लघुकथा की इतिहास–यात्रा पर विचार करने पर इसके दो व्यापक काल–खंड बनते हैं : प्राक्–स्वातंत्रय–काल तथा स्वातंत्र्योत्तर–काल। लघुकथा का अस्तित्व–प्राक्–स्वातंत्र्य–काल में भी मिलता है, जिसका निर्देशन अनेक आलोचकों ने किया भी है, किंतु जिस शिल्पनिकष पर हम लघुकथा को स्वतंत्र साहित्य–विधा के रूप में स्वीकार करतें हैं, उसका विकसित अस्तित्व स्वातंत्र्योत्तर–काल में ही मिलता है। यह भी सत्य है कि लघुकथा का तब कोई लक्षण–निकष और आलोचना–शास्त्र न तो संस्कृत में उपलब्ध है, न ही अंग्रेजी में। साहित्य–विधा के रूप में इसका स्वतंत्र अस्तित्व अब केवल हिन्दी में है। यही कारण है कि लधुकथा का शास्त्रीय आधार–मान हिन्दी की अपनी जमीन पर ही निर्मित हुआ है, अथवा हो रहा है।
लघुकथा के अपरिष्कृत मूल के इतिहास पर विचार किया जाए तो इसका प्रारम्भिक अस्तित्व ऋग्वेद की उन लघुकथाओं में देखा जा सकता है, जिन्हें हम यम–यमी, पुरुरवा–उर्वशी तथा सरमा–परिगण–संवाद कहते हैं, और जिनका उपस्थापन लाक्षणिक कथ्य स्थापन के लिए हुआ है। गुणाढ्य की वृहत्कथा भारतीय कथा और लघुकथाओं का का आदिग्रंथ है, जो अपनी विशालता, रोचकता और संप्रेषणीयता में आज भी विश्व का प्राचीनतम और महत्तम ग्रंथ है। इस एक आदिग्रंथ से ही रूपांतरण–क्रम में अनेक कथाग्रंथ आए, जैसे बुधस्वामीकृत बृहत्कथाश्लोक–संग्रह, क्षेमेंद्रकृत बृहत्कथा–मंजरी और सोमदेवकृत कथादिरत्नाकर। फिर पंचतंत्र और हितोपदेश का महत्त्व है। जातक–कथा भी अपनी शृंखला तथा विशिष्टता में उल्लेखनीय इतिहास रखती है। भारतीय वाड्.मय का यह ‘‘कथामूल’’ अनेक रूपों और विधाओं में संस्कारित–शिल्पित हुआ हैं
विदेशी भाषा–संदर्भ में विचार करने पर ईसप–नीतिकथा की विश्वजनीज लोकप्रियता सिद्ध हुई है। ‘‘जादूगरों की कथाएँ’’ भी लोकसिद्ध हुई। बृहत्कथा, पंचतंत्र, ईसपनीतिकथा और जादूगरों की कथाएँ जैसी रचनाएँ ईस्वीपूर्व पाँचवी से सातवी शताब्दी के मध्य की हैं। इन्हें हम विश्व का आदि कथास्रोत कहें तो अतिशयोक्ति न होगी।
हिन्दी में कहानी–साहित्य का विकास बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में हुआ है, जबकि पश्चिम में इस साहित्य–विधा का अस्तित्व उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में। पश्चिम में कहानी–साहित्य के प्रथम शिल्पित प्रवर्तन के लिए जो स्थापना उपस्थित की गई है, उसके अनुसार चार देशों के लेखक–समूह को महत्व दिया गया है। जर्मनी के ई0टी0डब्ल्यू हॉफमैन, इंगलैंड के वाशिंगटन इर्विंग, रूस के एलेक्जेंडर पुश्किन और निकोलाई गोगोल,फ़्रांस के प्रॉस्पर मेरिमी एवं बाल्जाक, जिन्होंने 1814 ई0 से 1834 ई0 तक जो कहानियाँ लिखीं और उनमें प्रयोग किए , उनसे कहानी का आधुनिक ‘‘आरंभ’’ होता है। इसी काल–सीमा में पो,मोपासाँ और ओ0 हेनरी के नाम आते हैं।
