सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘ ड्राइंग रूम’ बड़े ही सूक्ष्म भाव से सम्बन्धित है–अपनी विषय वस्तु का निर्वाह उन्होंने पैनी शिल्प–प्रविधि से बखूबी किया है। उनकी प्रौढ़ शिल्पकला ने कुछ ही क्षणों में कुछ ही शब्दों के माध्यम से एक ऐसी स्थिति का जीवंत अंकन कर दिया है जो स्थिति अपनी प्रभावशीलता में दूरगामिनी है।
यह रचना ममता के आगमन,ममत्व के आप्लावन से संबंधित है–इसका सम्बन्ध वात्सल्य के प्रस्फुटन, वात्सल्य के प्रसरण–विस्तरण से है। प्रेम–प्रीति, माया–ममता, स्नेह–सहानुभूति, ममत्व–वात्सल्य मनुष्य के जीवन में या जिसे हम जड़ जगत कहते हैं उसमें भी एक रस वैभव, एक चमक–ज्योति, एक सिहरन– कंपन एक कौंध–कांति, एक चेतना–संचेतना, एक हिलोर–हलचल, एक स्पंदन–स्फूर्ति, एक वेग–आवेग, एक भाव–अनुभाव पैदा कर देता है। वात्सल्य के प्रवाह से निर्जीव भी स्पंदित–स्फूर्त हो उठते हैं! फिर वात्सल्य प्रवाह के अवरुद्ध होने या वात्सल्य के सूखने या लोप होते ही निर्जीव तो पुन: निर्जीवता प्राप्त कर ही लेता है, सजीव भी निर्जीवता की स्थिति महसूस करने लगता है। तो यह है वात्सल्य रस की महिमा, प्रेम प्रीति–प्यार ममत्व–अपनत्व का चमत्कार, उसका करतब–कौशल, उसकी लब्धि–सिद्धि। इस सनातन सत्य को, इस सत्य सनातन सूक्ष्म भाव को पुष्करणा जी ने अपनी शैल्पिक क्षमता के माध्यम से जीवन्त–प्राणवन्त बनाकर पाठकों के मन–मस्तिष्क में संप्रतिष्ठ कर दिया है। पर शीर्षक से मुझे मतभेद है–एक तो अंगरेजी शीर्षक मुझे यों ही पसन्द नहीं–कभी वैसी बात हो तो, स्थिति हो तो दिया भी जा सकता है पर यहाँ तो वैसी स्थिति भी नहीं है। ड्राइंग रूम शीर्षक से ड्राइंग रूम ही महत्त्वपूर्ण हो उठता है जबकि प्रमुख है वात्सल्य भाव,वात्सल्य भाव का चमत्कारिक प्रभाव। ऐसी दिव्य भावापन्न रचना का शीर्षक ‘ड्राइंगरूम’ कम से कम मुझे तो बहुत खटकता है, अधूरा अपूर्ण लगता है। ‘ममता की महिमा’ या ‘वात्सल्य के वैभव’ जैसा कुछ शीर्षक हो सकता था, रचनाकार स्वयं इस पर विचार करेंगे। रचना प्रथम कोटि की है।