मैं प्राय: ही यह दुहराता रहा हूँ कि लघुकथा एक या दो घटनाओं वाला होना चाहिए। यही लघुकथा की कहानी से अलग करता है। लघुकथा का कलेवर कहानी की अपेक्षा छोटा होता है और इस उपलब्ध छोटे रूप में ही हमें उस घटना या घटनाओं का कथ्य–विकास करना पड़ता है, ऐसा न लगे। न तो हम लघुकथा को मात्र संवादों के आधार पर पूरा कर सकते है और न कहानी की तरह किसी वर्णन में पूरा का पूरा पैराग्राफ ही लिख सकते हैं। लघुकथा में निजी अनुभव को संस्मरण के तौर पर प्रस्तुत करना भी ठीक नहीं और न समाचार की तरह अभिधापरक वर्णन ही वांछनीय है। आदर्श लघुकथा की लंबाई गद्य गीत जितनी होनी चाहिए और इस का कथानक एक या दो घटना वाला हो, जिस के परिप्रेक्ष्य में कथ्य का विकास किया जाए। लघुकथा में मिनट, घंटे या पहर भर की घटना ली जा सकती है। हाँ, समय–अंतराल की पृष्ठभूमि दिखाने के लिए छद्म–काल–दोष पद्धति अपनाई जा सकती है। लघुकथा की पहली ार्त है, लघु कलेवर में उस की पूर्ण स्थिति। लघु कलेवर और एक–दो घटनाओं वाली मानवीय संवेदनाओं से गुंफित जीवन मूल्यों की स्थापना करने वाली निर्दोष शिल्प की रचनाएँ ही कालजयी बन जाती हैं।
लघुकथा, जो विश्व–साहित्य में सर्वाधिक पुरातन रूप है और पंचतंत्र, हिलोपदेश, जातक कथाएँ जैसी धरोहर को दृष्टांतों के रूप में समाहित करते हुए हर समय में अपने तेवर तो बदलती रही है, लेकिन इस ने अपने लघु कलेवर की विशेषता नहीं बदली। खलील जिब्रान तो भारतीय दर्शन और पंचतंत्र से इतना प्रभावित हुए कि उन्हों ने ‘दि मैड मैन’ और ‘टीयर्स एंड लाफ्टर’ जैसी लघुकथात्मक पुस्तकें लिखीं और बदरी नारायण ‘सुदर्शन’ ने उसी आधार पर ‘झरोखे’ जैसी किताब लिखी। आजादी ककी अवधारणा, रूढि़यों में फँसे भारतीय समाज की विडंबना और गद्य गीतों की लयात्मकता के साथ–साथ खलील जिब्रानियन विचारों का गुंफन कर लघुकथा ने अपने परंपरागत रूप की केंचुली उतार कर नए तेवर का परिधान पहना और लघु पत्र–पत्रिकाओं ने इस नये रूप को साजा–सँवारा। इस प्रकार आठवें दशक तक आते–आते लघुकथा ने भारतीय समाज में फैली विसंगतियों पर व्यंग्य शैली में प्रहार किया। व्यंग्य के इस रूप से लघुकथा की तकनीकी विशेषताएँ गौण होने लगीं, तो कुछ रचनाकारों ने लघुकथा को नए आयाम देने का प्रयास किया, जिस में कहानी–जैसी ही तात्त्विक क्षमताएँ विद्यमान हों।
अब चूँ कि लघुकथा ने अपनी भूमिका कहानी जितनी तेज कर ली है और कुछ अपवादों को छोड़ व्यावसायिक पत्र–पत्रिकाएँ भी लघुकथाएँ छाप रही हैं, अत: लघुकथा की भूमिका कहानी के समांतर है और कहीं–कहीं इस की प्रस्तुति कहानी से भी आगे बढ़ गई है। संभव है आगे आने वाले समय में साहित्य का यह रूप अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाए।
इतना सब कुछ होने पर भी यह जतला देना आवश्यक है कि अभी भी कुछ नये–पुराने लोग लघुकथा को अपने अस्पष्ट विचारों से उलझाने की कोशिश करते रहते हैं। ऐसा तो हर विधा में होता रहा है। अत: इस बिंदु को नजरअंदाज कर दिया जाना चाहिए।