आखिर लघुकथा क्या है? उसे कथा या कहानी से अलगाने वाले लक्षण क्या हैं? उसकी अपनी विशिष्ट पहचान क्या है? वह उत्पन्न क्यों हुई है और इतना जोर क्यों पकड़ रही है? आदि जिज्ञासाएँ सुधीजनों के मन में उभर रही हैं। लघुकथाएँ देखकर लगता है कि लघुकथा कथा तो है ही, उसमें घटनाओं, पात्रों, स्थितियों आदि का होना भी अनिवार्य है। कथा–कहानी को जिस रूप में अब तक जानते आए हैं, वह उससे भिन्न है। उसकी निजता को स्थापित करनेवाली एक प्रमुख विशेषता उसकी आकारगत लघुता है। लघुकथा में ‘कथा’ से पहले लगा हुआ ‘लघु’ विशेषण उसकी इस विशेषता का द्योतक है। कहानी की तुलना में लघुकथा बहुत छोटी होती है। उसकी लघुता आकारगत है, कथ्यगत या गुणवत्तागत नहीं। यदि हम लघुकथा के नाम पर चलाए जानेवाले चुटकुलों–लतीफों आदि को छोड़ दे तो लघुकथा बिहारी के दोहों के समान छोटी दिखाई देने पर भी नावक के तीर की तरह गंभीर प्रभाव डालती है। उसमें बड़ी से बड़ी बात कम से कम शब्दों में कही जा सकती है। लघुकथा वस्तुत: छोटी घटना के बड़े अर्थ की कहानी है।
सफल लघुकथा के लिए आवश्यक है कि कम शब्दों में बड़ी बात कहें। यह काम सरल नहीं है। जरा–सी बात को फुलाकर पाठकों के साथ शब्द–छल करना आसान है। तमाम लोग इस आसान काम में लगे हुए हैं, लेकिन बड़ी बात को इस तरह कहना कि एक भी अतिरिक्त शब्द प्रयोग में न लाया जाए, बड़ी प्रतिभा की माँग करता है। बड़ी प्रतिभाएँ दुर्लभ होती हैं। लघुकथा लेखक के लिए समास–शैली को अपनाना अनिवार्य है। इसके बिना उसका काम चल ही नहीं सकता। उसके लिए आवश्यक है कि उसमें गहरी संवेदनशीलता और तीक्ष्ण बुद्धि हो। वह अपनी गहरी संवेदनशीलता के द्वारा मानव–सत्य को पकड़ सकेगा और तीक्ष्ण बुद्धि के द्वारा उपयुक्त उपादानों का चयन करके उसे प्रभावशाली अभिव्यक्ति दे सकेगा।
लघुकथा आज के व्यस्त जीवन की उपज है। मनुष्य का जीवन जटिल और व्यस्त होता जा रहा है। आधुनिक मनुष्य के पास सब कुछ है; बस, समय नहीं है। अत:वह चाहता है कि वह जो कुछ जाने, सूत्र–रूप में जाने; वह जो कुछ सूत्र–रूप में कहें,उसका मनोरंजन तो तुरंत हो; वह पलक झपकाने भर के समय में हार–जीत का, लाभ–हानि का, सुख–दुख का निर्णय कर लेना चाहता है। आज के मनुष्य की इस व्यवस्ता और प्रवृत्ति ने ‘फास्टफूड’ और ‘इंस्टेंट’ पेयों को जन्म दिया है। लघुकथा भी इसी में से जन्मी है। मनुष्य की व्यवस्तता कम होने नहीं जा रही है। इसलिए लघुकथा के फलने–फूलने की पूरी संभावनाएँ हैं। इस संदर्भ में देखें तो इस समय लघुकथा को गंभीरतापूर्वक लेनेवाले लेखक बहुत कम हैं। इन्हीं कम लघुकथा लेखकों में से एक कमल चोपड़ा लघुकथा के प्रति गहरी निष्ठा रखनेवाले समर्पित व्यक्ति हैं। उन्होंने ‘हालात’, ‘प्रतिवाद’, ‘आयुध’, ‘अपवाद’, और ‘अपरोक्ष’ जैसे कई लघुकथा संकलनों का संपादन भी किया है।
