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लघुकथा का रचना–कौशल एवं प्रस्तुति योजना
कृष्णानन्द कृष्ण

किसी भी रचना के सृजन के समय उसे कलात्मक सौंदर्य प्रदान करने के लिए उपयोग में लायी गयी प्रविधियों को रचना कौशल कहा जाता है। यानि प्रस्तुतीकरण का वह विशिष्ट तरीका जो रचना को कलात्मक सौंदर्य प्रदान करने में सक्षम होता है उसे रचना कौशल कहते हैं। हालाँकि रचना कौशल कोई बीजगणितीय सूत्र नहीं है जिसके उपयोग से खास मनोवांछित परिणाम प्राप्त किया जा सके। यह पूर्णरूप से रचनाकार की निजी क्षमता पर निर्भर करता है कि वह अपनी रचना में रचना–कौशल का उपयोग किस तरह करता है। रचना–कौशल को परिभाषित करते हुए डॉ0 बच्चन सिंह ने लिखा है–‘‘साहित्य–सृजन के लिए गृहीत रूपात्मक प्रविधियों को तकनीक कहा जाता है। आधुनिक समीक्षा से स्पष्ट है कि जब हम वस्तु, कॉन्टेंट के संबन्ध में कुछ कहते हैं तो कला के संबन्ध में कुछ न कहकर अनुभव के संबन्ध में कहते हैं। आलोचक को आलोचक होने के लिए सर्व प्रथम ‘रूप‘ का विश्लेषण करना चाहिए। वस्तु और रूप के बीच की विभाजक रेखा तकनीक है। लेखक अपने अनुभवों को तकनीक के माध्यम से तलाशता है, विश्लेषित करता है।
कथा–साहित्य में सामग्री का चयन, कथाओं, चरित्रों, स्थितियों आदि का संयोजन, वास्तविकता का ‘डिस्टॉर्टशन‘ आदि तकनीक में ही अंतर्भुक्त है।.........प्रस्तुतीकरण का विशिष्ट तरीका तकनीक है और रचना से तकनीक अलग नहीं है। किसी एक तकनीक के आधार पर उपन्यास या किसी भी साहित्यिक विधा का मूल्यांकन संभव नहीं है। किसी भी रचना में अनेक प्रकार की तकनीक प्रयुक्त होती है। इनके अपने अंतर सम्बन्धों तथा सम्पूर्ण रचना की संरचना में उनके योगदान में ही तकनीक का महत्त्व है। तकनीक साधन है। स्वयं साध्य नहीं।‘‘1 हालाँकि साध्य और साधन में शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध नहीं होता, दोनों में परस्पर अन्तरावलंबन होता है यानि रूप और वस्तु में द्वन्द्वात्मक एकता होती है। किसी भी लघुकथा की रचना में मूल वस्तु उसकी वैचारिक अंतर्वस्तु होती है जिसे प्रभावशाली बनाने के लिए हम जिस प्रविधि का उपयोग करते हैं वही रचना कौशल है। इसी बात को लघुकथा के संदर्भ में रचना–विधान के रूप में व्याख्यायित करते हुए निशांतर कहते हैं– ‘‘लघुकथा और उसके कथानक के उपयु‍र्क्त अंतर को और स्पष्ट किया जाय तो यह निष्कर्ष निकलता है कि कच्चे माल ‘कथानक‘‘ को तैयार माल ‘‘लघुकथा‘‘ में परिवर्तित करने में जिन रूपात्मक प्रविधियों का उपयोग किया जाता है उसे समग्र रूप से तकनीक‘‘या रचना–विधान‘‘ कहा जाता है।‘‘2 इसको दूसरे शब्दों में यों कहा जाय कि–‘‘किसी कलात्मक कृति के प्रस्तुत करने के विशिष्ट ढंग को कौशल कहते हैं अर्थात उस कृति के रूप–निर्माण और ढलन आदि की विशिष्ट योजना को कौशल या‘तकनीक‘ कहते हैं।.........
किसी भी कला–कृति में विशेष सौंदर्य उत्पन्न करने का जो बौद्धिक नियोजन किया जाता है उसी को कौशल कहते हैं; अर्थात वे सब साधन, प्रयोग तथा संयोजन मिलकर कौशल कहलाते हैं।’’ लघुकथा लेखन में जहाँ प्रगति के असीम द्वार खुलने की संभावनाएँ हैं ।इसको किसी निश्चित फ्रेम में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। फिर भी इसके लिए प्रयास तो होना ही चाहिए। लघुकथा या किसी भी साहित्य–विधा को श्रेष्ठ कलाकृति के रूप में प्रस्तुत करने के लिए जिन कौशलों की जरूरत होती है उनमें कथानक, शिल्प, वैचारिक–पक्ष, शैली, संवेदनीयता और उसका कला–पक्ष प्रमुख हैं। इस सबसे अलग हटकर प्रमुख है –उसका प्रस्तुतीकरण। यह प्रस्तुतीकरण खुद में एक बहुत बड़ा कौशल होता है– जैसे वर्णनात्मक, भावात्मक, कलात्मक, विचारात्मक और चित्रात्मक। कथा की प्रस्तुति के जिन तरीकों का उपयोग किया जाता है उनमें उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष और प्रथम पुरुष की शैली का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा कथा–प्रस्तुति के और अन्य भेदों में खासकर लघुकथा के लिए संवाद, विवरण, पत्रात्मक शैली या पूर्वदीप्ति का उपयोग करके लघुकथा को अभीष्ट ऊँचाई दी जा सकती है।
लघुकथा को श्रेष्ठ कलात्मक रूप देने में जिन कौशलों का प्रयोग जरूरी है उनमें मेरी दृष्टि में प्रमुख हैं–1.शीर्षक, 2.रूप–कौशल, .कथा–कौशल, 4.पात्र–योजना, 5.लक्ष्य–कौशल और 6.समाप्ति–कौशल। इन कौशलों को बिना समझे लघुकथा की उत्तम प्रस्तुति नहीं हो सकती।

