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अध्ययन-कक्ष - डा सतीश दुबे
हिंदी लघुकथा का लंबा सफर: डा सतीश दुबे

प्रभावशाली ढंग से संक्षेप में कही गई बात अधिक असरदार होती है। उसके प्रति जन सामान्य की रुचि अधिक होती है, यह बात नई नहीं है, पर साहित्य के विधागत स्तर पर ऐसी बात कहने की परंपरा बहुत पुरानी नहीं है। यह सफर कब से शुरू होता है, इस ओर ध्यान देना साहित्य लिखनेवाले उन प्रात: स्मरणीय विद्वानों के वंशजों का काम है, जिन्होंने इस सशक्त विधा को अपने इतिहास के दायरे से बाहर रखा हुआ है।
आधुनिक हिंदी लघुकथा लेखन की सही शुरूआत आठवें दशक से मानी जाती है, इसलिए नहीं कि इस लेखन के प्रति एक बड़े लेखक–समूह का ध्यान आकृष्ट हुआ, बल्कि इसलिए कि हिंदी के एक बड़े पाठक–समूह ने इसके प्रभाव को स्वीकारा। इस तथ्य को नजरअंदाज करना बेईमानी होगी कि इस पूरे माहौल को तैयार करने में ‘सारिका’ के संपादक–रूप में कमलेश्वर की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। कमलेश्वर ने अपनी पत्रिका को ‘कहानियों और कथाजगत की संपूर्ण पत्रिका’ कहकर लघुकथा का ‘इस्तेमाल’ किया। यही वजह है कि कथा में नई रुचि का पाठक भी ‘सारिका’ का नियमित पाठक बना रहा। लघुकथा को महत्त्व देते हुए कमलेश्वर ने ‘कथा माध्यम के रूप में लघुकथाओं की उपलब्धि को भी नकारा नहीं जा सकता।’ लिखकर यह सिद्ध कर दिया कि ‘कथा–क्षेत्र में अधिक व्यापक और बड़े आयाम और परिप्रेक्ष्य की खोज ‘सारिका’ की परंपरा रही है।’‘सारिका’ द्वारा निर्मित इसी माहौल ने लघुकथा के संबंध में बंधे पुराने जाले झड़वाए तथा लघुकथा परंपरा के बीज खोजने के लिए अनुसंधित्सुओं का उत्साह वर्धन किया। यह सर्वविदित है कि कमलेश्वर का रुझान समय–सापेक्ष समांतर साहित्य की ओर रहा है, और वे इसके अगुआ भी रहे हैं। आदमी को टुकड़े–टुकड़े में न देखकर संपूर्ण रूप में देखने की उनकी लालसा रही है, किंतु वे आदमी की टुकड़ा–टुकड़ा जिंदगी को नकार भी नहीं सके। समांतर कहानी के माध्यम से तत्कालीन व्यवस्था पर चोट करना तथ समसामयिकता को शब्दों का जामा पहनाकर प्रस्तुत करना उनका लक्ष्य रहा, विसंगतियों तथा उससे जुड़े लोगों पर प्रहार करने की सशक्त ‘गोद’ उनको व्यंग्य लगी। व्यंग्य की मारक शक्ति समांतर कहानियों के माध्यम से आ पाना संपूर्ण प्रभाव की दृष्टि से संभव नहीं था, इसीलिए उसे भोथरा हथियार मानकर लघुकथा को दधीचि की हड्डी–सा महत्त्व दिया गया। ‘सारिका’ में प्रकाशित लघुकथा के क्रमिक विकास का अवलोकन किया जाए तो स्पष्ट होगा कि कथा–तत्त्वों के लोप के साथ जो लघुकथाएँ छपीं, जिनके कारण कमलेश्वर की नीति का विरोध हुआ, वह एकदम बाढ़ की तरह आई और मंत्री,नेता, विधायक को बहा ले गई। पाठकों ने इसमें कोई रुचि नहीं ली, क्योंकि यह लेखन वह नहीं था, जो पाठकों की चेतना से जुड़ता। लघुकथा जब पैरोडी बनने, हलका–फुलका मजा देने या चुटकुलों की श्रेणी में आने लगी तो लघुकथा के तेज–तर्रार लेखक समूह ने इसका वोरोध किया ।