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अध्ययन-कक्ष - अपना अक्स
अपना अक्स
राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बंधु’

राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बंधु’ की लघुकथा ‘अपना अक्स’ अभाव की पीड़ा का,दैन्य की दुरवस्था को, विपन्नता की स्थिति में उपजे हुए सहानुभूति के भाव को उजागर करती है। दैन्य की दु:स्थिति दोनों को पारस्परिक स्नेह–सूत्र में आबद्ध कर देती है–दो अजनबी विपन्न आपस में अचानक मैत्री भाव विकसित कर लेते है–कहते हैं– आपत्ति में, संकट में निहायत अजनबी भी अपने हो जाते हैं, विपत्ति में बेगाने भी अपने आत्मीय बन जाते हैं। इसी भाव का संवहन यह लघुकथा करती नज़र आती है। जो स्वयं दु:खी को अच्छी तरह समझ सकता है–जाके पैर न फटे बेवाई सो क्या जाने पीर पराई’। दु:ख में संवेदना का विस्तार होता है, हृदय का प्रसार, भावना का विस्तार। संताप और अभाव की आंच में ही प्रेम–सहानुभूति का, करुणा–कारुण्य का अमृत–गाढ़ा तैयार होता है।
स्वयं अभाव की पीड़ा झेलता हुआ, बेरोज़गारी की मार से क्षतविक्षत नायक ही विपन्न–बुभुक्षित बालक की पीड़ा व दीनता का एहसास ज्यादा गहराई व तलखी से कर सकता है। रचना अच्छी बन पड़ी है–दिल को छूने की सामथ्र्य है इसमें। कोटि द्वितीय।

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