1 शीर्षक–कौशल

लघुकथा में शीर्षक यानि रचना के नामकरण का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। पाठक का ध्यान सबसे पहले उसके शीर्षक पर जाता है। अगर शीर्षक आकर्षक होता है तो वह पाठक को तुरत रचना पढ़ने के लिए आकृष्ट करता है। कभी–कभी तो रचना का शीर्षक उसकी संपूर्ण इयत्ता को प्रकट कर देता है। ’’लघुकथा के शीर्षक में छोटी कहानी और उपन्यास से अधिक सार प्रज्ञा होनी चाहिए।..........लघुकथा के लिए तीखे, व्यंग्यधर्मी, नाटकीय, प्रतीकात्मक तथा विषय स्वरूप शीर्षक ही अधिक प्रभावोत्पादक होते हैं।’’ लघुकथा में तो शीर्षक ही संप्रेषण का काम करता है। कहीं कहीं यह शीर्षक ही संदेश की ओर भी संकेत करता है। अत: लघुकथा का शीर्षक ऐसा होना चाहिए जो पूरी लघुकथा का प्राण हो।’’ यानि शीर्षक का चुनाव करते समय काफी सतर्कता की जरूरत होती है। शीर्षक ऐसा हो जिससे रचना का अभिप्राय सीधे तौर पर पाठक को संप्रेषित हो जाय। शीर्षक का चुनाव रचना के कथानक के अंतर्वस्तु, उसके लक्ष्य के अनुरूप, कलात्मक ढंग से, या वस्तु और स्थान के नाम पर तथा घटना या लक्षण के आधार पर भी किया जाता है। कभी–कभी कोई लघुकथा अपने शीर्षक के कारण ही महत्वपूर्ण हो जाती है जबकि विषय–वस्तु के स्तर पर वह रचना कमजोर होती है। यानी रचना को महत्वपूर्ण बनाने में शीर्षक का बहुत बड़ा योगदान होता हैं इससे इनकार नहीं किया जा सकता। शीर्षक प्रधान रचनाओं में डॉ0 सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘‘बोफोर्स कांड’’ तथा नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’ की लघुकथा ‘‘साम्राज्यवाद’’ को देखा जा सकता है। इन दोनों लघुकथाओं की पूरी अर्थवत्ता इनके शीर्षकों से संप्रेषित हो जाती है। यानी जो लघुकथा के बाहर है वह पूरी तरह से रचना पर छा जाता है। लघुकथा में वस्तु और स्थान को आधार बनाकर भी शीर्षक रखने की परंपरा है। इसमें लेखक को किसी तरह की परेशानी नहीं होती। किंतु कभी–कभी लेखक प्रतीक और बिम्ब के रूप में इनका प्रयोग करते हैं तो रचना का अर्थ कई स्तरों पर खुलता है। इस क्रम में सुकेश साहनी की ‘‘आईना’’, डॉ0 सुरेन्द्र वर्मा की ‘‘आटे का ताजमहल’’ और सत्यनारायण नाटे की ‘‘अपना देश’’ लघुकथाओं को देखा जा सकता है। इन लघुकथाओं का अगर कोई दूसरा शीर्षक रखा जाता तो शायद संप्रेषणीयता इतनी सशक्त नहीं होती। पाश्चात्य साहित्य में शीर्षक रखने का एक आम रिवाज है कि रचना में प्रयुक्त वाक्यांश का ही शीर्षक के रूप में प्रयुक्त किया जाय। डॉ0 कमल चोपड़ा की ‘‘मुन्ने ने पूछा’’ तथा ‘‘खेलने के दिन’’ लघुकथाओं को देखा जा सकता है। ये दोनो लघुकथाएँ इन वाक्यों के माध्यम से चरम परिणति को प्राप्त होती हैं।

