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अध्ययन-कक्ष - सम्पादक की बात –राजकिशोर
सम्पादक की बात –राजकिशोर
‘बच्चे और आप’
‘बच्चे और आप’ श्री राज किशोर द्वारा सम्पादित एवं ‘वाणी प्रकाशन 21-ए ,दरियागंज ,नई दिल्ली -110002’ से प्रकाशित एक क्रान्तिकारी एवं व्यावहारिक पुस्तक है ।अभिभावक और शिक्षा से जुड़े सभी लोगों को यह पुस्तक अनिवार्य रूप से पढ़नी चाहिए । बच्चों का जीवन बेहतर होगा तो यह संसार बेहतर होगा ।इस पुस्तक से कतिपय अंश यहाँ दिए जा रहे हैं ; जिसके लिए हम सम्पादक एवं प्रकाशक के हृदय से आभारी हैं ।

सम्पादक की बात –राजकिशोर

सामाजिक जीवन की विद्रूपता का यह सिलसिला परिवार से ही शुरू हो जाता है। परिवार अगर जीवन की पहली पाठशाला है, तो यहाँ किन चीजों की शिक्षा दी जाती है? बच्चा क्या आँख खोलते ही सबसे पहले यही नहीं देखता कि जिस प्राणी के साथ उसका जीवन सबसे ज्यादा जुड़ा हुआ है यानी उसकी माँ यानी स्त्री की हैसियत परिवार के भीतर दूसरे दर्ज़े के नागरिक की है? शायद अन्याय, और उसके समक्ष असहायता, का पहला साक्षात्कार यहीं होता है। पिता की छवि परिवार के भीतर सम्राट या सामंत की छवि होती है। यही कारण है कि बहुत कम बच्चे किसी लोकतांत्रिक या समतामूलक चेतना के साथ बड़े हो पाते हैं। विद्यालय मानो परिवार का ही विस्तार बन जाता है, जहाँ बच्चे से यह उम्मीद की जाती है कि वह बड़ों की दुनिया में लागू प्रतिद्वंद्विताओं के नियम जल्द से जल्द सीख ले। इस प्रक्रिया में ज्ञान और कला का सारा आनंद जाता रहता है और वे एक बोझ की तरह बच्चे के सुकुमार मानस पर टूट पड़ते हैं। इस तरह बचपन का आनंद संस्कृति को ग्रहण करने के दौरान नहीं, बल्कि जहाँ तक संभव हो, संस्कृति के बाहर रहने में पैदा होता है। अच्छी सभ्यता वही होगी, जिसमें बचपन और संस्कृत के बीच संघर्ष की स्थितियाँ कम से कम हों।

1-यदि आपका बालक आपसे कहे- गिजु भाई

मान लीजिए कि आपका बालक आपसे कहे कि पिताजी, मैं यहाँ लिख रहा हूँ। जोर–जोर से बातें करके आप मेरे लिखने में रुकावट मत डालिए।
मान लीजिए कि आपका बालक आपसे कहे कि आज तो मेरे मित्र मुझसे मिलने आए हैं, इसलिए मैं भोजन देर से करूँगा।
मान लीजिए कि आपका बालक आपसे कहे कि आप बड़े–बूढ़े लोग अपने काम नियमित रूप से नहीं करते हैं, सो ठीक नहीं है।
मान लीजिए कि आपका बालक आपसे कहे कि आज विद्यालय जाने में मेरा मन अलसा रहा है, इसलिए मेरे शिक्षक के नाम आप चिट्ठी भेज दीजिए कि मैं आज विद्यालय नहीं पहुँचूँगा।
मान लीजिए कि आपका बालक आपसे कहे कि यह अच्छा नहीं है कि आपके कपड़े गंदे रहें,और आपके जूते धूल–भरे रहें। हमें यह अच्छा नहीं लगता। आपके समान बड़ों को यह शोभा नहीं देता।
मान लीजिए कि आपका बालक आपसे कि माताजी, आप इस तरह झूठ मत बोलिए। झूठ बोलने से पाप लगता है कल से आप सच ही बोलिए।
मान लीजिए कि आपका बालक आपसे कहे कि पैसे इस तरह बरबाद करते रहने के लिए नहीं हैं। निकम्मी पुस्तकें, कपड़े और ऐसी दूसरी चीजें खरीदते रहना उचित नहीं ।
मान लीजिए कि आपका बालक आपसे कहे कि आपको हमारे साथ सही बर्ताव करना आता नहीं है, इसलिए बालकों के साथ कैसे बर्ताव करना चाहिए, इसको झेलने के लिए आप अमुक पुस्तक पढ़ लीजिए।
मान लीजिए कि आपका बालक आपसे कहे कि पिताजी और माताजी! यदि आप दोनों आपस में लड़ेंगे,तो हम आपको घर में नहीं आने देंगे, और आपका भोजन भी बंद कर देंगे।
मान लीजिए कि आपका बालक आपसे कहे कि पिताजी आप अपना काम–धंधा अच्छी तरह करना जानते नहीं हैं, इसलिए आपको काम–धंधा सिखानेवाला कोई शिक्षक हमें लगाना होगा।
:(माँ-बाप की माथापच्ची)

