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अध्ययन-कक्ष - सूर्यकांत नागर
लघुकथा में स्त्री विमर्श
सूर्यकांत नागर

स्त्री प्रकृति की अनुपम कृति है। अतुलनीय। यह बहुरूपा है। उसका व्यक्तित्व बहुआयामी हैं वह एक साथ माँ,बेटी, बहन, बहू, और पत्नी है। उपन्यासकार राजा राऊ ने अपने उपन्यास ‘साँप और रस्सी’ में लिखा है–‘स्त्री भूमि है, वायु है,ध्वनि है, मन की सूक्ष्म परत है,अग्रि है, गीत है, संगीत है, भाव है। स्त्री के विविध–रूपों से साहित्य भरा पड़ा है। माँ,बेटी,प्रेयसी, पत्नी को लेकर विभिन्न विधाओं में अनेक रचनाओं का सृजन हुआ है। स्त्री–केंन्द्रित.......लघुकथाओं की संख्या भी कम नहीं हैं! लघुकथाओं में नारी का अलग–अलग कोणों से देखा, परखा और विश्लेषण किया गया है। नारी–विमर्श की लघुकथाओं पर विचार करने से पूर्व स्त्री मानसिकता तथा पुरुषवादी को समझना आवश्यक है। तभी हम स्त्री के विभिन्न पक्षों पर निष्पक्ष रूप से विचार कर पाएँगे।
स्त्री जितनी सुंदर और कोमल है, उतनी ही जटिल भी। बुद्धि,प्रतिभा और समझ की दृष्टि से वह पुरुष से कमतर नहीं है, किंतु शरीर–रचना और मानसिक बुनावट की दृष्टि से स्त्री–पुरुष में जो नैसर्गिक अंतर है, उससे इनका कर पाना मुश्किल है। पुरुष की तुलना में औरत अधिक सहिष्णु,नमनीय, निष्ठावान, त्यागमयी और समर्पित है। विशेष हॉरमोन्स की वजह से वह पुरुष की बजाय ज्यादा सहनशील है। स्त्री की निष्ठा और सहन–शक्ति के इसी गुण के कारण संस्कृति पर चौतरफा हमलों के बावजूद भी हमारे समाज में भारतीयता मौजूद है। हिन्दी के एक प्रगतिशील कार्य के अनुसार यदि प्रेम करने वाली और घर चलाने वाली स्त्रियाँ नहीं होती तो यह दुनिया एक मरुस्थल के अतिरिक्त क्या होती। स्त्री अपने इन गुणों की बनावटी प्रशंसा के जाल में फँसकर प्राय: प्रताडि़त और इस्तेमाल होती रही है। पुरुष द्वारा आदर्श नारी का नारा एक तरह का छल है।
नारी–सुलभ जिन विशेषताओं का यहाँ उल्लेख हुआ है, उन्हीं के तहत स्त्री ममतामयी माँ है! माँ को लेकर अनेक मार्मिक लघुकथाएँ लिखी गईं। इनमें माँ के उदान्त और उदार रूपों को चित्रित किया गया है। वह संतान के लिए बड़ी से बड़ी बलि देने को तत्पर रहती है। हर धर्म में माँ एक सी होती है और हर माँ का बस एक ही धर्म होता है संतान के प्रति माँ का प्यार निस्वार्थ सच्चा और तर्कातीत होता है। माँ,ममता, ममत्व शीर्षकों से लिखी गई कथाएँ इसका प्रमाण हैं! यहाँ तक कि भूख से बिलखते अपने बच्चे की प्राण–रक्षा के लिए स्त्री अपना ारीर तक बेचने को तैयार हो जाती है (सौदा नियाज)! हर माँ की संवेदना एक–सी होती है यह स्पष्ट होता है रामनिवास मानव की लघुकथा माँ से। अपने साथ कैसा भी व्यवहार हो, माँ कभी बेटे का अहित नहीं चाहती(ममता–कृष्णानंद कृष्ण) अलग करमे में रहकर खा–पका रही (सौदा नियाज)! जब आपातकाल में सबके लिए खाना तैयार करती है तो उसका