2 रूप–कौशल

किसी भी रचना की प्रस्तुति कैसे हो उसका रूप कैसा हो पर विचार करना चाहिए। रचना की प्रस्तुति लेखक द्वारा अपनायी गयी रूप–शैलियों पर निर्भर करता है। लघुकथा के विषय में जिन रूपों का उपयोग किया जा सकता है उनमें संवादात्मक–शैली, वर्णनात्मक–शैली, घटनात्मक–शैली या रेखाचित्रात्मक शैली का प्रयोग किया जा सकता है। सच पूछा जाय तो हम कह सकते हैं कि रूप–कौशल भी कथा–कौशल का ही पूरक रूप है। संवादात्मक शैली में संवादों का प्रयोग देखने में भले ही सामान्य लगता हो लेकिन इसके कई खतरे भी हैं। इकहरे और ढीले–ढाले संवादों में लिखी गयी लघुकथा निष्प्राण हो जाती है और उसका प्रभाव पाठकों पर प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित नहीं हो पा़ता। किंतु कभी–कभी किसी बात को कहने के लिए संवाद–शैली ही सर्वोत्तम होती है। सतीश राठी की लघुकथा ‘‘जन्मदिन’’ तथा पारस दासोत की कई रचनाएँ संवाद–शैली में लिखी गयी हैं । वैसे किसी भी विधा में सबसे आसान लेखन वर्णनात्मक और इत्तिवृत्तात्मक तरीके से किया जाता है। लघुकथा लेखन में डॉ0 स्वर्ण किरण की अधिकांश लघुकथाएँ वर्णनात्मक शैली में ही लिखी गयी हैं। इसी तरह से कुछ रचनाकारों ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए रेखाचित्र–शैली का भी उपयोग किया है। इसके लिए अगर एक उदाहरण देने की आवश्यकता महशूस हो तो डॉ0 कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘‘पत्थर से पत्थर तक’’ का नाम लिया जाना चाहिए। उसी तरह चित्रात्मक–शैली या घटनात्मक–शैली में भी लघुकथाओं का लेखन हुआ है किंतु इनकी संख्या ज्यादा नहीं है। ‘‘तुम्हार लिए’’( भगीरथ ) घटनात्मक शैली में और पारस दासोत की ‘‘भारत’’ चित्रात्मकशैली में लिखी गयी अच्छी लघुकथाएँ हैं।