2-मस्तराम कपूर
बाल साहित्य का दुर्भाग्य यह रहा है कि इसमें गंभीर चिंतन हुआ ही नहीं। साहित्य के बड़े आचार्यों ने इसे छुआ भी नहीं, क्योंकि यह कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ने–पढ़ाने का विषय नहीं था। छोटे बच्चों की शिक्षा या बौद्धिक विकास के साथ जिनका संबंध होता है, वे इतने कम पढ़े होते हैं कि वे इसकी आवश्यकता ही नहीं समझते। इस देश में शिक्षा का दिशा–निर्देश ‘हरफन मौला’ अफसर करते हैं, जिन्हें सोचते की कभी फुर्सत नहीं मिलती, क्योंकि उन्हें शिक्षा के बने–बनाए सूत्र बाहर से मिल जाते हैं। यही कारण है कि हमारी शिक्षा कुल मिला कर बच्चों में विविध प्रकार की जानकारी को ठूँसने का प्रयत्न करती है। वह बच्चे को ‘कम्प्यूटर’ बनाने की कोशिश करती है। किंतु प्राप्त ज्ञान का विश्लेषण करके उसका उपयोग करने और उसके आधार पर सृजन करने की क्षमता का बच्चे में विकास नहीं करती। करेगी भी कैसे? जब उसका माध्यम ही बच्चे की अपनी भाषा नहीं तो उसमें सृजन कैसे होगा?

मेरा विश्वास है कि जो काम शिक्षा का सारा ढाँचा नहीं कर सकता, उसे बाल साहित्य का लेखक कर सकता है। बाल साहित्य बच्चे की एक बहुत बड़ी जरूरत हैं ।बच्चे के लिए साहित्य की पुस्तकें वह काम कर सकती हैं जो माता–पिता भी नहीं कर सकते और स्कूल–शिक्षा भी नहीं कर सकती। जैसा कि मैंने पहले कहा, ढाई वर्ष की अवस्था से बच्चे की मूल प्रवृत्तियों का निर्माण होने लगता है और स्कूल प्रवेश से पहले–पहले उसकी मूल प्रवृत्तियाँ निश्चित हो जाती हैं। इस नाजुक अवस्था में बच्चे को विविध प्रकार के साहित्य की आवश्यकता पड़ती है। वैसे सामान्ययता बच्चे की छह मूल आवश्यकताएं हैं, जिनकी पूर्ति बाल साहित्य से होती है। ये आवश्यकताएं हैं:–1.सुरक्षा की आवश्यकता, 2.आत्मीय संबंध की आवश्यकता, 3.प्यार करने और प्यार पाने की आवश्यकता, 4.कुछ प्रशंसनीय कार्य करने और उसकी स्वीकृति पाने की आवश्यकता, 5.नीरसता से मुक्ति की आवश्यकता और 6. सौंदर्यनुभूति की आवश्यकता। बच्चे की इन मूल आवश्यकताओं की पूर्ति का सबसे शक्तिशाली माध्यम अच्छा बाल साहित्य ही है। पारिवारिक जीवन की अस्त–व्यवस्तता के कारण माता–पिता को इनकी ओर ध्यान देने की फुरसत नहीं होती है और अध्यापक का लक्ष्य ही परीक्षा पास कराना होता है। ऐसे स्थिति में अच्छी साहित्यिक पुस्तकें ही बच्चे का मार्गदर्शन करती हैं।
:(बच्चे को समझने की एक कोशिश)