तर्क होता है कि एक बार मैं बहू को तो भूखा रख सकती हूँ, पर उसके पेट में पल रहे बच्चे को भूखा कैसे रख सकती हूँ (सौदा नियाज)! सूर्यकांत नागर)! एक स्त्री ही जान सकती है कि (सौदा नियाज)! बनना क्या होता है! (सौदा नियाज)! को लेकर ऐसी असंख्य लघुकथाएँ हैं। आशय यही है कि (सौदा नियाज)! के आँचल में जो सुरक्षा और शीतलता है, वह बड़े से बड़े कवच या एयर कंडीशनर में नहीं है। माँ का आँचल कितना ही मैला हो, गम से सना हो,संतान को उसमें ममत्व की महक महसूस हो ही जाती है। अनूप श्रीवास्तव की ‘मातृत्व’ कथा में माँ,बेटे को डांटती है कि वह स्कूल में अपने टिफिन का आधा खाना दोस्त को क्यों खिला देता है! बेटा बताता है कि दोस्त की माँ नहीं है और उसे नौकर के हाथ का भोजन तनिक नहीं भाता। मित्र का मन माँ के हाथ का बना खाने को करता है, बस इसलिए....। सुनकर माँ को लगता है, वह माँ तो काफी पहले बन चुकी थी, पर मातृत्व का असली मतलब उसकी समझ में अब आया है। लेकिन अपवाद कहाँ नहीं होते। ‘बोतल में बंद ममता’ (कोमल) में आधुनिक माँ न केवल बच्चे को आया के भरोसे छोड़ देती है, बल्कि अपना दूध भी पिलाना नहीं चाहती, क्यों कि इससे फीगर बिगड़ने की आशंका रहती है।
स्त्री का श्रम और शरीर दोनों से शोषण होता है। स्त्री के धारा के विरूद्ध संघर्ष करना होता है। दिन भर खटती औरत को रात को भी चैन नहीं। पत्नी यदि लम्बे समय से बीमार है तो पति इसलिए परेशान है कि उसकी काम–इच्छा की पूर्ति नहीं हो पा रही । वह रोगी पत्नी से मुक्ति तक विचार कर बैठता है! सतीशराज पुष्करणा की कथा ‘विश्वास’ में इस तथ्य की ओर संकेत करने के साथ–साथ प्रेम और विश्वास की डोर भी अंडरकरंट की तरह प्रवाहित होती दिखाई देती है! प्रेम और स्मृति की ऐसी ही अंतर्धारा स्व. रमेश बतरा की लघुकथा ‘लड़ाई’ में भी देखी जा सकती है। रात देर से आया पति, बीमार पत्नी के हाल–चाल पूछता है, उसे दवा लेते रहने की सलाह देता है और फिर उसकी रजाई में घुस जाता है। श्यामसुंदर अग्रवाल की रचना ‘अपने- अपने दर्द’ भी पुरुष की भोगवादी वृत्ति पर प्रहार करती है। अग्रवालजी की ही एक अन्य कथा ‘एक उज्ज्ववल लड़की’ बताती है कि प्यार में तन से अधिक महत्वपूर्ण है मन। मन स्वेच्छा पवित्र और निष्ठावान है तो किए गए बलात्कार से स्त्री का चरित्र दूषित दूषित नहीं होता। ‘लव यू बोले तो’(मुरलीधर वैष्णव) दर्शाती है कि भारतीय समाज में प्रौढ़ दम्पती के बीच के प्यार व लगाव को प्रकट करने के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं होती। देह शोषण के खिलाफ खड़ी होने वाली पिछड़े वर्ग की निर्धन लड़की के विद्रोह और साहस को स्वर देती सशक्त लघुकथा है चित्रा मुद्गल की ‘नाम’ । पति को परमेश्वर मान अन्याय सहती स्त्री के मानस पर व्यंग्य करती प्रभावी लघुकथा है। राजेन्द्र काटदरे की ‘परमेश्वर’। स्त्री का उत्पीड़न कई स्तरों पर होता है। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु की स्त्री–पुरुष, कालचिड़ी, स्क्रीन टेस्ट, लघुकथाओं में औरत के शोषण की विभिन्न स्थितियों का चित्रण है। स्क्रीन टेस्ट’ की युवती फि़ल्मी दुनिया की चकाचौंध से आकर्षित हो घर से भाग जाती है और अंतत: अपना सब कुछ लुटा बैठती है। स्त्री को संदेह की दृष्टि से देखने वाला पुरुष उसे प्राय: चरित्रहीन मानता है। जब कि लघुकथा ‘स्त्री–पुरुष’ की नायिका जिस रिक्शे वाले से बात कर रही थी, वह उसका बाप था।
बेटे की चाह को व्यक्त करने वाली लघुकथाओं की तादाद भी कम नहीं है। लड़की के पैदा होने पर पति तो पत्नी को कोसता ही है, सास, जो स्वयं एक स्त्री है, वह भी औरत जात को पैदा करने के लिए बहू को ताने मारती है। पढ़े–लिखे लोग भी पुत्र की कामना करते पाए जाते हैं; भूलकर कि पता नहीं बड़ा होकर पुत्र कौन–से गुल खिलाएगा! ‘सास’ (धर्मपाल अकेला) , आदमजाद (सुकेश साहनी) सम्बन्ध, सेफ,ईश्वर का न्याय और चौखट (ओम शर्मा) लघुकथाएँ पुत्री–जन्म को देय दृष्टि से देखने वालों पर कटाक्ष करती हैं। लड़कियों को हिकारत की दृष्टि से देखने वाली गुप्ताजी की अंधविश्वासी सोच पर करारा व्यंग्य है ‘खुश खबर’ में जिस्पों पंडितजी की सलाह अनुसार सात गरीब कन्याओं को भोजन कराने के परिणाम–स्वरूप ही उनके यहाँ कुल–दीपक पैदा होता है। सुरेश शर्मा की ‘रुकावट’ और ‘ मानसिकता’ भी ऐसे ही संकीर्ण सोच की ओर इंगित करती लघुकथाएँ हैं!
आज भी लड़का–लड़की के बीच भेद किया जाता हैं। बेटी की तुलना में बेटे को वरीयता दी जाती है। उसके नखरे उठाए जाते हैं। भाई–बहन की परस्पर मारपीट में माँ अकसर बेटे का पक्ष लेती है और पूरा दोष बेटी पर मढ़ देती है (लड़का–लड़की: नरेन्द्र कौर छाबड़ा‘) लड़की (श्यामसुंदर दीप्ति) में एक बहुत ही महीन बात की ओर संकेत किया गया है। यदि पहले बेटी के जन्म की कामना की भी गई है तो महज इसलिए कि बाद में रोने वाले बेटे को रखने–संभालने–खिलाने के लिए कोई तो चाहिए। इस दृष्टि से भी लड़की का इस्तेमाल करने से लोग नहीं चूकते। कई बार स्त्री स्वयं नहीं जानतीं कि वह क्या कर रही है। जाने–अनजाने वह स्वयं को कमजोर मान लेती है। ‘ लड़का–लड़की’ (सूर्यकांत नागर) में सात वर्षीय सोनू भीड़ भरी सड़क पर तेजी से जा रही माँ की साड़ी का पल्लू बार–बार पकड़ रहा है, सुरक्षा की दृष्टि से। माँ जल्दी में है। पल्लू पकड़ने से माँ की गति में बाधा पड़ रही है। जब इस बार फिर सोानू ने पल्लू थामा तो माँ झल्ला पड़ी–‘क्या लड़कियों की तरह बार–बार पल्लू थाम रहा है?...जब महिलाएं अफसर, मंत्री या नेता का घेराव कर उसे चूड़ी भेंट करने की बात करती है, तब भी प्रकारांतर वे स्वयं को कमजोर ही साबित करती हैं। चूडि़याँ पहनाकर वह संबंधित को औरत की भाँति कमजोर और लाचार सिद्ध करना चाहती हैं। चूडि़यों को वे कमजोरी का प्रतीक मानती हैं।