3 कथा–कौशल

कथा–कौशल यानि लघुकथा के कथानक की प्रस्तुति। कथा की प्रस्तुति के कई रूप हो सकते हैं। साधारण लेखक विषयवस्तु को सीधे–सीधे प्रस्तुत कर देता है। इस तरह की लघुकथाओं के विकास का ग्राफ एकदम रैखिक होता है,राजेन्द्रकृष्ण श्रीवास्तव की लघुकथा ‘‘काली–बिल्ली’’ को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। किन्तु सामर्थ्यवान लेखक क्रमिक विकास की चिन्ता नहीं करके रचना की शुरूआत कहीं से भी कर देता है। वैसे लघुकथा की प्रस्तुति में उसके चरमविंदु यानि क्लाइमेक्स की अहम् भूमिका होती है। क्योंकि चरमविंदु वह क्षण होता है जहाँ पाठक को रस की प्राप्ति होती है। यह लघुकथा में उत्कर्ष की सर्वोच्च स्थिति होती है। आचार्य जगदीश पांडेय के अनुसार ’’लघुकथा में व्यंग्य की स्थिति नियताप्ति और उपराम दोनों में रहती है।’’ लघुकथा में चरमविंदु की कई स्थितियाँ हो सकती हैं। कुछ लघुकथाकार कथा के विन्यास को आरंभ, मध्य से होते हुए अंत यानि चरमविंदु तक पहुँचाते हैं। कुछ लघुकथाकार ऐसे हैं जो घटना को मध्य से उठाते हैं फिर पूर्व की घटना को बीच में लाकर उसे कहीं भी जोड़ देते हैं। इस प्रक्रिया को फ्लैश–बैक तकनीक कहते हैं। फ्लैश–बैक तकनीक को अपनाकर लिखी गयी लघुकथा ‘‘भीतर का सच’’ (राजेन्द्रमोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’) को देखा जा सकता है। कभी–कभी कोई लेखक कथा का प्रारंभ चरमविंदु से करते हैं और अंत प्रारंभ से। इस तकनीक को प्रतिलोम कथा–कौशल कहते हैं। कुछ लोग कथा की शुरूआत दो पात्रों के संवाद या वार्तालाप से प्रारंभ करते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि कथा–कौशल का संयोजन पूर्णरूपेण लेखकीय क्षमता पर निर्भर करता है।
कथा–कौशल के माध्यम से कथा–वस्तु का विन्यास, एवं घटनाओं का संयोजन भी बड़ा महत्व रखता है। क्योंकि कथा–वस्तु का विन्यास, घटनाओं के क्रम नियोजन की प्रस्तुति जब रचना में सशक्त होती है, तब वह पाठक को अपनी तरफ खींचती है। हर लेखक अपनी क्षमता के अनुसार कथा–विन्यास का उपयोग अपनी रचनाओं में करता है। जैसे कोई लेखक कथानक के केंद्र में नायक या नायिका को रखता हैं, और कथा का विस्तार पात्र के चरित्र और घटनाओं के विकास के माध्यम से करता है। उदाहरण स्वरूप जयशंकर प्रसाद की लघुकथा ‘‘कलावती की शिक्षा’’ तथा पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी की लघुकथा ‘‘झलमला’’ को देखा जा सकता है। कुछ लोग मात्र घटनाओं के सहारे पूरी कथा रचते हैं। आजकल हिंदी लघुकथा में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पद्धति का भी उपयोग रचना को उत्कृष्ट बनाने हेतु किया जा रहा है। हाल में डॉ0 सतीशराज पुष्करणा ने मानवीय संवेदनाओं और उसके मन के भीतर चलते द्वंद्वों को लेकर मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि की लघुकथाएँ लिखीं हैं। मानव मन के भीतर चलते द्वंद्व को लेकर लिखी गयी लघुकथओं में ‘‘मन के साँप’’ तथा ‘‘कुमुदिनी के फूल’’ (डॉ0 पुष्करणा) की गणना हिंदी की अच्छी लघुकथाओं में होनी चाहिए। इन सारी बातों के अलावा कथा के विषय–वस्तु के चयन में सावधनी बरतने की जरूरत होती है क्योंकि जबतक विषय में नयापन नहीं होगा रचना पाठक को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल नहीं हो सकती। विषय के चयन में किसी कौशल की जरूरत नहीं पड़ती। यह तो शुद्ध रूप से रचनाकार के अनुभव,, संवेदनशीलता, रूचि और उसकी दृष्टि पर निर्भर है। कभी–कभी तो कुछ रचनाएँ अपने विषय–वस्तु के चलते ही प्रसिद्धि पा लेती हैं। इसलिए विषय के चयन पर भी ध्यान देना उतना ही जरूरी है।

