुभवसिद्ध प्रौढ़ कथा–लेखिका हैं, जिनकी लघुकथाएँ प्राय:
पत्र–पत्रिकाओं में पढ़ने को तो मिलती हैं। अभी हाल में ही यानी 2004 ई
में इनका लघुकथा–संग्रह ‘दिन–दहाड़े’ प्रकाश में आया है, जिसकी भूमिका डॉ
कमल चोपड़ा ने लिखी है। इन्हें इसी संग्रह के लिए डॉ परमेश्वर गोयल लघुकथा
शिखर–सम्मेलन से पटना में सम्मानित किया जा चुका है।
लघुकथा लेखिकाओं की चर्चा की समाप्ति के क्रम में मैं संकोच पूर्वक कहना
चाहूँगी कि इन पंक्तियों की लेखिका के भी दो लघुकथा संग्रह–‘अंधेरे के
विरुद्ध’ तथा ‘छँटता कोहरा’ अब तक प्रकाश में आ चुके हैं। ‘छँटता कोहरा’
को 2002 ई में ‘डॉ परमेश्वर गोयल लघुकथा शिखर सम्मान’ से सम्मानित भी किया
गया था। इसके अतिरिक्त महिला लघुकथाकारों की लघुकथाओं का संकलन ‘कल के
लिए’ का संपादन भी किया है। ‘छँटता कोहरा’ का दूसरा संस्करण भी प्रकाशित
हो चुका है।
अनेक नई लेखिकाएँ भी इस जगत् में आ रही हैं जिनकी लघुकथाएँ पढ़कर आश्वस्त
हुआ जा सकता है कि लघुकथा का भविष्य उज्ज्वल है और वह सही हाथों में जा
रहा है। मैंने भरपूर प्रयास किया है कि लघुकथा में योगदान देने वाली
प्रत्येक महिला की चर्चा हो, किन्तु यदि किसी की चर्चा छूट गई हो, तो उसका
कोई अन्य कारण नहीं, मेरी अज्ञानता है।
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सम्पर्क : वाणी वाटिका, शिवपूजन सहाय मार्ग,सैदपुर, पटना–800004
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