रमेश बतरा की लघुकथा ‘खोया हुआ आदती’ एक बहुत ही सूक्ष्म धरातल पर संप्रतिष्ठित होकर लघुकथा के रूप में एक निहायत श्रेष्ठ रचना प्रस्तुत करती है। ऐसे सूक्ष्म भाव को लघुकथा के कलेवर में अँटा देना, उसकी प्रकृति में फिट कर देना रचनाकार की एक चमत्कारिक सिद्धि है। सामान्यत: लघुकथाओं में ऐसे प्रयोग देखने को नहीं मिलते। अत: बतरा की लघुकथा के विषय को देख कर विस्मयविमूढ़ हो जाना पड़ता है। औपनिषदिक दृष्टि या सत्य को उन्होंने आज की लघुकथा के कलेवर में ढालने का सफल प्रयास किया है। विश्वब्रह्माण्ड में जो कुछ भी घटित हो रहा है उससे हम सूक्ष्म रूप से प्रभावित होते रहते हैं–जो कुछ भी हो रहा है उससे हम किसी न किसी रूप में जुड़े रहत हैं। अन्तदृर्ष्टि के विकसित होने पर ऐसा महसूस होने लगता है कि हम ही विश्वब विश्वब्रह्माण्ड में प्रसार पा रहे हैं या फिर विश्वब्रह्माण्ड सिमटकर हमीं में समाहित हो गया है तो लघुविराट का यह महा मिलन, अणुमन व भूमांगन का यह परस्पर विलयन औपनिषदिक ऋषियों की चिरवांछित खोज ही नहीं है, उनकी जीवन–व्यापी साधना की सिद्धि भी है।
आंतरिक उद्भासन के क्षणों में हम ऐसा महसूस करने लगते हैं–कि बा सृष्टि से हमारा गहरा जुड़ाव है, अभिन्न नाता है। इस सृष्टि में किसी का दु:ख–दैन्य मेरा दु:ख–दैन्य बन जाता है, किसी का हर्ष–उल्लास मेरा हर्ष–उल्लास और इसी तरह किसी का मरण, मेरा मरण। हर जनम में मैं ही जनमता रहा हूँ और हर मरण में मैं ही मरता हूँ–यहाँ मेरे सिवाय किसी दूसरे का अस्तित्व ही कहाँ है? ‘अहंब्रह्मस्मि’, ‘सोहमस्मि’ आदि आर्ष अनुभूतियों की सारसत्ता इस रचना में समाहित हो गई है। वस्तुत: यह रचना सामान्य पाठक की समझ के परे की चीज हो जाती है और यदि पाठक गहरे में जाकर इसकी सच्चाई को समझ ले, इसकी दृष्टि को आत्मसात कर ले, इसकी रोशनी से रोशन हो जाए, इसकी आलोकदीप्ति से दीप्ति भास्वर हो जाए तब तो उसे जीवन में एक प्रकाश मिल गया, एक दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई। समीक्ष्य लघुकथाओं में यह रचना सर्वाधिक सूक्ष्म व गहन–गूढ़ है। आर्ष अनुभूतियों को वाणी देती हुई यह रचना औपनिषदिक आख्यान की कोटि में आ जाती है जिसका चिरन्तन महत्त्व है, जिसकी शाश्वत वस्तु व ऐसी रचना के लिए बतरा जी को मेरी हार्दिक बधाई। मेरे ख्याल से यह सर्वश्रेष्ठ रचना है।