अशोक भाटिया की लघुकथा ‘सहानुभूति’ हमें महेन्द्र सिंह ‘उत्साही’ की ‘प्रायश्चित’ माधव नागदा की ‘एहसास’ सतीशराज पुष्करणा की ‘ ड्राइंग रूम’ की याद दिलाती है। यह रचना, जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, सहानुभूति से संबंध रखती है। सहानुभूति जीवन की एक विशिष्ट वैभव–विभूति है, शुष्क जीवन में भी रस घोल देती है, सहानुभूति की फुहार से सूखे बिरवे भी लहलहा उठते हैं, सूखी फसल भी हरी–भरी हो जाती है। प्रेम–प्रीति सहानुभूति पाषाणी धरती में भी सरस रसनिर्झर सृजित कर देती है–मरुभूमि में भी गंगा–अवतरण घटित हो जाता है।
एक बूढ़े भिखारी को अन्य दाताओं से रुपए पैसे मिले पर उसे आत्मिक तृप्ति प्राप्त न हुई। आत्मिक तृप्ति उस व्यक्ति से प्राप्त हुई जो उसे बड़े प्यार से बुलाकर अपने साथ भोजन कराने लगा। आत्मीयता का, अपनत्व का यह आप्लावन–प्रसार, सहानुभूति का यह गंग–प्रवाह भिखारी को भरा–पूरा, हरा–भरा, हर प्रकार से तृप्त छोड़ गया–उसे जीवन की सम्पूर्ण तृप्ति मिली। जीवन का सबरस प्राप्त हुआ। तो सहानुभूति की महिमा अकथ, अनिर्वच, अजय है।’ संसार की सारी सुख समृद्धि सहानुभूति का स्थान नहीं ले सकती। सहानुभूति के रस वैभव, इसके रसप्रसार को रचनाकार ने बड़े कौशल, बड़ी सुदक्षता व आत्मीयता से हृदयंगम कराया है। रचना मर्मस्पर्शिनी बन पड़ी है। रचना के अंतिम दृश्य के रसास्वादन से, उसकी स्वर्गिक मिठास–सुवास से हम सभी पाठक आपादमस्तक भीग जाते हैं, आह्लादित आलोकित हो उठते हैं।