इस विरोध का एक बड़ा कारण यह भी था कि समान्तर समूह में ‘व्यवस्थावादी चाटुकार मानसिकता’ बढ़ती जा रही थी। कमलेश्वर के बोल को अनमोल बोल का रूप दिया जाकर लेखक बनने की होड़–सी चल पड़ी थी। उन्होंने कुछ बोला नहीं कि लघुकथा तैयार। उनके नाम से कुछ छपा नहीं कि लघुकथा तैयार। इस सबका नतीजा यह हुआ कि धीरे–धीरे ‘सारिका’ में छपनेवाली लघुकथाएं चुटकुले ही मान ली जाने लगीं। लघुकथा को विस्तृत आकाश देने के लिए उनके द्वारा निकाले गए लघुकथा विशेषांकों का व्यापक रूप में स्वागत हुआ, पर उसमें भी अधिकांशत: चुटकुले ही थे, पर प्रकारांतर से लघुकथा विधा को इन प्रयासों से बड़ा बल मिला।
‘सारिका’ का जुलाई, 1975 अंक अपनी एक और पहचान छोड़ गया, जिसमें लघुकथा की प्रभावक क्षमता पर स्याही पोती गई थी, सेंसर्ड सामग्री प्रकाशित कर इस अंक ने यह साबित करना चाहा था कि लघुकथा व्यवस्था के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बनती जा रही है। राजनीतिक दृष्टि से देश में यह समय असंतोष,अनास्था तथा अव्यवस्था का था। इस वातावरण पर कुछ भी असर नहीं था । व्यवस्था से जुड़े तथा कुर्सी पर बैठकर आम आदमी की जिंदगी से तानाशाही खिलवाड़ करने वाले चरित्रों का मुखौटा बेनकाब करना लघुकथा का उद्देश्य था, पर यह इतना भोंड़ा बन पड़ा कि रचनात्मक स्तर पर इसे स्वीकार नहीं किया जा सका। बहरहाल, इन लघुकथाओं से एक ओर जहाँ लेखन में माहौल बदला, वहीं समाज में मजा देनेवाली रचनाओं के रूप में ये जबान पर चढ़ी।
लघुकथा के इतिहास में ‘सारिका’ के लघुकथा–लेखन की यह पृष्ठभूमि इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि लघुकथा के शोधकर्मियों को, जो अभिमन्यु का सत्ता व्यूह’, ‘एक और अभिमन्यु’, ‘नीम चढ़ी गुरबेल’, ‘काल–पात्र’ और ‘अनावरण’ शीर्षक से लघुकथा–संग्रह मिले, वे इसी ‘छाप’ की रचनाओं को अपने गर्भ में समाहित किए हुए थे, ‘श्रेष्ठ लघुकथाएं’ संकलन भी ऐसे ही ताबड़तोड़ निकला संकलन था। ‘अनजाने ही अनायास कानपुर के एक प्रकाशक के अनुरोध पर तत्काल उपलब्ध मित्रों की रचनाओं की पांडुलिपि तैयार कर दी थी।’ (डॉ.पुणतांबेकर)। वस्तुत: इसमें ‘सारिका’ में प्रकाशित रचनाएँ ही थीं, वह व्यंग्य लघुकथा का पहला संकलन है, जिसको व्यापक समर्थन मिलने की बजाए बुराई का ठीकरा मिला। बलराम ने इस संकलन पर टिप्पणी करते हुए ‘ब्लिट्ज’ में ठीक ही लिखा था:‘....हिंदी लघुकथा का यह संकलन प्रतिनिधि और संपूर्ण संकलन होने से वंचित रह गया है।’
