जब मलयालम के कथाकार मित्र ने मुझे यह खुले मन से कहा–हिन्दी में लघुकथाएँ प्रामाणिक एवं प्रभावी ढंग से लिखी जा रही है। मलयालम भाषा में हिन्दी की लघुकथाओं का अनुवाद हो रहा है इससे लगता है हिन्दी की लघुकथाओं ने बहुत प्रगति की है तो मुझे भी हिन्दी लघुकथाओं की संतोषप्रद प्रगति पर गर्व हुआ।
यह निर्विवाद सच है, हिन्दी की लघुकथाओं का सामाजिक कैनवास विस्तृत होता जा रहा है। ये मानवीय हितों,दुखों और परिवेश से पूरी तरह जुड़ गई हैं। मनुष्य और उसके आचरण के साथ ये लघुकथाएँ सम्मिलित होकर उनकी प्रकृति एवं प्रवृत्ति को यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि आज हमें अपने को भारतीय कहने पर शर्म आने लगी है। इसकी वजह यह है कि भारतीय नागरिकों में नागरिकता की भावना विलोपित हो गई! नैतिक आदर्श, चारित्रिक स्तर और राष्ट्रीयता किसी में नहीं रही। अब धन से किसी भी आदमी को खरीदा और बेचा जा सकता है।
ऐसी स्थिति में लघुकथाओं का सामाजिक तथा नैतिक दायित्व ज्यादा जिम्मेदाराना हो जाता है। कारण–सबसे पहले जरूरत आज के आदमी को उसके नैतिक मूल्यों की पहिचान कराकर सामाजिक कर्तव्यों तथा राष्ट्रीय हितो के प्रति आगाह कराना है ताकि जब समय बदले! वैयक्तिक हित के लिए राष्ट्रीय चेतना की बलि की गलत परम्पराओं में बदलाव आए।
सामाजिक दृष्टिकोण, नैतिक आदर्श राष्ट्रीय चरित्र के साथ ही साथ सामाजिक चारित्रिक मूल्यों की हिफाजत करना लघुकथाओं को जरूरी दैनिक कार्य है! चारित्रिक मूल्यों की हिफाजत करना लघुकथाओं को जरूरी दैनिक कार्य है! लघुकथाएँ यह कार्य जितनी रीडरशिप हासिल करने में सफल होंगी, उतने ही कारगर ढंग से सम्पादित करेंगी! इसलिए जरूरी है लघुकथाओं की रीडरशिप में आशातीत वृद्धि की जाए।
पिछले दशक में तथा इस दशक में लघुकथाओं की रीडरशिप तथा लघुकथाओं में जनरुचि निश्चित ही विकसित हुई है। परन्तु संपूर्ण विकास बिन्दु अभी प्राप्त नहीं हुआ है। सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो लघुकथाएँ अभी पूर्ण रूपेण विकसित नहीं हुई हैं। अभी पारम्परिक पड़ाव की यात्रा पूर्ण कर रही है। इसलिए अभी जो लघुकथाएँ आ रही हैं, उनमें अधिकाँश कच्चे माल की तरह हैं, बहुत कम ऐसी लघुकथाएँ पाठकीय निगाह में आती है जो पूर्ण वैचारिक तथा गहरे चिन्तन और चिन्ताओं के प्रति सजग एवं सचेत हैं।
लघुकथाओं में ,लघुकथा लेखक कहाँ रहता हैं, यह एक निश्चित ही विचारणीय सवाल है। लघुकथाओं में लघुकथाकार शब्द यात्रा करता हुआ अर्थों को खेलता है। शब्द,अर्थ,भाषा,संवेदना, फन्तासी के बीच कारीगर की तरह रचना को गढ़ता हुआ उसे एक विशिष्ट शैली और शिल्प देता है तथा इसी के साथ वह जन जन के जीवन से जुड़ता हुआ उनके बीच के सुख–दुख, अतिवादी अत्याचार, अनैतिकता, शोषण,आपाधापी, अपराधी प्रवृत्तियों की समीक्षा करते हुए जन हितों की हिफाजत करता है! इसके साथ ही जन जागरण एवं नये वैचारिक आन्दोलन को ताकत देते हुए जन अपराध के विरुद्ध लड़ाई की पूर्ण तैयारी करता है।