3-कृष्ण कुमार
बच्चे उपयोग और खेल की चीज़ों में भेद नहीं करते, फिर भी यदि मुझे ‘खिलौना’ शब्द की व्याख्या करनी हो तो मैं कहूँगा कि बच्चे जो चीजें स्वयं बनाते हैं, वे ही असली खिलौने होते हैं। रेत के घर और किले, मिट्टी की गुडि़या,कपड़े की गेंद, डिब्बों की रेल, शीशियों के घर और इस तरह की तमाम अन्य चीजें उनकी जिजीविषा का सुबूत होती हैं। बाजार में बिकनेवाले खिलौने, खास तौर से महँगे, रंग–बिरंगे, जादुई खिलौने, विशेषज्ञ वयस्कों की सूझबूझ का परिणाम होते हैं। बच्चे उनके जीवन का अंग वे चीजें ही बन पाती है जिन्हें वयस्कों द्वारा प्रशासित और व्यवस्थित दुनिया में से बीन कर लाते हैं और अपने अजूबे के डिब्बे में रखते हैं।
अजूबों का डिब्बा संपन्न बच्चे भी रखते हैं और गरीब बच्चे भी, पर गरीब बच्चों के अजूबे सचमुच अजूबे होते हैं क्योंकि वे जीवन के उपयोग की अत्यंत साधारण सामग्री में से तलाशे गए होते हैं और केवल संदर्भ बदल जाने के कारण अजूबे बन जाते हैं। इसके विपरीत, संपन्न बच्चों के अजूबे कुछ निश्चित प्रकार के सामान से निकाले गए होते हैं । उनमें अक्सर पुराने खिलौनों की टूट–फूट शामिल होती है या फिर बटन, पैंसिलें, धागे आदि होते हैं। गरीब बच्चों को अपने मनोरंजन की वस्तुएँ श्रम और मनोयोग से इकट्ठी करनी पड़ती हैं, इसलिए उनके रख–रखाव में गहरा धैर्य और प्रेम दिखाई देता है, चाहे वे लकड़ी के टुकड़े हों या बोतलों के ढक्कन। गरीब बच्चे के सामने एक पूरी दुनिया होती है, जिस पर दूसरों का आधिपत्य है। इस दुनिया द्वारा सामने एक पूरी दुनिया होती है, जिस पर दूसरों का आधिपत्य है। इस दुनिया द्वारा बेकार घोषित कर दी गई सामग्री में से वह अपने लिए उपयोगी चीजें तलाशता है। संपन्न बच्चे के लिए दुनिया पराई नहीं होती, वह एक छोटी–सी रंगीन दुनिया का मालिक स्वयं होता है। महँगे से महँगे खिलौने तक उसकी पहुँच अपने अभिभावक के मार्फ़त होती है। इस आसान पहुँच का उसकी खेल शक्ति पर कैसा असर पड़ता है, इस प्रश्न का उत्तर रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने एक व्याख्यान–लेख ‘सभ्यता और प्रगति’ में दिया है। रवींद्रनाथ मानते थे कि खिलौना जितना अपूर्ण और अविकसित होगा बच्चे को उससे उतना ही अधिक आनंद प्राप्त होगा। उनके अनुसार बच्चे की कल्पना का पूर्ण व्यायाम तथा प्रशिक्षण तब होता है, जब वह स्वयं किसी आकृति या क्रिया का आविष्कार करता है और उसकी कमियों से एक तरह का मानसिक समझौता करता है। समझौता करते हुए बच्चा अपने आपसे बात करता है और अपनी सामर्थ्य, संभावना और कल्पना को एक साथ इस्तेमाल करता है। महँगे, सजीव खिलौनों से खेलते हुए वह ऐसे किसी समझौते की आवश्यकता महसूस नहीं कर पाता, इसलिए समझौते से मिलनेवाले लाभों से वंचित रह जाता है।
:(खिलौनों का ह्रास)
4-मधु जैन
बच्चे को ऐसे ‘असामान्य’ सामाजिक आचरण’ को मनोवैज्ञानिक लोग आक्रामकता कहते हैं। स्कूलों से डॉक्टरों के पास भेजे जानेवाले ऐसे मामलों को तादाद बढ़ रही है। दिल्ली में स्कूली बच्चों की सलाह–मशविरा देनेवाले पारिवारिक, चिकित्सक बिंदु प्रसाद कहते हैं, ‘पिछले पाँच वर्षों में खासा बदलाव आया है। बच्चों में हताशा सहने की क्षमता काफी घट गई है। यहाँ तक कि नर्सरी कक्षाओं का बच्चा भी अब यही चाहता है कि उसकी बारी पहले आए।’
ऐसे अभिभावकों की भी तादाद काफी बढी है, जो अपने बच्चों की इस आक्रामक प्रवृत्ति के कारण मनोचिकित्सकों की मदद ले रहे हैं। दिल्ली के विद्यासागर स्वास्थ्य और तंत्रिका विज्ञान संस्थान (विमहांस) में बाल मनोविज्ञानी दिव्या सिंहल कहती हैं, ‘कई अभिभावक तो इसलिए बच्चों को यहाँ लाते हैं क्योंकि उनके मुताबिक, बच्चे मुश्किलें पैदा करते हैं और वे उन्हें सँभाल नहीं सकते।’ चिकित्सक आकाश धर्मज बताते हैं कि कई अभिभावक बच्चों को रिश्तेदारों या दोस्तों के यहाँ छोड़ आते हैं।अब बच्चे भी इस दिशा में पहल करने लगे हैं। आर.के. पुरम स्थित दिल्ली पब्लिक स्कूल की सलाहकार इतिश्री भट्टी के मुताबिक, बच्चे महसूस करने लगे हैं कि कहीं–न–कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है–‘कई–कई दिन वे किसी से बात नहीं करते, अपने में ही खोए रहते हैं। यह गुस्से का ही दूसरा रूप है।’
इस कुंठा और आक्रामकता का बीज भी घर में ही बोया जाता है। बकौल आर.के. सिंह, ‘बच्चों और पत्नियों की पिटाई करते हैं।’ शोध भी इसकी पुष्टि करते हैं। स्कूल जानेवाले छह से आठ साल के 200 बच्चों पर पंजाबी विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में ऐसे 80 फीसदी बच्चों ने माना कि उनके माँ–बाप या तो मारपीट करते हैं या एक–दूसरे के प्रति तल्ख रहते हैं।
:(यह लावा कहाँ से आता है)