कमल चोपड़ा की लघुकथाओं में विषय–वस्तुगत विविधता बहुत अधिक है। मनुष्य के जीवन के अधिकांश पक्षों को उन्होंने अपनी लघुकथाओं में अभिव्यक्त किया है। धर्म, राजनीति, अर्थ, सामाजिक संबंध, स्त्री की दुरवस्था, ऊँच–नीच, छुआ–छूत, अंधविश्वास, मानवीय संबंधों में क्रूरता, घोर स्वार्थपरता आदि तमाम चीजों को उन्होंने अपनी लघुकथाओं मं अभिव्यक्त किया है। ‘धर्मयुद्ध’ में उन्होंने दिखाया है कि स्वार्थी लोग किस प्रकार धर्म का अपनी स्वार्थ–सिद्धि के लिए दुरुपयोग करते हैं। वे यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि धर्म मनुष्य से बड़ा है। पूँजीपति और मजदूर के संबंधों को लेकर उन्होंने कई लघुकथाएँ लिखी हैं। ‘कायदे–बेजरूरत’, ‘अब नहीं चलेगा’ जैसी कथाओं में उन्होंने ‘जानवर’ में दिखाया है कि अमीरों के लिए गरीब आदमी जानवर होता है। उनकी कथाओं में सामाजिक विषमता के विविध रूप उभरकर सामने आए हैं। ‘मनोरंजन’ के चौधरी साहब अपने फार्म पर अपने पौने तीन साल के पुत्र को भी ले जाते हैं। वे जब फूलों की क्यारी के पास कुर्सी पर बैठकर हवा खाने लगते हैं, तभी उनका पुत्र रोने लगता है। उसे चुप कराने का प्रयत्न करते हुए वे फार्म के दरवाजे पर आते हैं, जहाँ मनीराम का लड़का सत्तू गोबर इकट्ठा कर रहा है। वे पहले उसे अपने पास बुलाकर चाँटा मारने का अभिनय करते हैं। चौधरी साहब का पुत्र बिट्टू इस पर हँसने लगता है। वे सत्तू को सचमुच मारने लगते हैं। वे उसे मारते ही नहीं, बल्कि उसे उलटा लटका देते हैं और पीटते हैं। वह बेहोश हो जाता है तो उस पर आम चुराने का आरोप लगाते हैं। यह सामाजिक–आर्थिक विषमता ही तो है, लेकिन कथाकार यहीं नहीं रुक जाता। वह भैंस चरानेचाला गंगाराम और उसके साथियों से चौधरी साहब की पिटाई करवाता है। यह कथाकार की सामाजिक संचेतना है; किंतु कथा का सौंदर्य इन वाक्यों की व्यंजना में निहित है : ‘चौधरी साहब बिलबिला रहे थे। वहाँ जमा गाँव के बच्चे खिलखिलाते हुए उछलने लगे थे और पास ही खड़े उनके अपने साहबजादे बिट्टू जी भी खिलखिलाते हुए तालियाँ बजा रहे थे।’ चौधरी साहब के पिटने पर बिट्टू के खिलखिलाते हुए तालियाँ बजाने का अर्थ है मनुष्य मात्र की मौलिक समानता गरीब और अमीर का, छोटे और बड़े का भेद तो मानवकृत है, विशेष प्रकार की समाज–व्यवस्था की देन है। शोोषण पर आधारित समाज–व्यवस्था के कारण ‘अमरबेल’ के अमरसिंह जैसे लोग थोड़ी–सी पूंजी लगाकर सैकड़ों का शोषण करते हैं और ‘सारा दिन अपने बंगले में मौज–मस्ती करते हैं।’ रिक्शा खींचनेवालों की दुर्दशा का कारण चाचा अमरसिंह की दृष्टि में भाग्य, लेकिन गाँव में नया–नया दिल्ली से आया दुर्गा जानता है कि ‘दूसरे को चूसे बिना और सहारे कौनो बेल अमर नाहीं हो सकते है।’ कथाकार की सामाजिक संचेतना उससे ऐसी कथाएँ लिखवाती हैं, जिसमें सामाजिक यथार्थ का चित्रण भी है और सही जीवन–बोध भी।
तमाम समकालीन रचनाकारों के समान कमल चोपड़ा भी समकालीन राजनीति के प्रति असंतुष्ट हैं, जैसा कि इस देश का सामान्य नागरिक अनुभव करता है, वे भी अनुभव करते हैं कि राजनीति से जुड़े नेताओं में सत्ता प्राप्त करने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। किसी निरीह और निर्दोष की हत्या करवा सकते हैं। ऐसी हत्याओं के द्वारा आतंक और हाहाकार फैला सकते हैं। हत्याओं केलिए विरोधी नेताओं पर आरोप लगा सकते हैं। स्वयं हत्या करवाकर उसके लिए जुलूस निकाल सकते हैं। सत्ता की राजनीति ने इंसानों को हैवान बना दिया है। यह आज का राजनीतिक यथार्थ है। इस यथार्थ का क्रूरतम उदाहरण चीन में हजारों विद्यार्थियों को ‘जन–रक्षक सेना (?) के द्वारा सत्ता–लोलुपों द्वारा मरवा देना है। चीन के छात्रों और नागरिकों का दोष इतना है कि उन्होंने स्वाधीनता और जनतंत्र की मांग की थी। सत्ता–लोलुपों की क्रूरता का जवाब जन–जागरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