हिंदी में प्रथम कहानी दुलाईवाली मानी जाती है, जिसका प्रकाशन 1907 में ‘‘सरस्वती’’ में हुआ था। प्रेमचंद भी ‘‘सोज़ेवतन’’ कृति के साथ इसी वर्ष आए। 1911 ई0 में जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘‘ग्राम’’ का प्रकाशन ‘इंदु’’ में हुआ था।
इसी वर्ष चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘‘सुखमय जीवन’’ का प्रकाशन हुआ। धीरे–धीरे शताधिक कहानीकार आए। सहस्राधिक कहानी–संग्रह छपे कहानी से छोटी कहानी का विकास हुआ। फिर नई कहानी, समांतर कहानी, सचेतन कहानी और अकहानी का विकास–रूप मिलता है। अंत में ‘‘लघुकथा’ का अस्तित्व होता है।
‘‘लघुकथा’’ की विधागत शास्त्रीयता के विश्लेषण–क्रम में यह संक्षिप्त रेखा–रूप उपस्थित करना आवश्यक इसलिए भी था कि ‘‘लघुकथा’’ को स्वतंत्र साहित्य विधा के रूप में विवेचित किया जा सके। उपन्यास के विविध रूप हैं, किंतु कहानीका विकास स्वतंत्र रूप से हुआ है। कहानी और उपन्यास दोनों स्वतंत्र साहित्य–विधाएँ हैं। उपन्यास को संक्षिप्त कर कहानी का स्वरूपण नहीं हो सकता। जो उपन्यास संक्षिप्त होकर कहानी भी बन जाए, वह मूलत: उपन्यास था ही नहीं। इसी तरह जो कहानी फैलकर उपन्यास बन जाए, वह मूलत : कहानी थी ही नहीं। यही कारण है कि दोनों साहित्य–रूपों को एक ही विधा में व्यवस्थित नहीं किया जा सकता। इस भूमिका का निष्कर्ष इतना–भर है कि लघुकथा एक स्वतंत्र साहित्य–विधा है। कहानी, लंबी कहानी, छोटी कहानी, नई कहानी, सचेतन कहानी, समांतर कहानी, अकहानी इत्यादि विभिन्न नामों से प्रतिज्ञात कहानियाँ समवेत–रूप से साहित्य की कहानी–विधा में ही व्यवस्थाप्य हैं। इनमें विधांतर नहीं है। परंतु ‘‘लघुकथा’’ को कहानी–विधा में व्यवस्थित–स्थापित करने में कठिनाई होगी। लघुकथा कहानी का विकासचरण नहीं, वरन् स्वतंत्र संचरण है। कहानी और लघुकथा में कथा, कथ्य, भाषा, शैली, प्रतीक, संवाद इत्यादि अनेक निकष–आधार पर भिन्नताएँ हैं।
लघुकथा को न तो कहानी में तब्दील किया जा सकता है, न ही कहानी को लघुकथा में रूपांतरित किया जा सकता है। दोनों के रंग–रूप, गंध–स्वाद एवं भाव–प्रभाव में केवल अंतर ही नहीं, स्वतंत्र अस्तित्वशीलता भी है।