स्त्री–प्रताड़ना के और भी तरीके हैं। पति इसलिए मौज–मस्ती करता है, बिना कोई काम–धंधा किए क्योंकि पत्नी कमा रही है, भले ही नौकरी करके या मजदूरी करके (सामंजस्य: पवन शर्मा)। ‘नौकरानीी’ लघुकथा में पुराने नौकर की इसलिए छुट्टी कर दी जाती है, क्योंकि कथानायक ने शादी कर ली है। रोटी–पानी के लिए बिना वेतन की नौकरानी जो आ गई है। शरीर में देव आने का बहाना बनाकर आलसी, कामचोर पति को सबक सिखाती है फूली, पति के अंदर बैठे कथित भूत को भगाकर (फूली:भगीरथ)।
बेटी और बहू के बीच भेद की मानसिकता आज भी है। बेटी के लिए ससुराल में सब तरह की सुख–सुविधा की कामना करने वाली माँ,बहू के संदर्भ में यह सब भूल जाती है। बेटी के लिए एक छ़त्र राज्य की अपेक्षा रखने वाली स्त्री को भरे–पूरे परिवार में दिन–रात खटने वाली बहू की चिंता नहीं है। यह तथ्य सुकेश साहनी की लघुकथा ‘पितृत्व’ में बड़ी शित से उजागर हुआ है! एक अन्य लघुकथा है जिसमें माँ बेटी से तो मायके में दो–चार दिन ओर रुक जाने का आग्रह करती है, मगर बहू के मायके से शीघ्र लौट आने की हिदायत देती है।
पति–पत्नी के बीच की नोक–झोंक, विश्वास–अविश्वास के पृष्ठ में ‘शाश्वत प्रेम’ की एक धारा भी बहती रहती है (‘संवाद और’खुली किताब’–सतीश राठी) ! ‘संवाद’ में पति के पन्द्रह दिनों के लिए शहर से बाहर जाने की खबर मात्र से पति–पत्नी के बीच पिछले दिनों से पसरा अबोला टूट जाता है, ब‍र्फ़ पिघल जाती है। बिछोह का दुख असहय होता है। पत्नी तो पति के विवाह–पूर्व के पर–स्त्री रिश्तों को बर्दाश्त कर लेती है, मगर पुरुष के लिए यह आसान नहीं होता (खुली किताब)। कैसी विडम्बना कि पुरुष सदैव कोरी, पवित्र पत्नी की कामना करता है, स्वयं भले ही भ्रष्ट हो! देह की शुचिता केवल स्त्री से अपेक्षित है, पुरुष से नहीं। बल्कि जैसा कि ‘खुली किताब’में इंगित है, दूसरी औरतों से संबंधों को पुरुष अपनी मर्दानगी मानता है और इसी भाव–बोध से अपने प्रेम–प्रसंगों को बेशर्मी से सुनाता है। दरअसल, पुरुष दोहरे मापदण्ड अपनाता है। घर में वह बहू, बेटी,बीवी को घूँघट में रखना चाहता है, पर घर के बाहर उसे बिकनी वाली सुंदर स्त्री चाहिए। लारा कंडिला की कृति ‘मैं पतलून पहनना चाहती हूँ।‘ में ऐसे ही पुरुषवादी सोच की बखिया उधेड़ी गई है।
स्त्री को समझना कठिन है। वह कब किसे माथे का सिंदूर बना ले और कब प्रेमी से मिलकर पति की हत्या करवा दे, कहना कठिन है। देखकर आश्चर्य होता है कि शिक्षित, स्वावलम्बी औरतें भी जीवन भर अत्याचारी। असंवेदनाशील पति को ढोती रहती है। शायद भारतीय स्त्रियों के इसी चरित्र से भारतीय परिवार बचे हुए हैं। भगीरथ की लघुकथा ‘पिता,पति, पत्नी’ का शराबी, कामचोर पति, पत्नी पर अत्याचार करता है तो बेटा माँ से गुस्से में कहता है कि इस घर को छोड़कर हम कहीं ओर चले, मगर पत्नी का जवाब होता है–‘नहीं बेटा, तू तो अलग हो सकता है,मेरे करम तो इसी से बँधे हैं। हालाँकि इस तरह की सोच अनेक प्रश्नों को जन्म देती है, पर वह एक स्वतंत्र बहस का विषय है।
