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उपकृत
जगदीश कश्यप

जगदीश कश्यप की लघुकथा ‘उपकृत’ निखालिस ज़मीदारी सामंती संस्कार व मानसिकता और निखालिस खानदानी सेवक व मज़दूर के संस्कार व मानसिकता का अंतर उद्घाटित–उद्भासित करती है। सेवक मज़दूर जमींदार या सामंत की जी–जान से सेवा करता है, उसकी तृप्ति के लिए हर तरह का कष्ट सहन कर उसका सारा जुगाड़ करता है, उसके ऐश–आराम व मौजमस्ती की जरूरी बातों की सम्पूर्ति के लिए ज़मींदार की एक हल्की–सी मीठी मुस्कान, या एक ही प्रशंसात्मक शब्द या संकेत मज़दूर के लिए अष्टसिद्धि, नवनिधि से भी ज्यादा मूल्यवान महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
ज़मींदारी मानसिकता और मज़दूर की मानसिकता का यह अंतर यद्यपि बड़ी जीवंत स्थिति को पैदा कर, जीवंत पात्रों के जीवंत संवादों के माध्यम से उजागर किया गया है–रचना की शारीरिक स्फूर्ति काबिले- तारीफ है, विश्वसनीय है–संक्रामक है पर आंतरिक प्राणवत्ता लृप्त प्राय है। सच्चे सृजन की स्थायी मर्म–स्पर्शिता व उसकी सुदीर्घ महाप्राणता इस रचना से गायब है। जाहिर है कि रचना पिछली रचना की भांति सामान्य द्वितीय कोटि की होकर रह गई है।

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