लघुकथा ऐसी रचना है, जिसका फलक (कैनवास) और आकार कहानी से छोटा होता है। वह प्रभाव में तेज और तीखी होती है। भारत और विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में लघुकथाएँ लिखी गई है और लिखी जा रही हैं। हिन्दी और गुजराती में इसे लघुकथा कहते हैं, पंजाबी में मिनी कहानी, उर्दू में अफसांचा कहते हैं। उर्दू में मंटो, जोगिंदर पाल, गुजराती में सावेरा देसाई और मोहन लाल पटेल पंजाबी में हमदर्द नौशहरबी और वरियाम संधू में अपनी भाषा में इस साहित्य–प्रकार की पुख्ता जमीन दी है। रूसी भाषा में स्काज़का नाम की एक विधा है जो हिन्दी की लघुकथा से काफी मिलती–जुलती है। इसमें तुर्गनेव,चेखव,ब्रतोल्त,ब्रेख्त,मिखाइल जोसेन्को आदि प्रसिद्ध लेखकों ने काफी रचनाएँ लिखी हैं। अंग्रेजी में कार्ल सैंडबर्ग, अरबी में खलील ज़िब्रान जैसे समर्थ लेखकों ने बेहतर लघुकथाएँ दी हैं। इन सबसे एक बात स्पष्ट होती है कि भारत और विश्व की प्रमुख भाषाओं में मुख्य धारा के लेखकों ने भी लघुकथा पर कलम चलाई है, किन्तु इसे अभिव्यक्ति के मुख्य या एकमात्र माध्यम के रूप में ग्रहण नहीं किया। इसका बड़ा कारण लघुकथा की आकार–सीमा है, किन्तु इन्हीं लेखकों की लघुकथाओं ने इसकी शक्ति व प्रभाव को प्रमाणित भी किया है।
हिन्दी में लघुकथाएँ सन 1960 से पहले साहित्य के दरवाजे पर दस्तक देने लगी थी, जहाँ माखन लाल चतुर्वेदी, विष्णु प्रभाकर, सुदर्शन, हरिशंकर परसाई, उपेन्द्रनाथ अश्क आदि ने इस दिशा में कलम चलाई। कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर ने ‘‘आकाश के तारे धरती के फूल’’ (1952) रामप्रसाद रावी ने ‘‘मेरे कथागुरु का कहना है’’ (1950) तथा श्यामनंदन शास्त्री ने ‘‘पाषाण और पंछी’’(1962) संग्रहों से इसकी सशक्त पृष्ठभूमि भी बना दी। किन्तु इन संग्रहों पर वेदों, उपनिषदों की संदर्भ कथाएँ तथा रेखाचित्र और संस्मरण विधाएँ हावी हैं। ‘‘पाषाण और पंछी’’ में सामाजिक–राजनीतिक दबावों के कारण अवश्य टटकापन है। इन्हीं एक धारा के रूप में प्रवाहित करने वाले लेखकों और उत्साहित करने वाले आलोचकों का अभाव रहा। इस कारण सातवें दशक में लघुकथा सोई सी रही।
लघुकथा के विस्तार–फलक का महत्वपूर्ण प्रश्न सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों रूपों में विचारणीय है। इसकी प्रभान्विति के गुण को देखते हुए कुछ अतिउत्साही लेखकों ने इसे शब्द–सीमा में बांधने का प्रयास किया है। किन्तु कथा के किसी प्रकार को शब्द–सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। वस्तुपरकता के प्रश्न से दूर होकर ऐसे सतही सीमाओं के बारे सोचना वास्तव में गैर–रचनात्मकता का ही उदाहरण है। कहानी और कविता अपने सामान्य आकार का अतिक्रमण करके लम्बी कहानी और लम्बी कविता की ओर बढ़ रही है। ऐसे में लघुकथा की बाह्य सीमाएँ बनाने से वह यथार्थ के अनेक विधा पहलुओं से दूर हो जाएगी। यह तो उसकी विषय–वस्तु पर निर्भर करता है। कई बार उसके पाँच-सात पंक्तियों भी पर्याप्त हैं, तो कई बार एक पृष्ठ भी छोटा पड़ जाता है। इतना अवश्य है कि अधिक शब्द–विस्तार अथवा लंबी चौड़ी भूमिका का अवसर लघुकथा में नहीं होता है।
