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अध्ययन-कक्ष - पारस दसोत





लघुकथा का महत्त्व : पारस दासोत

 

-लघुकथा, जिसे कथाकार तो कम शब्दों में पाठक के सामने रखता है, परंतु
पाठक उसे मनन, चिंतन करके लंबी कर लेता है ।
-लघुकथा का जन्म सीधी रेखाओं से नहीं, संघर्ष/तनाव से उत्पन्न आड़ी तिरछी
रेखाओं से होता है ।
-लघुकथा कपड़ों की नहीं...पेट की बात करती है ।
- लघुकथा एक व्यक्ति की नहीं...पूरे वर्ग की बात करती है ।
- लघुकथा केवल लघुकथा होती है...इसके अतिरिक्त कुछ नहीं । न कहानी का
छोटा रूप न चुट्कुले से कुछ ऊपर । ठीक जैसे पृथ्वी न तो नारंगी की तरह गोल है, न अंडे की तरह गोल, पृथ्वी तो पृथ्वी की तरह गोल है ।
- लघुकथा के साथ 'लघु' विशेषण जुड़ जाने से विधा या कथाकार कमजोर या
अप्रभावी नहीं हो जाता है, जैसे किसी व्यक्ति के 'छोटा भाई' होने से उसके व्यक्तित्व कृतित्व में कोई अंतर नहीं आता ।
- लघुकथा का संघर्ष रोटी पर लगे घी के लिए नहीं...रोटी के लिए है ।
- लघुकथा कहानी न होते हुए भी अपने आप में पूर्ण कहानी होती है ।
- लघुकथा की लम्बाई केवल शब्दों तक नहीं...पाठक के दिल तक होती है । और
पाठक का दिल कथाकार के बहुत ही पास होता है ।
- लघुकथा का शिल्प किसी भी अन्य विधा से उधार लिया हुआ नहीं होता । इसी
कारण केवल कम शब्द ही किसी कथा को लघुकथा नहीं बनाते जैसे-'एक था राजा एक थी रानी दोनों मर गए खत्म कहानी ।' क्या हम इसे लघुकथा कह सकेंगे ?...नहीं...! तो क्यों नहीं ?
- लघुकथा यथार्थ को नंगा नहीं करती, बल्कि यथार्थ स्वयं नग्न होकर (पर्दे
को हटाकर) लघुकथा के माध्यम से कम शब्दों में पाठक के सामने आता है । लघुकथा को पढ़कर पाठक अपने चेहरे पर शर्म से हाथ नहीं रखता बल्कि आत्मग्लानि से अपने चेहरे को नहीं दिखाना चाहता ;क्योंकि इस नग्नता में
वह या तो अपने आप को नंगा महसूस करता है या फिर...उसमें अपनी हिस्सेदारी ।
-लघुकथा की यात्रा मूर्त से अमूर्त की ओर होती है ।

(साभार: 'पहचान' लघुकथा संग्रह ; सम्पादक-माधव नागदा, 1986 )

 

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