5-अमिता जोशी
किसी भी बच्चे की सबसे आधारभूत जरूरत होती है प्यार, ममता और वात्सल्य । यह जरूरत प्रशंसा, पहचान, मान्यता, शाबाशी आदि के जरिए पूरी होती है। इसके साथ ही बच्चा स्वयं भी इस प्यार को बाँटना चाहता है। यानी वह प्यार पाना भी चाहता है और देना भी। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जरूरत है, जिसके पूरा न होने पर वह तनावग्रस्त हो जाता है। जिस तरह उसे प्यार देना जरूरी है, उसी तरह उसके प्यार को स्वीकार करना भी जरूरी है। प्यार न मिलने पर जो कुंठा पैदा होती है, उतनी ही कुंठा तब पैदा होती है जब प्यार लेनेवाला मौजूद न हो।
दूसरी महत्त्वपूर्ण जरूरत है कुछ नया खोजने और करने की। नये–नये अनुभव पाने की चाहत जन्म से मृत्यु तक रहती है। छोटे बच्चों की यह चाहत अपने खिलौनों के साथ नये प्रयोग करने, बटन दबाने, चीजों को खोलकर देखने आदि से पूरी होती हैं अक्सर बच्चे बोलने या आवाज करनेवाले खिलौनों को खोल कर या तोड़ कर देखना चाहते हैं, ताकि वे उस ध्वनि के स्रोत का पता लगा सकें। वे अपने घर, अपने कमरे और अपने आस–पास के वातावरण की चीज़ों से कुछ नया खोजने में खुशी महसूस करते हैं। यही नहीं, कुछ बड़े बच्चे तो अपनी इस जरूरत या उत्सुकता को पूरा करने के लिए अपनी जिन्दगी भी दाँव पर लगा देते हैं। अनजान को जानने के लिए वे कहीं भी घुस या कहीं से भी कूद जाते हैं। यह जरूरत अत्यंत शक्तिशाली होती है। बच्चा कुछ नया हासिल कर अपनी अलग पहचान बनाना चाहता है। इससे उसे अपने अन्दर एक पूर्णता का आभास होता है।
:(तनाव की समस्या)

