महावीर जैन की लघुकथा ‘श्रम’ में एक नई ज़मीन एक नए ढंग से तोड़ी गई है जिसमें बहुत कुछ चमत्कार जैसा उत्पन्न हो गया है। सामान्य चिंतन से परे जाकर कुछ चमत्कारिक चिंतन प्रस्तुत किया गया हैं इस नव्य चिन्तन ने श्रम की मर्यादा तो स्थापित कर ही दी है, जीवन में कर्मठता को, जिजीविषा को नव गरिमा प्रदान की है। इस नव चिंतन ने बुज़दिली और कायरपन, ‘फेटलिन्स’ और भाग्यवाद, निष्क्रियता और अकर्मण्यता के मुँह पर करारा तमाचा मारा है, उस पर जबर्दस्त, आक्रमण, ज़ोरदार प्रहार, ज़बर्दस्त ‘बम्बार्डमेण्ट’ किया है। वस्तुत: यह रचना जिजीविषा का दुन्दभी–नाद है, जीवन का गायन है, जिजीविषा की ऋचा है, जी्वनेच्छा की गति है, कर्मण्यता का उपनिषद्। रचनाकार ने अपनी सू़क्ष्म अभिनव दृष्टि व अपने पारंगत कौशल से दोनों पात्रों को अमर बना दिया है–रद्दी अखबार बेचने वाले को और उसे खरीदने वाले को। अखबार खरीदने वाला नवयुग का बैतालिक बन जाता है,। अपनी अनुभव सिद्ध प्रौढ़ लेखनी के बल पर रचनाकार ने दोनों पात्रों को कम ही समय में, कुछ ही शब्दों के साथ पूरी जीवंतता व स्फूर्ति प्रदान कर उन्हें अविस्मरणीय बना दिया है। उनकी प्रभावकारी अमिट छाप पाठक के मनमानस पर पड़ जाती है और उनकी आंतरिक स्फूर्ति के विद्युत्कण से पाठक भी अभिभूत हो जाता है–जो विषयवस्तु है, जो दृष्टि विचार, उसे जिस ढंग से प्रस्तुत किया गया है वह रचना के सहज सौन्दर्य को हृदयंयम कराते हुए अपनी विधा का गौरवोद्घोष भी करता है। रचना प्रथम कोटि की मानी जाएगी।