कमल चोपड़ा की लघुकथाएँ उनकी गहरी संवेदनशीलता और सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक पैठ का पता देती हैं। ‘पुरस्कार’ शीीर्षक कथा में छोटू की भावनाओं का जो चित्रण अनेक कथाओं में जटिल मानवीय भावनाओं को बड़ी सहजता से पकड़ा और व्यक्त किया है। प्रमाणस्वरूप ‘सब कुछ ले लो’ कथा को प्रस्तुत किया जा सकता है। एक ओर बेहोश पिता के प्रति पुत्र की भावनाएँ हैं कि वह पिता के इलाज पर अधिक धन खर्च करना व्यर्थ समझता है और अस्पताल में उन्हें लावारिस छोड़कर चुपचाप खिसक जाता है; दूसरी ओर पिता की भावनाएँ हैं कि होश में आते ही वे बेटे की कुशल–क्षेम के लिए व्याकुल हो उठते हैं : ‘‘कोई मेरे बेटे को बुला दो रे !.....सिर्फ़ एक बार मिलवा दो।’’
‘‘शांत रहिए, आपका बेटा ठीक–ठाक है। उसे मामूली चोटें आई हैं।’’
‘‘तुम झूठ बोलते हो।....उसे जरूर चोटें लगी होंगी।.....तुम मेरा दिल रखने को झूठ बोल रहे हो। हाय रे! हाय रे! मदन रे! मेरे बेटे !....मेरा सब कुछ ले लो। मेरा मकान बेच दो।....मेरे बेटे को ठीक कर दो।’’
पिता और पुत्र की भावनाओं का यह विरोधी रूप हमारे जीवन का मनोवैज्ञानिक यथार्थ है। इसका कारण यह है कि पुत्र भविष्योन्मुख होता है। वह अपने लिए, अपनी पत्नी और संतान के लिए जीता है। अत : उसे अपनी और अपने बीवी–बच्चों की चिंता अधिक होती है। पुत्र के लिए माता–पिता तो अतीत हैं, उपयोगिताहीन बोझ ! अत : वह उनके लिए चिंतित नहीं होता। यदि वह उनके प्रति चिंता दिखाता है तो समाज के नैतिक आतंक से, कड़वे कर्त्तव्य के वशीभूत होकर। जहाँ यह नैतिक आतंक समाप्त हो जाता है, जैसे अमेरिका में, एक सीमा तक हमारे शहरी समाज में; वहाँ पिता के प्रति पुत्र का उपेक्षा भाव ही प्रबल होता है। ‘असलियत’, ‘किराया’, ‘इस तरह’ इत्यादि लघुकथाओं में कमल चोपड़ा ने ऐसी ही मनोवैज्ञानिक पकड़ का परिचय दिया है।
अपनी मनोवैज्ञानिक पैठ, गहरी संवेदनशीलता और प्रगतिशील सामाजिक दृष्टि के कारण कमल चोपड़ा अपनी लघुकथाओं में मानवीय भावनाओं और संबंधों में आई अमानवीयता को रेखांकित कर सके हैं। ‘खुला हुआ बँधुआ’, ‘जीने वाले’, ‘अभी गुंजाइश है’, ‘निर्जन वन’, ‘दर’ इत्यादि लघुकथाओं में दिखाया गया है कि पति–पत्नी, डॉक्टर–मरीज, मकान मालिक–किरायेदार, मालिक–नौकर, शहर में मनुष्य–मनुष्य के बीच के संबंधों में मानवीयता धीरे–धीरे समाप्त हो रही है या हो गई है। ‘अभी गुंजाइश है’ के डॉक्टर जगन्नाथ मृत बच्चे के इलाज के नाम पर उसके माँ–बाप को ठगते हैं। वे सदय होने का नाटक सफलतापूर्वक करते हैं; लेकिन कथा के अंत में उन्हीं मां–बाप से लिए गए पैसे वापस करवाता है। इससे स्पष्ट है कि कथाकार केवल यथार्थ का चित्रण नहीं करता, अपनी आस्था को भी व्यक्त करता है। समकालीन समाज में व्याप्त, मूल्यहीनता, अनाचार, अत्याचार, झूठ, बेईमानी, शोषण, अमानवीयता, स्वार्थपरता आदि के बावजूद उसने मनुष्य की मनुष्यता के प्रति अपने विश्वासको नहीं खोया है। किसी को इस विश्वास को खोना भी नहीं चाहिए। भ्रष्ट से भ्रष्ट समाज में भी मनुष्यताहीन मनुष्यों की संख्या हमेशा कम होती है। यदि किसी समाज में मनुष्यहीन मनुष्यों की संख्या अधिक हो जाएगी तो वह समाज नहीं बच पाएगा। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी ऐसे मनुष्यों की संख्या सीमा से आगे बढ़ी है तो उस समाज में भारी उथल–पुथल हुआ है, समाज का कायाकल्प हुआ है और उसने पुनरुज्जीवन प्राप्त किया है। अत : निराश होने की जरूरत नहीं है। कथाकार निराश नहीं है, यह अच्छी बात है।