दहेज का दानव मुँह फाड़े खड़ा है। बहुओं की आहुतियाँ दी जा रही हे।। अनिन्दिता की ‘ अभियान’ और श्यामसुन्दर अग्रवाल की ‘खरीदी हुई मौत’ दहेज की कुप्रथा पर प्रहार करती विचारपरक लघुकथाएं हैं। ‘अभियान’ में तो खाई–पीई उन कथित समाज सेविकाओं की भी खिल्ली उड़ाई गई है जो दहेज के विरुद्ध आवाज़ उठाने का नाटक करती हैं।
कई बार औरत ही औरत की दुश्मन होती है। युवा पत्नी के मर या मार दिए जाने के बाद चिता की अग्नि शांत भी नहीं होती हैं कि घर की बूढ़ी औरतें लड़के के दूसरे ब्याह के लिए नई–नई लड़कियाँ सुझाने लगती हैं। असंवेदनशीलता की हद तो तब पार होती है, जब शोक व्यक्त करने आई औरतों में से एक लड़की की सास को ढाँढस बंधाते हुए कहती है–‘हौसला रख, सुरेश की माँ। भगवान का लाख–लाख शुक्रिया है कि तेरा सुरेश एक्सीडेंट में बच गया। बहुएँ तो बहुत मिल जाएगी, पर बेटा और कहाँ से लाती तू?’ यह स्वर है धर्मपाल साहिल की लघुकथा ‘औरत से औरत तक’ का। इसी प्रकार एक स्त्री दूसरी को बर्दाश्त नहीं कर पाती। मालकिन, युवा महरी को इस भय के कारण नौकरी से निकाल देती है कि कहीं वह पति पर डोरे डालना शुरू न कर दे! आज तो उसने मालकिन की रंग–बिरंगी बिंदिया उठाकर माथे पर चिपका ली, कल कहीं पति के नाम का मंगलसूत्र गले में न डाल ले! अरुणा शास्त्ऱी की लघुकथा ‘बिंदिया’ इसी तथ्य को रेखांकित करती है। डॉ0 सतीश दुबे की ‘जिंदगी’ में वेश्या की बेबसी, ‘अनुबंध ’ में अंहकारी बहू, ‘कुंती’ में माँ का उदार रूप ‘भूरी में स्त्री के पर–पुरुष के सामने परोसे जाने की विवशता का मनोवैज्ञानिक चित्रण है।
पुरुष सकारात्मक समाज में औरत को सदैव दोयम दर्जे का माना गया है। मनु ने तो यहाँ तक कहा था कि स्त्री को स्वाधीन नहीं रहना चाहिए। उसे नियंत्रण में रखा जाना चाहिए क्योंकि उसकी कामना को संतुष्ठ किया ही नहीं जा सकता। हीगेल और नीलो के अनुसार स्त्री एक अनैतिहासिक और अविकसित इकाई है। जबकि बुराई की जड़ तो पुरुष है। वह औरत को कुर्सी–मेज की तरह इस्तेमाल करता है। यदि स्त्री को पुरुष–शोषण से बचना है तो उसे शिक्षि्त, विवेकशील, आत्म–विश्वासी और आत्म–निर्भर बनना होगा। सवाल आगे बढ़ने या प्रतिस्पर्धा का नहीं, बराबरी का होना चाहिए। सम्मान से जीने का। नारी–मुक्ति और मुक्त नारी में अंतर किया जाना चाहिए। विद्रोह,प्रतिशोध या आंदोलनात्मक आवेश से मूल ध्येय से भटक जाने का खतरा है। तब पूरी ताकत आंदोलन को सफल बनाने में लग जाती है। आक्रमण,प्रतिआक्रमण। पश्चिम का अंधानुकरण भारतीय समाज के उदात्त पक्ष को नष्ट–भ्रष्ट कर देगा। लघुकथाएँ परस्पर समझ विकसित कर नारी–चेतना जाग्रत करने का महत्त्वपूर्ण काम कर सकती हैं, कर रही हैं और उम्मीद है, भविष्य में और तीव्रता से करती रहेगी।

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