तात्पर्य यह है कि लघुकथा साहित्य की स्वतंत्र विधा है। अत: इसकी रचनाधर्मिता, रचना प्रक्रिया आस्वादन–प्रक्रिया एवं मूल्यांकन में कहानी के एतद्विषयक शास्त्र या लक्षण–निकष के काम नहीं चलेगा। सोना परखने के पत्थर पर हीरा नहीं परखा जा सकता। उसके लिए निकष का अनुसंधान करना पड़ेगा। मूल पहले बनता है, मूल्यांकन परवर्ती क्रिया है। इसीलिए मूल्यांकन–मान भी बाद में बनता है। आज हिंदी–साहित्यत्येतिहास के अंतर्गत ‘‘लघुकथा’’ स्वतंत्र साहित्य–विधा के रूप में अस्तित्व में है, पर इसका मूल्यांकन–शास्त्र, लक्षणग्रंथ, आस्वादन–धर्म, रचना–प्रक्रिया इत्यादि अनुवर्ती शास्त्र अनुपलब्ध हैं तो किसी विशेष चिंता की बात नहीं है, क्योंकि पाठक, विचारक और स्वयं लघुकथाकार अपने साथ :उत्पन्न उद्गार तथा द्वंद्वशील विचारों के माध्यम से इसका लक्षणशास्त्र तथा निकष–प्रस्तर निर्मित कर लेंगे।
प्रबंध–शीर्षक : लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता में जो स्थापना–प्रतिपत्तियाँ हैं, वे इस श्वेतपत्र के घोषणा–सूत्र हैं। अपनी अनौपचारिक विनय के साथ मैं यह पहले ही कह देना अपना कर्तव्य और दायित्व समझता हूँ कि यहाँ जो कुछ कहा जा रहा हैं, वह न तो सर्वांगीण है, न ही अंतिम। लघुकथा साहित्य की एक स्वतंत्र कथाविधा है और इसके स्वतंत्र समीक्षण–शास्त्र निर्मित होने चाहिए। बस, अपनी स्थापना में मैंने ये ही दो बातें उपस्थापित की हैं। साथ ही, में यह भी कह दूँ कि अपनी ओर से ये दोनों शब्द–सूत्रों का उद्घोषणा ही इस आलोचना–पत्र का इत्यलम् भी है। शेष पर विचार हमारे पाठक, समालोचक और लघुकथाकार करेंगे। फिर वाद और विवाद के चिंतन–परिसर में तत्व–बोध तो होगा ही। फिर भी, क्योंकि ये दोनों स्थापनाएँ मैंने आपके समक्ष निवेदित की हैं तो इस पर अपने कुछ विचार और चिंतन भी रखना चाहूँगा। सबसे पहले मैं लघुकथा में ‘‘कथा’’ शब्द का व्याख्यान करना चाहूँगा और यहाँ भी अपनी इस स्थापना को आपके सामने रखना चाहूँगा कि साहित्य की सभी विधाओं का मूल है ‘‘कथा’’। यहाँ कथा पर विचार इसलिए भी है कि ‘‘कथा’’ का सीमा–निर्धारण करने वाले आलोचकों ने कथाक्षेत्र का परिसीमन करते हुए कहा है कि कथा–विधा में चार साहित्य–रूप आते हैं : कहानी, उपन्यास, एकांकी और नाटक। इस स्थापना से आलोचक ऊपर–नीचे, दाएँ–बाएँ, वंकिम–तिर्यक् और कहीं जाना पसंद नहीं करते। वे लघुकथा की कहानी–विधा में अंतभुर्क्त कर निश्चिंत हो जाते हैं। अधिक प्रसन्न होने पर वे इतना जरूर कहते हैं कि लघुकथा कहानी का आधुनिकतम रूप और विकास है। बस, और कुछ नहीं। यह स्थापना ही भ्रांतियुक्त है कि ‘‘लघुकथा’’ कहानी–विधा के भीतर व्यवस्थाप्य है। जैसा कि मैंने निवेदन किया कि लघुकथा साहित्य की स्वतंत्र विधा है। ‘‘कथा’’ शब्द–प्रयोग के कारण जो भ्रांतियाँ हुई हैं, उनके निराकरण के लिए ही ‘‘कथा’’ शब्द पर पुनराख्यान अनिवार्य बना है।