इसी प्रकार 1980 के आसपास कुछ महत्वाकांक्षी व्यक्तियों द्वारा लघुकथा के लिए एक घटना, एक स्थिति, एक या दो पात्र जैसी सीमाएँ बनाने की कोशिश की गई। किन्तु ऐसे प्रश्न उभारकर रचना–कर्म के वास्तविक उद्देश्य को उपेक्षित करने की कोशिश की गई। लघुकथा में घटना एक भी हो, सकती है, एक दो अधिक भी और एक भी नहीं हो सकती। सभी संभावनाएँ लेखक के सामने खुली हैं। रचनात्मक कौशल से बड़े फलक पर भी लघुकथा लिखी जा सकती है। वास्तव में सिद्धांत रचनाओं में से ही जन्म लेते है। यदि उन्हें बाहर से लागू करने का प्रयास किया जाएगा, जो या तो रचना नहीं रहेगी या सिद्धांतों को झूठा पड़ना होगा।
व्यावहारिक धरातल पर हिन्दी लघुकथा की रचनाशीलता का विस्तार–फलक परखना हो तो सीधे सन् 1973 में प्रकाशित चार लघुकथा विशेषांकों पर आना चाहिए। कमलेश्वर के संपादन में ‘‘सारिका’’ का लघुकथांक आया इसी समय ‘स्वदेश’ का विशेषांक भी आया। इनकी लघुकथाओं में राजनीतिक व्यंग्य प्रमुख था। उधर अम्बाला छावनी से ‘तारिका’ तथा कैथल (हरियाणा) से ‘दीपशिखा’ के लघुकथांक प्रकाशित हुए, जो समाजार्थिक धरातल पर मानवी संवेदना की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में सामने आए। उस समय के भारतीय परिवेश को देखें, तो स्पष्ट हो जाएगा कि अभिव्यक्ति के लिए एक नए माध्यम की तलाश की जा रही थी। कहानी और कविता के क्षेत्र में अकहानी और अकविता आदि आंदोलन रचना के परम्परागत ढांचे को नकारने के साथ–साथ परम्परागत मूल्यों को भी अस्वीकार कर रहे थे। अत: जहाँ प्रौढ़ लेखकों ने कविता और कहानी में ही नए ढाँचे बनाने के प्रयास किए, वहीं युवा–मन को लघुकथा के रूप में अभिव्यक्ति का नया माध्यम मिल गया।
किन्तु ‘‘सारिका’’ जैसी लोकप्रिय, व्यावसायिक पत्रिका के तीखे तेवर युवामानस के लिए अधिक आकर्षक थे। इसी कारण हिन्दी लघुकथा में व्यंग्य प्रधान, सीधी–सपाट, वर्णनात्मक रेडीमेड यथार्थ की लघुकथाओं की देखते–ही–देखते भरमार हो गई। यहीं से लघुकथा के फलक के संदर्भ में सीमाएँ बननी भी आरम्भ हो गई। इस धारा का नेतृत्व प्राय: नये, महत्वाकांक्षी और अनगढ़ लेखकों ने किया, जिन्हें रचनात्मक दबावों से सरोकार नहीं था। अत: छह–सात वर्षों में लघुकथा की दर्जनों परिभाषाओं ने जन्म लिया, तीन दर्जन से अधिक संपादक बने तथा पाँच सौ से अधिक लघुकथाकार ये मात्र लघुकथा तक सीमित थे वह भी सतही लघुकथाओं तक, क्योंकि यहाँ परिश्रम करने यथार्थ का अन्वेषण करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। इनकी लघुकथाओं में नेता, कुर्सी, पुलिस आदि के बने बनाए विषय ही मोटे तौर पर दीखते हैं। यद्यपि इस धारा से भी भाग्यवादी और निष्क्रिय पात्र गायब थे। गुलशन नंदा वाद का दूर तक कहीं पता नहीं था। किन्तु ये लघुकथाएँ बनी–बनाई संवेदन प्रणालियों से बाहर झाँकती तक नहीं। अत: ये सीमित फलक को अपनाए रही।
