लघुकथा की लोकप्रियता, उपयोगिता और प्रासंगिकता के प्रति अब कोई शक–शुबहा नहीं रह जाना चाहिए। उसने अपनी पहचान बना ली है। उसकी शक्ति को पहचाना गया है। अब किसी भी मान्य संपादक अथवा लेखक द्वारा उसकी अवमानना करना संभव नहीं रहा है। हिंदी की सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ लघुकथाओं को सम्मानजनक स्थान दे रही है, यह नहीं कि केवल फिलर की तरह उसका इस्तेमाल हो रहा है। लघुकथाएँ लोकप्रिय हो रही हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि वे स्तरीय या श्रेष्ठ नहीं हैं। लोकप्रियता और श्रेष्ठता में अनिवार्यत : कोई विरोधाभास नहीं है। श्रेष्ठ,स्तरीय चीज भी लोकप्रिय हो सकती है। प्रेमचद और गोर्की का लेखन श्रेष्ठ भी था और आज तक लोकप्रिय भी है। श्रेष्ठ की लोकप्रियता स्थायी होती है।
अब, जबकि लघुकथा ने विधा की–सी प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली है तो लघुकथा लेखकों का दायित्व है कि वे इसे बँधे–बँधाए ढांचे और घिसे–पिटे कथ्यों से बाहर लाएँ। आज आवश्यकता लघुकथा में नए आयाम तलाशने की है। उसकी शक्ति और सामर्थ्य को पहचानने की है। जरूरत है नए विषयों को तलाशने की। पुरानों को नई दृष्टि, नए शिल्प के साथ प्रस्तुत करने की। प्रायोगिकता, सांकेतिकता और प्रतीकात्मकता को बढ़ाने की। वस्तुत: लघुकथा में जो अनकहा रह जाता है या जिसके कहने से लेखक अपने को बड़ी चतुराई से बचा लेता है, वही महत्त्वपूर्ण और माननीय होता है। लघुकथा लेखक को कुछ सूत्र भी छोड़ देना चाहिए, जिसे पकड़कर पाठक रचना के अंदर प्रवेश कर सके। उसके बाद जब पाठक कथा का मर्म खुद समझेगा तो उसका आनंद तो द्विगुणित होगा ही, वह दूर तक और देर तक सोचने को विवश भी होगा। बाजारवाद (भूमंडलीकरण–उदारीकरण आदि,) 11 सितंबर 2001 के बाद उभरा आतंकवाद का नया चेहरा, अमेरिका की दोहरी और दोरंगी नीति, संसद में लगनेवाला हाट–बाजार, भ्रष्ट से भ्रष्टतर होती जा रही राजनीति आदि ऐसे वि्षय हैं जिन पर लघुकथा लेखकों को नए सिरे से विचार करना होगा।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन के बाद से हमारी भाषा और संस्कृति दोनों के समक्ष नई चुनौतियाँ खड़ी हो गई हैं। एक नई उपभोक्ता–संस्कृति जन्म ले रही है। टी.वी. विज्ञापन इस संस्कृति का पोषण कर रहे हैं। वे हमें बता रहे हैं कि हम क्या खाएँ, क्या पिएँ, क्या बिछाएँ, और कौन–से जेल–पैन से लिखें। झाड़ू,तकिया,बिस्तर,आलू की चिप्स जैसी देसी वस्तुओं को विदेशी अंदाज में बेचा जा रहा है। ‘रेशमी अहसास’ को भारतीय मूल्यों में मिलाकर हमारी भावनाओं का शोषण किया जा रहा है। ये लोग बड़ी चतुराई से माल के साथ विचार भी हमारे मन–मस्तिष्क में प्रत्यारोपित कर रहे हैं। हमें आर्थिक गुलामी के शिकंजे में कसा जा रहा है। आज गाँव की गुमटी में पेप्सी और कोला तो उपलब्ध है, मगर ग्रामीणों की बुनियादी आवश्यकताओं की वस्तुएँ नहीं। जरूरत है चालाकी से की जा रही इस सौदागिरी को पहचानने की। विदेशी सेटेलाइट चैनलों के शब्द–कोष में ‘जन–हित’ शब्द नहीं है। वहाँ सिर्फ़ मुनाफा है। वे अपने अंशधारकों के प्रति उत्तरदायी हैं, दर्शकों के प्रति नहीं। इन तमाम स्थितियों के मद्देनजर लघुकथा लेखक को अपनी भूमिका तय करनी होगी।
लघुकथा लेखक को लोकतांत्रिक मूल्यों के अंगरक्षक की भूमिका भी निभानी होगी। संसद और उसके बाहर जिस प्रकार नैतिक, मानवीय और लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है, उस पर अलग लेखकीय दृष्टि से विचार करना होगा, क्योंकि लेखन के मूल में है दृष्टि । यदि हम चीजों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में पूरी ऐतिहासिक समझ के साथ विश्लेषित नहीं करेंगे तो समाज की सही तस्वीर सामने नहीं आएगी। रचनाशीलता का तकाजा है कि पड़ताल करे कि भयावह समय के आर्थिक,सामाजिक दबावों ने मनुष्य जीवन पर क्या असर डाला है? मनुष्य टूट–बिखर क्यों रहा है? क्यों उसका निरंतर शोषण हो रहा है? इस दृष्टि और समझ के साथ जरूरत है अभिव्यक्ति कौशल की। नए प्रयोग की। प्रयोग की हैं, जो शिल्प को आगे ले जा सकते हैं।
लघुकथा को एक बड़ा खतरा रहा है आत्ममुग्धता से। कई रचनाकार अपनी सीमा और सामर्थ्य को पहचानकर आत्ममुग्धता की स्थिति मे बने रहते हैं। यह मानते हुए कि जो उन्होंने लिखा, वही सर्वश्रेष्ठ है। ये वे लोग है, जो दूसरों का श्रेष्ठ लिखा न पढ़ते हैं, न आत्म–विश्लेषण करते हैं। लघुकथा लेखक में आत्म–समीक्षा का, आत्म–परीक्षण का माद्दा होना चाहिए देखना चाहिए कि बात बन रही है अथवा नहीं? स्वयं अपने अंदर आलोचक पैदा करना चाहिए, जो देखे कि उसने जो लिखा है, वह साहित्य की तराजू पर ठीक बैठता है या नहीं, कसौटी पर खरा उतरता है या नहीं, उसमें कुछ नया और अलग है या नहीं? बदलते यथार्थ के साथ रचनात्मक स्वरूप को सामने लाने के लिए लघुकथा लेखक को उसके रूपात्मक स्वरूप में भी बदलाव लाना होगा।