लघुकथा को एक अखिल भारतीय स्तर तथा प्रमुख प्रकाशन संस्थान की पत्रिका द्वारा दिए गए प्रचार–प्रसार का एक लाभ यह भी मिला कि देश के विभिन्न हिस्सों से प्रकाशित लघुपत्रिकाओं ने लघुकथाएँ भी छापना शुरू किया। इन पत्रिकाओं में प्रकाशित लघुकथाओं का तेवर ‘सारिका’ से अलग था। अब लघुकथाओं के विषय भी बदलते जा रहे थे । व्यवस्था या उससे जुड़े लोगों पर आक्रमण की एकरूपता भंग होने लगी थी। इसी माहौल के बीच एक अच्छा संकलन ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ आया। इस संकलन का प्रकाशन जिस उद्देश्य को लेकर हुआ था, यदि उसकी पूर्ति प्रचार–प्रसार की दृष्टि से हो पाती तो लघुकथा की रचना प्रक्रिया का स्वरूप लेखकों तथा पाठकों के सामने बहुत पहले आ जाता। हमारा ‘प्रतिनिधि लघुकथाएं’ संकलन ‘सारिका’ में प्रकाशित चुटकुला–लघुकथा के विरोध में तो था ही, साथ ही इसका उद्देश्य लघुकथा लेखन की तमाम रचना–शैलियों को सामने लाना भी था, यह आरंभिक संकलन बिना किसी दावे के निकला, इसमें रचनाकारों को महत्त्व देने की बजाए लघुकथा लेखन को महत्त्व दिया गया था।
लघुकथा पर दिल्ली में गोष्ठी का आयोजन एक व्यवस्थित संकलन प्रकाशन के निमित हुआ। ‘छोटी बडी बातें’ गेटअप–सेटअप हर दृष्टि से वजनदार संकलन निकला। सही मायने में संकलन प्रकाशन परंपरा में यह ‘मील का पत्थर’ था।
लघुकथा के नाम पर राजधानी में संभवत: यह पहली विचार गोष्ठी थी,जिसमें नरेंद्र कोहली, विष्णु प्रभाकर,जानकीप्रसाद शर्मा, दिनेश शाकुल, प्रेम जनमेजय, रमेश उपाध्याय, डॉ. महीपसिंह, द्रोणवीर कोहली, डॉ. विनय, डॉ.हरदयाल के सान्निध्य में महावीर प्रसाद जैन, जगदीश कश्यप, रमेश बतरा, कुलदीप जैन, डॉ.जगदीश चंद्रिकेश सहित कई और साहित्यकार उपस्थित थे। ‘लघुकथा: विकास और संभावना’ विषय को केंद्र में रखकर आयोजित गोष्ठी में बहस के कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे सर्वप्रथम उठे। आज जो बार–बार उठ रही है, उसके संबंध में रमेश उपाध्याय ने तब कहा था : ‘लघुकथाएँ ऐसी लिखी जानी चाहिए, जो आकार में नहीं, अर्थ में बड़ी हों और सूत्र रूप में समाज को कुछ दे सकें।’ महेश दर्पण की भी बातें रेखांकित करने योग्य थी : ‘लघुकथा की रचना–प्रक्रिया में अखबारियत जैसे खतरों से भी रचनाकारों को सावधान रहना होगा। विधा के रूप में तो ‘लघुकथा’ की स्वीकृति–अस्वीकृति का प्रश्न ही नहीं उठता, हमारी बात हम तक पहुँचती है या नहीं, यही लघुकथा की सही पहचान है।’ यह संकलन ‘समग्र’ के लघुकथांक का किताबी रूप है, जिसने कृष्ण कमलेश के अनुसार–‘हिंदी लघुकथा के नाम पर जो चुटकुलेबाजी, लतीफेबाजी, व्यंग्य–हास्य की फूहड़ कथाएँ चल पड़ी थीं, उनसे ‘समग्र’ ने बचना चाहा था।’