इसके समानांतर लघुकथा को यथार्थ के दबाव महसूस कर उसे गंभीर व कलात्मक रूप में अभिव्यक्त करने के माध्यम के रूप में प्रयास होते रहे। इन्हें प्रारम्भ में तो साहित्यिक पत्रिकाओं में भी बहुत कम स्वीकार किया। ऐसे लेखकों में हरिशंकर परसाई, असगर, रमेश बतरा, भगीरथ, विष्णु नागर आदि आते हैं। परसाई की लगभग लघुकथाओं में देख की बड़ी सच्चाइयाँ भी प्रभावपूर्ण ढंग से उजागर की गई हैं। अपने अनुभव का बारीक विश्लेषण करते हैं, जो किसी बड़ी सच्चाई के अंग के रूप में सामने आता है। लेखक ने विसंगतियों और अंतविरोधों को मूल रूप में पकड़कर उस के पीछे सक्रिय विभिन्न तत्वों से जोड़कर उन्हें व्यापक अर्थ में उद्घाटित किया है। इस कारण ये प्रभाव में अपने आकार का अतिक्रमण करे विस्तृत फलक पर जा पहुँचती है। इसी प्रकार विष्णु नागर की ईश्वर की कहानियाँ का नाम से लगभग पचास लघुकथाएँ विविध वैचारिक आयाम लिए हुए हैं। चिंतन के धरातल के विस्तृत फलक लेकर चलती हैं।
ये दोनों धाराएँ यथार्थ के विभिन्न पहलुओं को लेकर चलती हैं। किंतु पहली धारा यथार्थ के अन्वेषण से बचती रही। सन् 1980–82 के बाद दूसरी धारा निरंतर प्रबल हो रही है। अधिक बात को लघुकथा में कहने के विभिन्न प्रयोग भी हुए हैं। मशकर जावेद ने ‘‘कैबरे’’ और भगीरथ ने ‘‘हड़ताल’’ लघुकथाओं में एक–एक वाक्य के स्थान पर एक–एक शब्द का प्रयोग किया है। इसमें शब्द की पच्चीकारी ‘‘मोजक वश, से जिस शिल्प को उभारा है, वह यथार्थ के विस्तृत क्लक को पकड़ने का सफल प्रयास है। ‘‘हड़ताल’’ का एक अंश देखें–
माँग–पत्र सभा, आम सभा, मेनेजमेंट, बातचीत खत्म, लेबर कमिशनर बात चीत, बीच–बचाव, फेल्योर रिपोर्ट, आम सभा, गर्मागर्म जनसभा तेज–तर्रार आक्रोशी चेहरे, बंधी मुट्ठियाँ जूलूस, नारे, गगनभेदी, –मैंनेजमेंट कान में रुई–दिल में षडयंत्र, धन की, एक्शन....
अत: छोटे आकार का अर्थ छोटे फलक से अनिवार्यता नहीं हो सकता। बड़े फलक पर था, जटिल यथार्थ को लेकर लघुकथा लिखना वास्तव में एक चुनौती है। हिन्दी लघुकथा की दूसरी धारा की लघुकथाओं से स्पष्ट है कि लघुकथा के रूप में एक रचना की आकारगत सीमाएँ होने के कारण वह जटिल, सूक्ष्म यथार्थ के किसी एक पक्ष का प्राय: स्पर्श–भर कर सकती है। किन्तु वह उसके उसी पक्ष को उठाती है, जिसे कहानी में या तो उद्देश्य नहीं बनाया जा सकता या उस उद्देश्य के संदर्भ में वहाँ वैसी प्रभविष्णुता नहीं लाई जा सकती।
वे लघुकथा को इस चुनौती को स्वीकार करना होगा। साथ ही यथार्थ के दबावों के अनुसार लघुकथा के रूढ़ आकार को तोड़ना होगा। इसलिए लघुकथा में लघु आकार का बाहरी व भीतरी–दोनों स्तरों पर अतिक्रमण करने की आवश्यकता प्रतीत होती है।
प्रश्न उठता है कि यदि लघुकथा आकारगत सीमाओं के कारण विस्तृत फलक पर सामान्यत: निर्वाह करने में सक्षम नहीं है, तो क्या वह कम महत्वपूर्ण हो जाती है। ऐसा नहीं है। भीष्म साहनी ने ‘तमस’ उपन्यास में साम्प्रदायिकता के विभिन्न पक्षों को कुशलता से रेखांकित किया है। फिर भी उन्हें अमृतसर आ गया है– और ‘झुटपुटा’ जैसी कहानियाँ लिखने की आवश्यकता अनुभव हुईं एक उपन्यास में भी एक समस्या के सभी पक्षों को पाठक की निगाह में उतारना कठिन होता है। ऐसी स्थिति में लघुकथा यदि अपने फलक की सीमाओं में रहकर भी विविधपक्षीय जटिल समस्या के विभिन्न पक्षों पर संख्या में अधिक लघुकथाएँ लिखना भी अपनी तरह से उपयोगी होगा। इस दृष्टि से ब्रतोल्त की कहानियाँ देखा जा सकती है।
अत: यथार्थ के विविधमुखी पक्षों को व्यक्त करने के लिए लघुकथा को अपने रूढ़ आकार से बाहर आना होगा। साथ ही आवश्यकतानुसार विभिन्न प्रयोग भी करने होंगे।