4 पात्र–योजना–कौशल

लघुकथा में पात्र–योजना की बहुत गुंजाइश नहीं रहती, क्योंकि बहुत कम समय में ,बहुत कम शब्दों में मारक तरीके से सीधे अपनी बातें प्रभावित ढंग से कहनी होती है। फिर भी रचना के प्रणयन में पात्रों की भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता। पात्रों का चुनाव कथानक के अनुरूप, वैचारिक दृष्टि संपन्न होना चाहिए। लघुकथा में विस्तार की गुंजाइश नहीं रहने के कारण पात्रों की संख्या सीमित होती है। आजकल पौराणिक एवं मानवेतर पात्रों का भी उपयोग लघुकथा लेखन में हो़ने लगा है। पौराणिक पात्रों और मिथकों को लेकर लिखी गयी ल्घुकथाओं में रामचन्द्र श्रीवास्तव की ‘‘अंगूठे की खेती’’ को तथा मानवेतर पात्रों को लेकर लिखी गयी लघुकथाओं में जगदीश कश्यप की कई लघुकथाएँ जैसे ‘आखिरी खंभा’’, ‘‘उनका दर्द’’ तथा ‘‘अजेय सौंदर्य’’ को देखा जा सकता है। पात्र–योजना–कौशल में पात्रों के चुनाव से भी ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, उनके मानसिक अंतर्द्वन्द्व को उभारना।

5 लक्ष्य–कौशल

वैसे लक्ष्य–कौशल नाम की कोई चीज नहीं होती किंतु हर रचना का कोई–न–कोई लक्ष्य होता है। रचना को अपने लक्ष्य तक ले जाने में प्रकारांतर से जिन कौशलों का सहयोग लिया जाता है, उनमें प्रमुख हैं–वर्णन कौशल और प्रारंभ कौशल, क्योंकि किसी भी रचना को अपने पाठकों तक सीधे संप्रेषित करने में, और कथा–प्रवाह को सुगम बनाने में वर्णन–कौशल का बड़ा महत्व होता है। लघुकथा में वर्णन जितना चुस्त–दुरुस्त, संक्षिप्त, सांकेतिक और धारदार होगा पाठक उतना ही ज्यादा प्रभावित होगा। इसमें सबसे ध्यान देनेवाली बात है कि वर्णन बोझिल और लंबा न हो। किसी रचना का प्रारंभ कैसे किया जाय यह भी बहुत महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि पाठक के उपर जो पहला प्रभाव प्रारंभ में पड़ता है उसकी बड़ी अहम भूमिका रचना की सफलता में होती है। इसलिए रचना का प्रारंभ ऐसे आकस्मिक घटना, वार्तालाप या वर्णन से करना चाहिए जो पाठक की चित्तवृत्ति को तुरत प्रभावित करे। कभी–कभी कोई रचनाकार लघुकथा का प्रारंभ नायक के मानसिक द्वंद्व के चित्रण से भी करता है। कुछ लेखक रचना के प्रारंभ में ही या यों कहें रचना के शीर्षक में ही पूरी रचना के बीज तत्व को डाल देते हैं।

6 समाप्ति–कौशल

किसी भी रचना का अंत किस तरीके से किया जाय कि उसका अपेक्षित प्रभीव पाठक के दिल–दिमाग को झकझोर दे बहुत महत्वपूर्ण होता है। वैसे इसके लिए कोई बना बनाया सूत्र नहीं है जिसके सहारे रचनाकार रचना को आखिरी मुकाम तक पहुँचा कर छोड़ दे। यह शुद्ध रूप से लेखकीय क्षमता पर निर्भर करता है कि वह अपनी रचना का अंत कितने सफल ढंग से करता है। एक समय था जब हिंदी लघुकथा में चमत्कारिक अंतवाली रचनाएँ बहुतायत में लिखी गयीं किंतु अब उनकी चमक फीकी पड़ गयी है। कुछ लोग रचना का अंत बड़े ही सांकेतिक रूप से प्रतीकों के माध्यम से करते हैं। कुछ रचनाकार रचनाओं का अंत बड़े ही अप्रत्याशित ढंग से करते हैं और पाठक को बीच भँवर में छोड़ देते हैं। मेरी समझ से वैसी लघुकथाएँ जो समाप्ति पर पाठक को गंभीर वैचारिक दृष्टि देते हुए सोचने को विवश करे, अत्याचार और शोषण के विरूद्ध आक्रोश पैदा करे और पाठक के मन को तृप्त करे सफल होती हैं।

संपर्क–पथ संख्या आठ बी, अशोक नगर, कंकड़बाग, पटना–800 020
email- punahprakshan@yahoo.co.in


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