हिन्दी के नवस्थापित एवं सुस्थापित कुछ लघु कथाकारों की एक–एक प्रतिनिधि रचना से गुजरना मेरे लिए एक वैविध्य–पूर्ण आनंददायक अनुभूति रही है। इस कथाओं के माध्यम से मैंने जीवन के विभिन्न रूपों के दर्शन किए हैं, जीवन के अनेक पक्षों–पहलुओं से परिचित हुआ हूँ, जीवन की अनेक स्थितियों–भावों घटनाओं,पात्रों से मुलाकात कर सका हूँ, जीवन के अनेक अनुभूतियों–दृष्टियों से मुठभेड़ हुई है, जीवन के अनेक स्तरीय, बहुधरातलीय सत्यों से साक्षात्कार कर सका हूँ और जीवन के अनेक रसों के आस्वादन से समृद्ध हुआ हूँ। जीवन के वैविध्यपूर्ण वैभव के बीच, सर्जना की ईद धनुषी सौंदर्य–सुषमा के बीच दो क्षण गुज़ार लेना अपनी आंतरिकता को, अपनी अन्तर्सत्ता का भाव समृद्ध करना है, अपनी दृष्टि को उदार–व्यापक, अपनी अंतर्दृष्टि को सूक्ष्म गहरा बनाना। इन विभिन्न सौंदर्य सरोवरों, सुषमा–सरिताओं, सौरभ–सागरों के बीच से गुजरते हुए निश्चित रूप से मुझे अच्छा लगा है और अपने को एक तरह से अभ्यंतर समृद्ध महसूस कर पाया हूँ। इसके लिए मैं इन रचनाकारों का हृदय से धन्यवाद करता हूँ।
मैं लघुकथाओं का कोई प्रशंसक नहीं रहा हूँ– हाँ, रचना के रूप् में आस्वादक ज़रूर रहा हूँ पर उसकी आकार आकृति और उसकी अधिकांशत: सतही सर्जनात्मकता के कारण मेरी उसमें कोई विशेष रुचि जागृत न हो पाई, न ही मैंने लघुकथा को कोई विशेष महत्त्व ही दिया। पर सतीश जी के सान्निध्य में आने पर, इनके आत्मीयतापूर्ण सम्मोहक सृजनात्मक समर्पित व्यक्तित्व के सुप्रभाव से मैं धीरे–धीरे इस विधा में रुचि लेने लगा और इसकी सीमा सामथ्र्य–संभावनाओं पर गहराई से विचार करने लगा–इस क्रम में सतीश जी ने लघुकथा से संबंधित विविध महत्त्वपूर्ण मूल्यवान सामग्री देकर मुझे महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उस सारी सामग्री के अध्ययन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि यह विधा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और इसकी महत्ता, मूल्यवत्ता समय के साथ–साथ बढ़ती ही जाएगी। गागर में सागर भरने का काम लघुकथा का होगा, छोटी–सी टिकिया या कैप्सूल में जीवन रस संचित करने का काम लघुकथाकार का होगा। अब तो यह रचनाकार की क्षमता–सामर्थ्य पर निर्भर करता है कि वह लघुकथा को ढिबरी बनाए या दीपक लालटेन बनावे या पैट्रोमैक्स, मरकरी बनाए या वेपर लैंप, तारा बनाए या चंदा। यदि लघुकथा यह सब नहीं कर पाती है तो दोष लघुकथा का नहीं रचनाकार का है।
इस तरह इस निष्कर्ष पर मैं पहले ही पहुँच चुका था पर इन लघुकथाओं के बीच से गुजरते हुए मेरा यह निष्कर्ष और भी प्रबल–पुष्ट दृढ़–पक्व हुआ है। अब देखिए, इन सभी रचनाकारों ने लघुकथा विधा को अपनाया है पर इनमें भी तीन या चार कोटि की रचनाएँ हो गई हैं। कुछ तो ऐसी हैं जो प्रथम कोटि की हैं, जो सर्जना की सारी शर्तों को पूरा करती है और अपनी स्थायी प्रभावशीलता में किसी भी साहित्यिक कृति, किसी भी श्रेष्ठ कविता, कहानी से टक्कर ले सकती हैं। इनमें इन लघुकथाओं का नाम लिया जा सकता है–
1. खोया हुआ आदमी, 2.वापसी, 3. प्रायश्चित, 4.माँ, 5. मेरी का प्रतीक, 6. ड्राइंग रूम, 7. संरक्षक, 8. एहसास, 9, .श्रम, 10.सहानुभूति, 11. फिसलन, 12. संरक्षक।
मैं यहाँ साफ कहना चाहता हूँ कि मैंने इन रचनाओं की कोटियाँ कोई अचूक तराजू पर तौलकर नहीं तय की हैं, पढ़ते वक्त जिन रचनाओं का जैसा प्रभाव मेरे मनमस्तिष्क पर पड़ा उसी के अनुसार ये कोटियाँ तय हुई हैं–इसमें परिवर्तन की काफी गुंजाइश हैं हो सकता है कहीं–कहीं पर ठीक से समझने या मूल्यांकन करने में भी कुछ कमी रह गई हो–हो सकता है मूल्यांकन–क्रम में मेरी अपनी मन:स्थिति की भी आंशिक भूमिका हो या हो सकता है मेरी अपनी ही दृष्टि किसी दृष्टि से दोषपूर्ण होतो इन सारे किंतु परन्तु, इन सारे अगर–मगर को लेते हुए मैंने इन्हें कोटिबद्ध या श्रेणी बद्ध करेन की कोशिश की है। मैं चाहूँगा कि सर्जक या समीक्षक या सुधी पाठक मेरी मूल्यांकनदृष्टि का दोष बतला कर अपने दोष निवारण में मेरी सहायता करें क्योंकि हमारी सबकी, जो साहित्य स्वादन, सर्जन–समीक्षण से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं–उन सबका अंतिम ध्येय यही है–अपूर्णता से पूर्णता की ओर यात्रा, दोषपूर्णता से दोष–राहित्य या निर्दोषता की ओर अधिगमन–अभियान। रचनाकार को यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि उसकी रचना सर्वथा निर्दोष है और न ही समीक्षक को यह भ्रम पालना चाहिए कि उसकी समीक्षण–दृष्टि सर्वप्रकारेण सर्वतोभावेन दोषरहित है, पूर्णता प्राप्त है।‘मुनीनाच्च मतिभ्रम:’ मुनियों–देवताओं को भी मति भ्रम हो जाता है तो ‘का कथ मनुष्याणाम्’ तो साधारण मनुष्य का क्या कहना! मगर कि हम अधूरेपन से बराबर पूरेपन की ओर अग्रसर होते रहें–उसी में हमारे, आपके, सबके जीवन की सार्थकता है और सर्जना–समीक्षण से जुड़े हम सबों का तो एक विशेष दायित्व ही बनता है इस मानी में।
इन्हीं शब्दों के साथ अब मैं आप लोगों से अपनी पूरी बात, अपने दिल की बात कहकर विदा ले रहा हूँ और अंत में भी इन सभी लघुकथाकारों एवं सतीश राज पुष्करणा को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ, आप सबों ने मिलकर मुझे इतना सब कुछ देखने–परखने जानने–सुनने–कहने का मौका दिया। आप फिर मुझे ऐसा मौका देंगे इसी आशा के साथ विदा लेता हूँ ।