इसलिए एक जन बोधी लघुकथा निश्चित ही ईमानदार सैनिक का कर्तव्य पूर्ण जिम्मेदारी के साथ सम्पादित करती है।
जब लघुकथा के जन पक्ष की समीक्षा और उसके कन्ट्रीब्यूशन का आकलन करते हैं तो उसके साहित्यिक सरोकारों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। साहित्यिक मूल्यांकन के अनेकों मानदण्ड हैं! लेेकिन खास तौर से लघुकथा के कथानक,भाषा, शैली, शिल्प,कलात्मकता तथा प्रस्तुतीकरण के तौर तरीके पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित होता है। इसके साथ ही उसका वैचारिक पक्ष एवं उद्देश्य लघुकथा के बेहतर मूल्य आकलन के औजार है।
मैक्सिम गोर्की का कथन हैं ‘विचारों का सृजन धरती पर होता है, वे श्रम की मिट्टी से फूटते हैं और वे पर्यवेक्षण, तुलना, अध्ययन की सामग्री का और तथ्यों का बार–बार प्रयोग करते हैं।’ स्पष्ट है विचार–रचना की धरती पर खुद–बखुद फूट कर विकसित होते हैं। रचनाकार माटी की तरह इनको रचना में फूलवारी सा सहेजता है और इन्हें परिपक्व होने का पूरा -पूरा अवसर देता है। ‘सत्य हमेशा बुरा होता है।’ इसलिए सच्चाई भरी कथा की अक्सर उपेक्षा होती है। ठीक सच्चे आदमी की तरह। मैक्सिम गोर्की भी जानते हैं ‘जो कुछ बुरा है सत्य होगा।’
लघुकथाओं में कौशल का महत्व अत्यधिक है! कौशल कोई अलग नहीं होता! कौशल भाषा से ही शुरू होता है। कोन्सतान्सिन फेदिन ने इस संबंध ये स्पष्टत: लिखा है–‘लेखक के कौशल की बात भाषा से शुरु होती है। किसी भी कृति की मौलिक सामग्री हमेशा भाषा रहेगी। ललित साहित्य शब्दों की कला है। किसी साहित्यिक कृति का रचना विन्यास उसके कलात्मक रूप का अत्यधिक महत्व उससे अधिक निर्णायक है।
भाषा को सबसे मजबूत बनाने का श्रेय शब्दों का है। शब्द को शक्ति देना और उसमें रचना कौशल लाना लेखकीय अनुभवों पर निर्भर रहता है। जो एक निश्चित कला है। अलेक्सेइ तोलस्तोय का कथन है–‘ऐसे शब्दों में जो स्वाद में, देखने में, सुगन्ध में अपने हैं, जन्म भूमि के हैं–इसी में है समस्त जातीय कला और यही चीजें हैं, जिनसे सच्ची कला जन्म लेती हैं।’
रचना लेखक का शब्द भंडार, संवेदनाएँ तथा अनुभव एवं अनुभूतियों का धनाड्य होना नितांत जरूरी है। शब्दों के इस्तेमाल की भी एक तकनीक होती है। जो रचना को ताकत देकर रोचकता प्रदान करती है। इस सम्बंध में ब्लादीमीर मयाकोव्स्की का कथन है–‘शब्द–संशोधन की अत्यन्त मौलिक तकनीक और विधियाँ, तो वर्षों से कठोर श्रम के बाद ही प्राप्त होती है।’
लेखन कला अथवा लेखन कौशल हासिल करना आसान नहीं इसके लिए वर्षों परिश्रम करना पड़ता है। तप तपाकर भाषा तैयार होती है। लेखन कौशल के संबंध में कोन्तस्तानिस्न फेदिन ने स्पष्टत: लिखा है–‘लेखन कौशल की प्राप्ति अवश्य ही कोई आसान काम नहीं।’