लघुकथा पर एक महत्त्वपूर्ण गोष्ठी अक्टूबर,1977 में कथाकार मनीषराय द्वारा ‘सर्जना’ के अंतर्गत दमोह में आयोजित हुई। इस गोष्ठी में बलराम के आलेख ‘लघुकथा: प्रवृत्तियाँ और विकास’ पर चर्चा हुई। कामतानाथ की अध्यक्षता में संपन्न इस गोष्ठी में उपस्थित थे : कमलेश्वर, मधुकर सिंह, दामोदर सदन, जवाहर चौधरी, शांता वर्मा, कमलाप्रसाद पांडे, श्यामसुंदर व्यास, श्रीकांत चौधरी, नरेंद्र मौर्य, देवीप्रकाश तथा सतीश दुबे आदि। गोष्ठी में लघुकथा के स्वरूप पर श्रीकांत चौधरी, सतीश दुबे, नरेंद्र मौर्य ने जमकर चर्चा की। इसी माहौल में लघुकथा और लघुकहानी का मुद्दा उपजा। यह मुद्दा इतना महत्त्वपूर्ण था कि लघुकथा का कोई स्वरूप तय करना पाठकों के लिए मुश्किल था। दरअसल हो यह रहा था कि ‘सारिका’ में छपनेवाली रचनाएँ व्यंग्य–विनोद,हास–परिहास से युक्त थीं, जबकि लघुपत्रिकाओं में छपनेवाली रचनाएँ इनसे हटकर। बलराम ने लगता है, इस पर गंभीरता से विचार किया और यह निर्णय लिया कि व्यंग्य–विनोद, हास–परिहास से युक्त रचनाओं को लघुकथा कहा जाए तथा संवेदना के अन्य स्तर पर लिखी जानेवाली रचनाओं को लघुकहानी। बलराम के इस विचार से जुड़नेवाले अन्य उल्लेखनीय रचनाकार थे–शंकर पुणतांबेकर तथा कमल गुप्त। बलराम की यह सामान्य धारणा उन लोगों के लिए हथियार बनने लगी थी, जो लघुकथा को एक सशक्त साहित्यिक विधा का दर्जा देने की बजाय दोयम द‍र्ज़े का लेखन सिद्ध करके यह प्रतिपादित करना चाहते थे कि लघुकथा कोई विशिष्ट लेखन नहीं है, न ही इसका कोई स्परूप है, न ही इसके लेखक यह तय कर पा रहे हैं कि लघुकथा क्या है? लघु व्यंग्य ही लघुकथा है। इस नए शगूफे ने भी इसी विचार का फायदा उठाकर लघुकथा पर प्रश्नचिह्न लगाना शुरू कर दिया था।
इसी बीच होशंगाबाद में ब्रजेश परसाई के प्रयासों से लघुकथा सम्मेलन आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में लघुकथा की रचनात्मकता के संबंध में अनाहूत रूप से उठ खड़े हुए विवादों एवं मतभेदों पर चर्चा हुई। एक प्रमुख मुद्दा लघुकथा–लघुकहानी का भी रहा। चूंकि इस विवाद से जुड़े प्रमुख विचारक इस गोष्ठी में विद्य़मान थे अत: इस विषय पर घंटों खुलकर चर्चा हुई यह भी महसूस किया गया कि रचनाकार जिस ढंग से लिख रहे हैं, उनके रचना–कौशल को नकारा नहीं जाए, किसी को भी यह कहने का हक नहीं बनता कि लेखन के एक ही गुणधर्म को अपने आँचल में बांधे रखे। डॉ. पुणतांबेकर ने सहजता और सामान्य भाव से लघुकथा की रचनात्मक ईमानदारी को स्वीकारा तथा इस चिंता को महत्त्च दिया कि लघुकथा में व्यंग्य धर्म की प्रधानता उसके कथा–तत्त्व को लील सकती है तथा लघुकथा कथा–साहित्य का एक अंग होने से भटक सकती है। इस प्रश्न के उठने तथा समाप्त होने से किसी की महत्त्वाकांक्षी मंशा रही है, ऐसा मैं नही मानता। इस विवाद के समाप्त होने से यह जरूर हुआ कि लघुकथा खाँचों में बँटने से रुक गई और उन धनुर्धारियों को अपने बाण तरकश में रखने पड़े, जो लगे हाथ इस विवाद में पूरी ताकत के साथ कूद जाना चाहते थे।