मैंने एक स्थापना यह उपस्थित की कि साहित्य की सभी विधाओं के मूल में कथा है। कहानी, उपन्यास, एकांकी और नाटक को स्पष्ट रूप से कथा की संज्ञा दी गई। जीवनी और आत्मकथा, संस्मरण तथा यात्रा–वृत्तांत भी कथा या कथाधारित हुए बिना विधासिद्ध नहीं हो सकते। प्रगीत, खण्डकाव्य और महाकाव्य में सर्वथा कथाधार होता है। रिपोतार्ज और ललित निबंध, साहित्येतिहास एवं साहित्यालोचन सभी कथाधारित साहित्य–विधाएँ हैं। इसी प्रकार साहित्य की शेष सभी विधाएँ (संख्या में 35) कथामूलीय और कथाधारित हैं। यहाँ प्रत्येक साहित्य–विधा के साथ ‘‘कथा–तत्व’’ की अपरिहार्य एवं अनंशनीय आधार–शिला–शीलता के विश्लेषण का अवकाश नहीं है, इसलिए केवल विचारसूत्र रखा गया। यहाँ समर्थन में यह विचार भी असमीचीन नहीं होगा कि प्रत्येक ‘शब्द’’ भूमिखंड और कथा–प्रांगण है। इसीलिए आधुनिक भाषा विज्ञानी और साहित्यशास्त्री ने ‘‘शब्द–भूगोल’’ और ‘‘शब्द–कथा’’ पर अनेक गंभीर ग्रंथ लिखे हैं। अर्थ की तरंग की महत्ता के बावजूद शब्द प्राथमिक और अनिवार्य है। कथा की भूमिका शब्द की तरह है। राजशेखर शब्दार्थ–चिंतन–प्रसंग में जिस अर्थसंप्रेषणीय को ‘‘सुविचारित मुग्ध’’ और ‘‘अविचारित रमणीय’’ कहते हैं, वे शब्द से ऊपर उठते चले गए हैं, परन्तु उनकी विदुषी पत्नी अवंतिसुंदरी कहती हैं कि यह सच है कि शब्द से ऊपर उठ जाता है, परन्तु वहाँ फिर अर्थ के मस्तक पर उस शब्द का मुकुट बैठ जाता है, तभी वह अर्थ संवेद्य और सनातन सिद्ध हो सकता है। शब्द आरम्भ और अंत दोनों ही है। वही अथेति है। बीच में अर्थ की तरंग शब्द और शब्दशक्ति से अनुशासित और शोभनीय बनती है। अर्थवत् ‘‘कथ्य’’ शब्दवत् कथा से ही उत्पन्न होता है।
लघुकथा में यह ‘‘शब्दार्थ’’–तत्व, जिसे हम यहाँ ‘‘कथाकथ्य’’ कहना अधिक समीचन और सार्थक समझते हैं, जिस अर्धनारीश्वर–भाव से विद्यमान होता है, वह अन्यत्र कठिनतर है।
कहानी में कथा और कथ्य साफ–साफ दीखते हैं, शब्द और अर्थ की तरह भूमिखंड और इतिहास के कालबोध की तरह, पर लघुकथा में संपूर्ण कथा ही कथ्य बन जाती है अथवा संपूर्ण कथ्य ही कथरूप ले लेता है। ऐसी अविभाज्यता, परस्पराश्रयण, अर्धनारीश्वरता तथा संधि–समस्त–पद–अर्थ–शय्या–शीलता अन्यत्र दुर्लभ है।
गुलाब, रजनीगंधा व कमल में लताएँ और फूल अलग–अलग दिखते हैं। कुछ ऐसी लता, पौधे या वृक्ष हैं, जो अपने वनस्पतित्व में ही पुष्प और पुष्पत्व में ही वनस्पति हैं। गुलमुहर के वृक्ष में अलग से फल नहीं लगते। वह पूरा–का–पूरा वृक्ष ही फूल बन जाता है। हरियाली अचानक लाली में बदल जाती है। फूल ही पेड़ ओर पेड़ ही फूल बन जाता है। दोनों का पृथक्करण नहीं हो सकता। दोनों का अद्वैत अस्तित्व उसका विरल और विलक्षण सौंदर्य बन जाता है। लघुकथा