चेखव ने भी बढि़या रचना लेखन के संबंध में विचार व्यक्त करते हुए अपने एक पत्र में यह उल्लेख किया है–‘कोई चीज जितनी बढ़िया होगी उतनी ही आपको उसकी त्रुटियाँ दिखाई देंगी और उतना ही कठिन उसको सुधारना होगा।’
कोई भी रचनाकार को किसी विधा विशेष में कुशलता हासिल करने के बाद उस पर काम करना बंद नहीं करना चाहिए क्योंकि कुशलता की सीमा नहीं होती।
लघुकथा लेखन के लिए इन तमाम औजारों को दृष्टिकोण रखते हुए लघुआघात द्वारा वर्ष 1984 में आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता के लिए प्राप्त लघुकथाओं का मूल्यांकन अपेक्षित मानदण्डों के अनुरूप हो सके, इस मूल्यांकन में क्लासिक विश्लेषण पद्धति को नहीं अपनाते हुए सरलीकृत पद्धति को अपनाया गया है। इसके अन्तर्गत–कथ्य,भाषा, शैली, शिल्प, प्रभाव, उद्देश्य रोचकता को ही मापदंड में लिया गया है।
इस लघुकथा प्रतियोगिता में प्राप्त लघुकथाओं से गुजरते हुए यह बार बार अहसास हुआ कि लघुकथा लेखकों में उत्साह आत्म विश्वास अच्छा है। जिसे निरंतर बनाए रखने की इसलिए भी जरूरत है कि लघुकथा लेखन में उच्चस्तरीय कुशलता निरन्तर प्राप्त करने की कोशिश होती रहे।
प्रतियोगिता में सम्मिलित लघुकथाओं के टेक्सचर से साक्षात्कार करते हुए यह अनुभव भी बड़ी सिद्धत के साथ हुआ कि ये लघुकथाएँ रचनात्मक स्तर पर, कन्टेन्ट पर टाँगें जाने पर ज्यादा विश्वास रखती हैं। इनमें भाषा अच्छी विकसित नहीं हो सकी है। शिल्प तथा शैली की तलाश में कोई विशेष कोशिश नहीं हुई है। जबकि कन्टेंट के साथ भाषा ही प्रमुख है। भाषा रचना को गूँगी बनाती है, वैचारिक भी अथवा कलात्मक एवं बूढ़ी भी। भाषा की टोन और भाषा के स्वभाव से रचना की वैचारिकता निर्धारित होती है। जिसमें शब्द चयन, शब्द शक्ति शैली शिल्प तथा कौशल सम्मिलित होता है। लघुकथा का प्रभाव एवं उसकी जीवटता भाषा पर ही निर्भर है। इसलिए भाषा पर अधिकार जरूरी है। इन लघुकथाओं में लघुकथाकारों का ध्यान भाषा,शिल्प, कौशल एवं शैौली पर कम गया है ये यथार्थ पर ही केन्द्रित रहे हैं तथा कन्टेंट को प्रमुखता देते रहे हैं। अतएव इन लघुकथाओं का कारीगरी मूल्यांकन कम हो गया है।
नयी भाषा, कन्टेन्ट की नया बना देती है और पुरानी भाषा कथा को आउट डेटेड कर देती है। इसलिए सजग रचनाकार को भाषा के प्रति जागरुक रहना चाहिए तथा उसकी तैयारी निरन्तर करते हुए तरोताजा बनाए रखना नितांत आवश्यक है। भाषा ही कन्टेंट को ताकतवर बनाती है और वह ‘जन जागरण,जन चेतना में वृद्धि करती हुई जन मानसिकता को लगातार बदलती है।’ इन लघुकथाओं में समर्थ भाषा के विकसित होने की संभावना आँकी जा सकती है।’ इसके लिए लघुकथाकारों का लगातार ध्यान आकर्षित होते रहने की नितांत जरूरत है।
‘दुश्मन’ लघुकथा व्यापारिक ईर्ष्या का बेमिशाल नमूना है जो समान धन्धे के प्रतिद्वन्दी मानसिकता से उपतजी है और चरित्र हनन को उत्प्रेरित करती है। इस लघुकथा का कन्टेंट भाषा का साथ देता है। शिल्प शक्ति प्रभावी न भी हो परन्तु प्रस्तुतीकरण का तौर तरीका मन में रचना के प्रति स्थान बनाने की कोशिश करता ही है।