जैसे कमल चोपड़ा की लघुकथाओं का वस्तु–जगत व्यापक, गंभीर और सूक्ष्म है, वैसे ही उनके पास सक्षम अभिव्यक्ति–कौशल भी है। कहीं–कहीं भाषा में शिथिलता अवश्य आ जाती है। इसके बावजूद उन्होंने समर्थ शिल्पगत प्रविधियों से काम लिया है। व्यंजना उनकी लघुकथाओं का प्राण हैं वे अपनी बात को वक्तव्य के रूप में कहने की अपेक्षा व्यंजित करना अधिक पसंद करते हैं। उनकी एक कथा है ‘है कोई?’। इस कथा में दो घटनाएँ हैं : एक आदमी महीने–भर का छोटा–सा वेतन लेकर जा रहा है कि एक लुटेरा उसकी गर्दन पर चाकू रखकर कहता है : ‘‘चुपचाप पैसे निकाल कर मेरे हवाल कर दे, वरना....।’’ दूर से एक बस्तीवाला इस दृश्य का देखता है और लुटेरे से बचाव के लिए चिल्ला पड़ता है। उसकी चिल्लाहट सुनकर लोग दौड़ पड़ते हैं। घबराहट में लुटेरे का चाकू गिर पड़ता है। लुटेरा पकड़ा जाता है और खूब पिटता है। लुटनेवाले की खून–पसीने की कमाई बच जाती है। जब वह अपनी झोंपड़ी पर पहुँचता है तो वहाँ नारायण सेठ आ धमकते हैं। सेठ जी से उसने एक बार सौ रुपए दस रुपए सैकड़ा पर उधार लिए थे। वह तीन–चार साल से पैंतालीस–पचास रुपए प्रति माह की किस्त दे रहा है, लेकिन सेठ जी कर्ज उतना का उतना ही बना हुआ है। सेठ जी उसकी झोंपड़ी पर आकर कहते हैं : ‘‘चुपचाप पैसे निकाल कर मेरे हाथ पर रख, वरना....।’’लुटेरे और सेठ की माँग में कितना साम्य है! जब सेठ उससे पैसे माँग रहे थे,तब बस्ती के कुछ लोग वहाँ आ जुटे थे, लेकिन उसे बचानेवाला कोई नहीं था। फिर भी किसी उम्मीद से उसने पुकारा, ‘‘है कोई, तो मुझे बचाओ रे!’’ लुटेरे और सेठ को आमने–सामने रखकर कथाकार ने कह दिया है कि सेठ लुटेरे से बड़ा लुटेरा है। यह खुलेआम लूटता है, चाकू भी नहीं दिखाता है, और उससे काई बचा भी नहीं सकता! वह सम्मान के साथ लूटता है और लुटने वाला उसके सामने बिलकुल लाचार हैं।
कमल चोपड़ा की अनेक कथाएँ अप्रत्याशित और चमत्कापूर्ण अंत वाली हैं। ‘एक उसका होना’ कथा के ठाकुर साहब कुशलता से ट्रक के नीचे काशीराम को कुचलवाकर उसके घर सहानुभूति प्रदर्शित करने जाते हैं। उम्मीद तो यह है कि वे सहानुभूति दिखाकर उसकी पत्नी और बच्चों को प्रभावित कर लेंगे, लेकिन होता इसका उलटा है। ठाकुर साहब वहाँ पहुँचे तो काशीराम के लड़कों ने मुहँ बिचका दिया। वहाँ उपस्थित छोटे–छोटे लोगों ने ठाकुर साहब को कोई महत्त्व नहीं दिया। अपने आप पर काबू रख वे काशीराम की घरवाली के पास पहुँचे और धीरज बँधाते हुए बोले, ‘‘हिम्मत रखो, मेरे होते हुए तुम्हें किस बात की चिंता है?’’ काशीराम की घरवाली एकाएक रोते–रोते चुप हो गई और बोली, ‘‘ठाकुर साहब ! एक आपके होने की ही तो चिंता है!’’ कमल चोपड़ा की लघुकथाओं की यह चर्चा हमें इस बात के प्रति आश्वस्त करती है कि हिंदी पाठकों को उनसे श्रेष्ठ लघुकथाएँ पढ़ने के लिए मिली हैं और भविष्य में वे अपनी कला को और अधिक माँजेगे, उसमें और निखार लाएँगे।