साहित्य की ऐसी विधा है, जहाँ प्रत्येक शब्द अक्षर बन जाता है और संपूर्ण लघुकथा एक शब्द। उच्छिलोंध मशरूम की तरह। लघुकथा में लक्ष्यैकचक्षुष्कता होती है। एक ओर किसी एक ही विन्दु पर त्राटकीय संकेंद्रण होता है। कहानी के लिए जो शास्त्रीय संविधान उपस्थित किया गया, वहाँ ‘‘सिंगुलैरिटी ऑव क्रायसिस’’ कहा गया है। उसे ही लघुकथा के आलोचना–शास्त्र में हम ‘‘लक्ष्यैकचक्षुष्कता’’ कहना चाहेंगे। परीक्षा के क्षण अर्जुन को अब वृक्ष नहीं दिख रहा। उसे अब पक्षी भी नहीं दिख रहा। उसे तो प्रत्यंचित बाणाग्र के समक्ष पक्षी का नेत्र–बिन्दु ही दिख रहा है। पक्षी का तन और वृक्ष का फैलाव है सब कुछ, पर इस संघान–साधना में सब कुछ अदृश्य हो गया है। लघुकथा में उत्तप्त क्षण–विशेष का एकतान ताप दीपशिखा की तरह है। अंधकार के पट्ट पर भास्वर एकाक्षर की तरह यह दीप–शिखा कहीं से खंडनीय नहीं होती। तात्पर्य यह कि लघुकथा में कहीं से कुछ भी पृथक्भाव से महत्वपूर्ण नहीं होता। सभी तत्व और भाव, कथा और कथ्य, शिल्प और सौष्ठव, स्थापत्य और उपस्थापत्य, भाषा और शैली, पद और शय्या एकात्मक अद्वैत हो जाते हैं। यह तने हुए रस्से पर बाजीगर की तरह बिना किसी सहारे के चलने जैसा है। जरा–सी चूक हुई कि गिरे।
लघुकथा में एटम का जो स्फोट–तत्व सन्निहित और सन्निविष्ट होता है, वह अपनी पठन–यात्रा के अंत में विस्फोट करता है। यह विस्फोट बिल्कुल वर्टिकल होता है। एक निर्दिष्ट और रिमोट–कंट्रोल्ड ऊँचाई पर जाकर धमाका होता है। फिर सब कुछ शांत। यह ग्राफ नहीं बन सकता।
अपने असरदार अंदाज के लिए लघुकथा को अलकेमी की वाष्पीकरण–प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इसी प्रक्रिया के कारण होमियोपैथी की एक छोटी–सी गोली में लाख का पावर भर दिया जाता है। इस गोली में बेहिसाब असर होता है। लघुकथा के क्षणबोध की लघिमा में काल को बोध की तरह महिमा चमत्कृत हो सकती है। स्वप्नदर्शन की तरह काल या तो ठहर जाता है, या पिकासो की पेंटिंग की तरह आयामों में पिघल जाता है। पर वहाँ हर हालत में रहता है, क्षण ही। क्षण अपने उबलते तापमान में वाष्प बनकर आकाश भी घेर सकता है, पर अभी तो वह क्षण ही है।
लघुकथा को मैंने ‘‘प्रथमदर्शन–प्रेम’’ या ‘‘फर्स्ट साइट लव’’ के रूप में देखा है। प्यार साहचर्य का उत्तर–परिणम है। साहचर्य की दीर्घता या गुरुता का लघुकथा में कहीं कोई अवकाश नहीं। यहाँ तो देखा और प्यार!! इसीलिए लघुकथा को सुंदरी ही नहीं त्रिपुरसुंदरी होना होगा। इसमें शृंगारण और सम्मोहन का ऐसा सुशिल्पन होना चाहिए कि जिसे देखते ही दिल दे बैठें। देखते ही जो अपनी हो जाए या अपना बना ले। फिर गंधर्व–विवाह। लघुकथा