मुख्य अतिथि की हैसियत से कन्हैयालाल नंदन ने लघुकथा की स्थापना पर कुछ सटीक और बेबाक बातें कहीं : ‘लघुकथा कोई नई विधा नहीं है, बल्कि यह तो कथा–वर्ग के ही अंतर्गत आती है, संवेदना के स्तर पर सभी रचनाएँ समान हैं। लघुकथा लेखकों को लघुकथाकार कहकर उन्हें अलग वर्ग में विभाजित करना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। लघुकथा और लघुकहानी की बहस बहुत पहले ही समाप्त हो जानी चाहिए, क्योंकि मुद्दे महत्त्वहीन हैं....’ इस सम्मेलन में नंदन के सम्मुख ‘सारिका’ द्वारा बरती जा रही लघुकथा विषयक उपेक्षा के प्रश्न भी उठे, जिनका समाधान उन्होंने यह कहकर किया कि वे लघुकथा के प्रकाशन को ‘सारिका’ में महत्त्व देंगे तथा पाठकों के सीधे संवाद के लिए रचनाकारों के पते भी दिए जाएगे।
लघुकथा विधा पर गोष्ठियों और सम्मेलनों का सिलसिला इस प्रकार शुरू हुआ और अनेक लघुकथा–संग्रह–संकलन निकले, जो साहित्य में रुचि रखनेवाले बुद्धिजीवियों को अपनी ओर खींचते गए। संग्रहों–संकलनों के समांतर अनेक पत्रिकाओं ने लघुकथाएं छापना शुरू किया : ‘मिलाप’, ‘मिनीयुग’, ‘अंतर्यात्रा’, ‘कहानीकार’, ‘सौरभ’, ‘वैन्गार्ड’, आदि की परंपरा में कुछ अन्य पत्रिकाएँ भी जुड़ी, जैसे ‘इंद्रप्रभा’,ऋतुचक्र’, ‘कंचनप्रभा’, ‘नीहारिका’, ‘कथादेश’, ‘कथाबिंब’, ‘कुरुक्षेत्र’, ‘ग्रहण’, ‘तारिका’, ‘देवदीप’,‘मंगलदीप’, ‘नवतारा’, ‘पहुँच’, ‘पुन:’, ‘मंजरी’, ‘माधवी’, ‘यथार्थ’, ‘युगदाह’, ‘व्यंग्यम’, ‘वीणा’ ‘समांतर’ आदि। इंदौर से प्रकाशित देश की प्राचीनतम साहित्यिक पत्रिका ‘वीणा’ में लगातार चार पृष्ठ लघुकथा के लिए दिए जाते रहे, यह क्रम बरसों चला, पर धीरे–धीरे टूट गया। पत्रिका के संपादक डॉ. श्यामसुंदर व्यास ने लघुकथा प्रकाशन में रुचि ली। इस माध्यम से भी अनेक लघुकथा लेखकों को अपनी रचनाएँ एक विशिष्ट पाठक–वर्ग तक पहुँचाने का अवसर मिला।
वैसे तो अनेक लघुकथा विशेषांक देश के विभिन्न हिस्सों से निकले, कई पत्रिकाओं, के लघुकथा विशेषांक निकले, कई लघु पत्रिकाओं ने इस बहती गंगा में हाथ धोकर पुण्य कमाया, पर कुछ विशेषांक इस परंपरा में हिंदी लघुकथा को कुछ सार्थक लघुकथाएँ तथा लघुकथा पर विचार दे सके। जिन लघुपत्रिकाओं के संपादक महत्त्वाकांक्षी रहे, उन्होंने अति उत्साह में संग्रह निकाले तथा अपने संपादन में अच्छे–अच्छे लघुकथा लेखकों को छापकर गौरव अर्जित किया।
‘लहर’ जैसी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका द्वारा लघुकथा पर विशिष्ट सामग्री निकालने का अर्थ हुआ, साहित्य की प्रत्येक विधा के सजग पाठक–प्रहरी प्रकाश जैन तथा मनमोहनी का इस विधा पर विचारोत्तेजक सामग्री प्रस्तुत कर अपने पाठकों को उत्प्रेरित करना। मृणाल पांडे का आलेख ‘हिंदी में लघुकथा : कितनी लघु, कितनी कथा’ इसी प्रकार का है। इस लेख में लघुकथा तथा रचनाकारों को परिधि में लेकर कुछ प्रश्न उठाए गए– (1) लघुकथाएँ आदर्शवादी नीति कथाएं ज्यादा हैं, (2) यह कॉमर्शियल साहित्य है, जिस पर व्यावसायिक पत्रिकाओं ने साहित्य की आई.एस.आई. मुहर लगाई है, (3) लघुकथाएँ समाचार–पत्र की सुर्खियों से निकलती हैं, (4)लघुकथा की सृजन प्रक्रिया तकलीदेह नहीं होती। ‘लहर’ के लघुकथा विशेषांक ने लघुकथा के सृजन–क्षेत्र में विशेष हल्ला मचाया, यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी।