‘नई नस्ल’ इस क्रम की अलग तरह का चरित्र धारित करने वाली लघुकथा है जो दोहरे संबंधों को जीती हुई आगे बढ़ाती है। विकास काल में चरित्र का पतन किस नेचर के साथ आ रहा है। यह लघुकथा इस मानसिकता का एक सशक्त उदाहरण है।
‘हिरासत’ अतिवादी तरीके से मध्यम वर्गीय नारी की इज्जत से खेलने की दौड़ पुलिस हिरासत के दौरान लगातार हो रही है। इसकी सच्चाई को प्रमाणिक तरीके से प्रस्तुत करती है।
छोटे किसानों को शासन द्वारा दी जाने वाली भूमि को लेखपाल द्वारा हड़पने की नीति को ‘प्रजातंत्र का नागरिक’ अच्छी पड़ताल करती है।
‘अपराध’ अधिकारी वर्ग द्वारा कामगार महिला के साथ सेक्स संबंध के अपराध का जिन्दा बयान हैं। जबकि ‘दोस्त’ एक फर्ज का नाम है।’ ‘तलाश’ इन्सानियत की तलाश करती है, जो नहीं मिलती।
‘तलाश’ की भाषा कन्टेट के अनुरूप शुरू होती है लेकिन बाद में भाषा और कन्टेंट तथा शिल्प एवं शैली गड्डमड हो जाते हैं। जबकि ‘नई नस्ल’ ‘हिरासत’,‘प्रजातंत्र का नागरिक’, ‘उसका अपराध’ तथा ‘दोस्त’ की भाषा, शैली तथा शिल्प कन्टेंट से काम्बीनेशन करते हैं। यह काम्बीनेशन तलाश में नहीं हैं।
‘पेट की शिक्षा’ वर्ग चरित्र का हलफनामा हे। जबकि ‘वर्गीकरण’ अनुशासन तथा व्यक्तित्व का नियन्त्रण। ‘निर्यात’ वर्ग चरित्र की दशा कथा है। जबकि ‘नियुक्ति’ इसी वर्ग चरित्र का वास्तविक मूल्यांकन। ‘ बीमार’ में यह मूल्यांकन दलित भावना को प्रखर रूप में प्रस्तुत करता है जबकि ‘खिलौना’ साइन्स की विनाश लीला की प्रताड़ना को झेलती हैं।
इन लघुकथाओं में स्ट्रक्चर, भाषा शिल्प के बजाय वास्तविकता की तरफ ज्यादा ध्यान दिया गया है फिर भी ये घटना कथाए मन को बहुत अन्दर तक कसती हैं।
लघुआघात–लघुकथा प्रतियोगिता 1985 की लघुकथाओं में वैचारिक एवं बौद्धिक लघुकथाओं की कमी पाई गई हैं इसकी वजह कुछ भी हो सकती है। इस समय विचार कथाओं की जरूरत हैं। इन लघुकथाओं में विचार के साथ ही साथ मनोविज्ञान भी काम करता है, जो वैचारिक बदलाव में तेजी लाता है और विचार क्रान्ति को तेज करता है।
इतना जरूर है कोई भी रचना अपने आप में पूर्ण नहीं होती। उसमें ढूढ़ने पर कुछ तो कमी अवश्य ही होती है। बावजूद इन कमियों के रचना अपना एक अलग वर्ग चरित्र और विचारधारा लेकर खड़ी होती है और सम्पूर्ण समाज का ध्यान उस ओर केन्द्रित करती है।
लघुआघात–लघुकथा प्रतियोगिता 1985 की लघुकथाएँ चाहे पुरस्कृत हुई हो अथवा नहीं, कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि इनकी अपनी एक दृष्टि और विचारधारा है। इनका एक वर्ग तथा वर्ण चरित्र है। भाषा तथा परिवेश हैं इनका अपना निवास है। इसलिए इनके वर्ग तथा वर्ण चरित्र का नकारा नहीं जा सकता है। इसलिए इन लघुकथाओं में कमी की खोज के बजाय उनमें उनकी विशेषता तथा विशिष्टता की तलाश की जरूरत है।