6-क्षमा शर्मा
बच्चों को नया उपभोक्ता बनाने के लिए जिस तरह से विज्ञापनों में बच्चों का इस्तेमाल किया जा रहा है, उसमें एक बात साफ नजर आती है कि आम बच्चे को जिन समस्याओं से गुजरना पड़ता है, उनकी तरफ से माता–पिता और स्वयं पीडि़त बच्चों का ध्यान हट जाता है। वे विज्ञापन की दुनिया को अपनी दुनिया समझ लेते हें।
लखनऊ में हुए एक अध्ययन में पता चला (राष्ट्रीय सहारा 6.6.98) कि दूरदर्शन और वीडियो गेम्स से घंटों चिपके रहने, स्कूलों से मिलनेवाले बढ़ते होमवर्क, प्रदूषण और खानपान में पोषक तत्वों की कमी के कारण बच्चों में आँखों की बीमारियाँ तेजी से बढ़ रही हैं। इसके साथ ही बच्चों की पीठ पर टँगे भारी बस्ते भी उनकी आँखों की रोशनी कम होने का एक प्रमुख कारण है।
विभिन्न नेत्र चिकित्सकों, बच्चों तथा अभिभावकों से बात करने पर यह बात सामने आई कि बच्चों में नेत्र रोगों के बढ़ने का मुख्य कारण गलत जीवन शैली तथा आँखों के स्वास्थ्य के बारे में जानकारी का अभाव है। चिकित्सकों के अनुसार टीवी देखना या कम्प्यूटर पर काम करना अपने आप में नुकसानदेह नहीं, लेकिन घंटों इससे चिपके रहने से आँखों पर दुप्प्रभाव पड़ता है। बच्चों के मानसिक विकास के लिए भी यह ठीक नहीं है ।
:(विज्ञापन और बच्चे)
7-उषा महाजन
बच्चों और माता–पिता के बीच के एक और पक्ष पर ध्यान देना जरूरी है और वह है पति–पत्नी के बीच परस्पर आपसी सामंजस्य। एक खुशहाल परिवार में ही बच्चे का समुचित शारीरिक और मानसिक विकास हो सकता है, जहाँ पति–पत्नी हमेशा तनावग्रस्त रहें, लड़ते–झगड़ते रहें, वहाँ बच्चों का कभी सामान्य विकास नहीं हो सकता और किसी न किसी रूप् में वे समस्याग्रस्त व्यक्तित्व के साथ बड़े होते हैं । बहुत कम ही माता–पिता समझ पाते हैं कि आज का बच्चा भी तनाव का उतना ही शिकार है जितने कि वे स्वयं। जाने–माने पत्रकार एवं लेखक खुशवंत सिंह, जिन्हें अक्सर केवल उच्छृंखल विषयों पर लिखनेवाला लेखक मान लिया जाता है, वे बच्चों को लेकर नितांत गंभीर विचार व्यक्त करते हैं, ‘किसी भी दंपति के जीवन में बच्चों के भविष्य से बढ़ कर और किसी भी चीज को प्राथमिकता नहीं मिलनी चाहिए। अगर अपने बच्चों को जन्म दिया है, तो उनका उचित ढंग से पालन–पोषण करना आपका फर्ज है। किसी भी माँ–बाप को यह हक नहीं मिलता है कि वे अपने तनाव अपने बच्चों को सौंपें। बच्चों के सामने माता–पिता को भूल कर भी लड़ना–झगड़ना नहीं चाहिए; क्योंकि इससे उनके कोमल मन पर बेहद बुरा असर पड़ता है और जीवन तथा समाज के प्रति उनका नजरिया प्रदूषित होने लगता है। ऐसे बच्चे कालांतर में हीन–ग्रंथि के शिकार बन सकते हैं और अपने आस–पास के समाज से तालमेल स्थापित करने में उन्हें दिक्कत आ सकती हैं अगर आप सही ढंग से साथ नहीं रह सकते, तो यह निर्णय आपको बच्चों को जन्म देने से पहले लेना होगा।

:(बच्चों के लिए समय)


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