‘कथाबिंब’ का लघुकथांक इसलिए ऐतिहासिक रहा कि इसे लघुकथा के अग्रणी रचनाकार कृष्ण कमलेश का स्पर्श मिला। कृष्ण कमलेश ने संपादिका मंजुश्री की भावना के अनुरूप ‘लघुकथा की दशा और दिशा’ पर विस्तार से सामग्री प्रस्तुत की। यह अंक इतना ठोस है कि लघुकथा की 1980 तक की प्रामाणिक सामग्री के लिए कहीं और भटकना नहीं पड़ता। ‘नवतारा’ तथा ‘कुरुशंख’ के लघुकथा विशेषांक भी महत्त्वपूर्ण रहे। ‘कुरुशंख’ शमीम शर्मा के कैरियर से जुड़ा होने के कारण सजग और चौकन्ना रहा, जबकि ‘नवतारा’ अनेक अंकों में लघुकथाओं के संयोजन का प्रयोजन लघुकथा के व्यापक कैनवास या जीवन की विविध स्थितियों से केवल परिचित कराना नहीं, अपितु इस पनप रहे पौधे की अस्मिता के रक्षण हेतु संघर्ष की भूमिका तैयार करना था, जिसमें संपादक सफल रहा।
‘सारिका’ का 1984 का लघुकथा विशेषांक विशेषाकों की परंपरा में पुन: अपनी सार्थकता साबित करता है। सौ के करीब लघुकथाओं के बीच रमेश बतरा ने ‘लघुकथा : संवेदना का गहन सूत्र’ निरूपित किया। लघुकथा विषयक नारे, गुहार और शोर के बीच उन्होंने यह महसूस किया कि ‘लघुकथा की स्थिति अपने आप में सुदृढ़ है, क्योंकि रचना के स्तर पर इसे पाठकों की मान्यता बिला शक प्राप्त हो चुकी है। इसलिए हमारी पहली चिंता यही होनी चाहिए कि हम अपने आप में ‘लघुकथा’ के माध्यम से ‘रचना’ की ओर’ अग्रसर हों...’
राजेन्द्र यादव, मनोहरश्याम जोशी, मुद्राराक्षस, शानी तथा विष्णु प्रभाकर से लघुकथा पर बातचीत भी अंक का महत्त्वपूर्ण अंग थी। अधिकतर कथाकारों का कथन या तो यह रहा कि लघुकथाएँ मेहनत से नहीं लिखी जा रही हैं या यह कि उनकी निगाह से गुजरनेवाली लघुकथाएँ चुटकुलानुमा हैं। लघुकथा के संबंध में राजेन्द्र यादव की प्रतिक्रिया थी : मैंने पाँच–सात लघुकथाएँ लिखी हैं। मुझे लगा कि यह विधा बहुत कठिन है। मैं नहीं लिख पाऊँगा, लेकिन चुटकुले जरूर लिख सकता हूँ, जिनको मैं लघुकथा नहीं मानता, क्योंकि लघुकथा में लेखक मूल स्वर पकड़ता है। बड़ी कहानी को संक्षिप्त करके लिखना लघुकथा नहीं है।’