एक गंधर्व–विवाह है। यह कहानी की तरह प्रकल्पित प्रेमविवाह भी नहीं है, न हो उपन्यास की तरह ऐरेंज्ड मैरेज। यहाँ तो सब कुछ शीघ्रता में होता है। हाँ आधार–भूत तत्व में सम्मोहन आसक्ति होनी चाहिए। मूल में क्षण का वही उत्तप्त ताप है। बुद्ध ने इस क्षणबोध को पहचाना था। उन्होंने कहा था–‘‘सब्बं खनिकं’’ (सर्व क्षणिकम्)। लघुकथा क्षण में अनंत का शिल्पित संस्थापन है। यही काल का ध्यानयोग है। एक में अनेक। यही एक का अनेक में आवंटन है। अनेक में एक।
यही काल का द्रवीकरण और संघनन–सिद्धान्त है।
बीसवीं शताब्दी के नवें दशक के अंतिम चरण तक आते–आते ‘‘लघुकथा’’ ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली है। कथा विधा के अंतर्गत लघुकथा का अस्तित्व स्वावलंबी और सर्वस्व लोकप्रिय होने लगा है। लघुकथा के संग्रह और संकलन प्रकाशित होने लगे हैं। इस विधा पर परिचर्चाएँ आयोजित हुई हैं और पत्र–पत्रिकाओं में इसके समीक्षण के अनेक लक्षण उपलब्ध एकत्र होने लगे हैं। फिर भी, यह सत्य है कि हिंदी–में लघुकथा का आलोचना नियम अभी तक सुनिश्चित नहीं हुआ। कथा के उपलब्ध समीक्षा–शास्त्र से लघुकथा का मूल्यांकन नहीं हो सकता।
‘‘लघुकथा’’ के संग्रह–संकलन भी हिन्दी में कम नहीं हैं। कुछ पत्रिकाओं ने साहस कर लघुकथा–विशेषांक अवश्य निकाले हैं सामान्य पत्रिका तथा कथा–पत्रिकाओं के बीच–बीच में लघुकथाएँ व्यवस्थित की जाती रही हैं। इस प्रकार किसी पृष्ठ के छूटे हुए हिस्से पर पूर्ति–परक–क्षेपक–रूप में लघुकथा को छापने की परम्परा रही है। कथा–दौड़ का यह सातवाँ लघुकथा–रूप–पीछे–पीछे चला हुआ, उपेक्षित रहकर भी कालांतर में अब शेष कथाविधाओं के समानांतर चलने लगा है, कई–कई बार कहीं–कहीं तो अरबी घोड़ी (ताजी घोड़ी) पर सवार यह लघुकथारूप आगे निकल गया है।
‘गम्भीर घाव’’ करनेवाला यह ‘‘नावक का तीर’’ अब ध्यानाकर्षण करने लगा है। कथा–साहित्य का यह वामनावतार अब तीनों लोक नापने को चुनौतियाँ देने लगा है। बीसवीं शताब्दी के अंतिम चरणों में यह हिंदीसाहित्येतिहास की मूल्यांकनीय उपलब्धि है।
‘‘लघुकथा’’ छोटी कहानी (शॉर्ट स्टोरी) नहीं है। यह चुटकुला और लतीफा भी नहीं है। यह दिल्लगी और हसी–मजाक भी नहीं, न ही ठठ्ठ और ठिठोरी है। यह अवांतर–कथा, दृष्टांत–कथा या उपदेश–कथा भी नहीं है। यह कोई कहावती मुहावरा या मुहावरेदार कहावत भी नहीं है। यह कोई प्रसंगकथा अथवा एनैक्डोट्स भी नहीं। न तो यह नल–दमयंती,उर्वशी–पुरूरवा–परंपरा की प्राचीन लघुकथा–व्यवस्थित विधा है, न ही पंचतंत्र की ‘‘अभिमंजूषित’’ शृंखला–कथा (एम्बॉक्स्ड स्टोरीज) यह परीकथा और परिकथा भी नहीं है। न तो यह ईसप् नीतिकथा–परम्परा