धीरेन्द्र शर्मा की लघुकथा ‘अपना घर’ में बेघरबारों की भौतिक व मानसिक स्थिति का कारुणिक मर्मान्तक उद्घाटन किया गया है। गरीबी में आकंठ डूबे मज़दूरों की जीवन–व्यापी विवशता, लाचारी, का मर्मवेधी अंकन किया गया है। जो वर्ग समाज की सेवा में लगा है, जिसका जीवन ही समाज की समृद्धि के लिए समर्पित है, इन चारों की व्यथा–कथा बड़े ही मार्मिक ढंग से अंकित है इस रचना में। उन्हें न खाने को भरपेट अन्न मिलता है, न तन ढकने को वस्त्र और न ही प्राकृतिक प्रकोप से बचने के लिए घर ही। लानत है ऐसे शोषक समाज को, ऐसी समाज व्यवस्था को, ऐसी हुकूमत,शासन–प्रशासन को। यह रचना मानव जाति की सारी सभ्यता–संस्कृति–शिक्षकों–सम्पन्नों–सबकी मर्यादा को मिट्टी में मिला देती है–हमारी सारी सामाजिक अट्टालिका एकबारगी ध्वस्त हो जाती है–रचना में एक तरह से कलात्मकता के गुण हैं, इसमें अमिट विध्वंस की विस्फोटक सामग्री संचित है।
पाठक की चेतना तिलमिला उठती है, उसकी हृत्तंत्री झनझना उठती है, उसके भाव आघूर्णित होने लगते हैं। गोली से मरते हुए मज़दूर की यह उक्ति–‘‘साहब, मैं एक गरीब मज़दूर हूँ और मेरा कोई अपना घर नहीं है,’’ कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण असहज लगते हुए भी हमारी व्यवस्था पर, हमारी संस्कृति और समृद्धि पर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं, बल्कि ऐसा कहूँ कि हमारी सामाजिक विद्रूपता पर भीषण अट्टहास करते हैं।
शिल्प में शैथिल्य के बावजूद रचना में इतनी ऊर्जा है कि वह लक्ष्य वेधन कर ही लेती है अपनी प्रबल प्राणवत्ता प्रमाणित करती हुई। रचना द्वितीय कोटि में उच्च स्थान की अधिकारिणी है।