अब तक लघुकथा अनेक पत्र–पत्रिकाओं का अभाव महसूस हो रहा था। ‘दृष्टि’ तथा (लघु) ‘आघात’ इस कमी को पूरी करने की नीयत से सामने आई। ‘आघात’ लघुकथा की नियमित त्रैमासिकी का प्रकाशन जनवरी, 1981 से हुआ। प्रवेशांक का लघुकथा–जगत में ही नहीं, सामान्य पाठक–वर्ग के बीच भी व्यापक स्वागत हुआ। यह लघुकथा के प्रचार–प्रसार तथा लेखन–प्रकाशन के मंच की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कदम था। होशंगाबाद–सम्मेलन में ही लघुकथा की पत्रिका निकालने पर विचार–विमर्श हुआ, पर यह कल्पना न थी कि यह स्वप्न इतनी जल्दी साकार हो सकेगा। विक्रम सोनी एक पत्रिका निकालने की योजना लेकर मेरे पास आए थे। हम लोगों ने एक बैठक में ही इसे लघुकथा की संपूर्ण पत्रिका के रूप में निकालना तय किया, आर्थिक परेशानियों का गढ़ विक्रम सोनी इतनी आसानी से जीत लेंगे, इसकी मुझे उम्मीद नहीं थी। पर उन्होंने पत्रिका के दोनों ही पक्षों के लिए अपना पसीना खींचकर जो पौधा लगाया, वह बहुत कम वर्षों में कितना फला–फूला तथा कितनी ऊँचाई तक पहुँचा, इससे सभी अवगत हैं।
उपन्यास और कहानी के किस्सों में मुर्दों को नायकत्व प्राप्त हो जाता है, पर लघुकथा जिंदगी जीनेवाले आदमी से जुड़ी होने के कारण मुर्दा किस्सों की परवाह नहीं करती। जैसे लुगदी साहित्य के पाठक उपन्यास साहित्य को इससे हटकर कुछ समझते ही नही। सच्ची कहानियों के आम पाठक का संसार, उस कहानी–जगत से हटकर है ही नहीं, उसी प्रकार श्रेष्ठ साहित्य जीनेवालों के लिए लघुकथा चुटकुलों, अखबारों की सुर्खीवाली खबर, भावावेग का कोई अंश, कोई चुटीला संवाद या लिजलिजे विचार की अभिव्यक्ति के अलावा कुछ है ही नहीं।
श्रेष्ठ लघुकथाओं को पढ़ते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि संक्षिप्तता का गुण केवल लघुकथा का है, कहानी का छोटापन, संक्षिप्त में शब्द–नियोजन अथवा कौशल के साथ बद्ध रहकर गागर में सागर भरना नहीं है। लघुकथा छोटे–से कैनवास पर उन कथ्यों को प्रस्तुत करती है, जिन्हें संवेदनशील मन की दृष्टि क्लिक कर जाती है। दरअसल ये ही क्षण सही अर्थों में मनुष्य के सर्वांग चरित्र का निर्माण करते हैं। लघुकथा ऐसे चरित्रों को चुनते हुए रचना प्रक्रिया के जिस दौर से गुजरती है, वह कहानी की अपेक्षा ज्यादा प्रभावी ढंग से संप्रेषित करना चाहती है, कहानी में इसी संवेदना–सूत्र को फैलाव मिलता है, सूत्र विभिन्न कडि़यों से जुड़ता जाता है तथा विस्तृत फलक पर शिल्प के विभिन्न रंगों से आकार लेता है, जबकि एक अच्छी लघुकथा की पहचान यह होती है कि इसका कथ्य अपने लक्ष्य की ओर सीधा बढ़ते हुए प्रभाव का विस्फोट करे। इसलिए लघुकथा के कथ्य घटनाओं में नहीं, किसी एक घटना में छिपे होते हैं। लघुकथा, कहानी की तरह मूल कथानक में उपप्रसंगों की आयोजना नहीं करती। ऐसा होने पर लघुकथा का कैनवास बढ़ने,शब्द सामर्थ्य कम होने तथा लघुकथा की स्वतंत्रता समाप्त होने का खतरा पैदा हो जाता हे, लघुकथा पर कहानी का प्रारूप होने का आरोप भी ऐसी एप्रोच के कारण लग सकता है। इसलिए लघुकथा को ‘लघु’ ही रहना चाहिए, उसके दीर्घ होते ही मामला गड़बड़ा जाएगा।

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