में है, न ही किसी हितोपदेश परम्परा में। इसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व और सत्ता है, व्यक्तित्व और महत्ता है। ऊपर जिन साहित्य–रूपों को सामने रखकर उन्हें नकार दिया गया है, उसका औचित्य–प्रसंग इतना है कि अकसर इन विधाओं और साहित्यरूपों से वर्तमान ‘‘लघुकथा’’ को उपमित किया जाता है। अथवा यह कहा जाता है कि ‘‘लघुकथा’’ का वर्तमान व्यक्तित्व इन्हीं इतिहास–नीधियों में गुजर–भटक कर बना है। बाहर से देखने में थोड़ी देर के लिए यह बात सत्य या सत्यांशवत् प्रतीत भी होने लगती है, पर बात ऐसी है नहीं।
‘‘लघुकथा’’ की काया बड़ी छोटी होती है। यह एक स्वीकृत बात है। इसी कारण ‘‘लघुकथा’’ को उपरिविवेचित साहित्य–परम्पराओं का आधुनिक संस्करण, उनका रूपांतर, उनसे उपजात, उनका मिश्रण अथवा उस परम्परा में उनका सांप्रतिक स्वरूप मान लिया जाता है। सारी गड़बड़ी काया–साम्य के कारण है। काया का संबंध देश–काल–नियंत्रित स्थापत्य–संविधान से है। यह बहिर्व्यवस्था है। साहित्य के अंतर्गत विधात्मक स्थान की स्वीकृति के लिए यह पहली शर्त है कि यह प्राणप्रतिष्ठित है या नहीं।
यह अपने पैर पर चलनेवाला स्वावलंबी स्वरूप है अथवा दृष्टांत–कथादि की तरह परोपजीवी अमरलतावत् सावधिक सरस प्राण। इसीलिए जब लघुकथा की आत्मा और उसके ‘‘कर्त्ता स्वतंत्र:’’ आचरण पर विचार करते हैं तो स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि चुटकुला, लतीफा,हितोपदेश, अवांतर–कथादि की तरह वर्तमान ‘‘लघुकथा’’ परोपजीवी, पराश्रित और यंत्रसंचालित नहीं, वरन् एक स्वतंत्र और स्वावलंबी साहित्य–विधा है। किसी सूक्तिसुभाषित को संपुष्टि में उपस्थापित दृष्टांत–कथा या हितोपदेश–कथा चाबी–दी–गई गुडि़या की तरह है, जो उसी समय तक चलती–नाचती है, जब तक चाबी की वृत्त–आवृत्तियों का प्रभाव रहता है। दीपक है, तभी दर्पण उसे प्रतिबिंवित–प्रतिसारित करेगा। दीपक ही नही तो दर्पण व्यर्थ सिद्ध हो जाता है। दृष्टांत या हितोपदेश की कथा सूक्ति–सुभाषित से आश्रित है। कथाकोविद गुणाढ्य की कथापरम्परा अथवा लोककथा–परम्परा में जिस तरह पिंजरे में पड़े तोते के प्राण कहीं और होते हैं। दूर कहीं कोई रिमोट कंट्रोल्ड चीज दबाई गई और तोते के प्राण उड़ गए। या जैसे कठपुतली की डोर नचानेवाले के हाथों होती है। यही कारण है कि ये साहित्य–रूप स्वतंत्र विधा–स्वरूप ग्रहण नहीं कर सके।
‘‘लघुकथा’’ में प्रमुख और प्रभावकारी तेवर के साथ एक परोक्ष एवं शिल्पित संदेश होता है। यह संदेश उपदेश–कथन या दृष्टांत–कथा की तरह प्रत्यक्ष और दिगंबर नहीं होता। फिर भी पैनापन, चुटीलापन, सुईचुभन,जोरदार असर तो कुछ इस तरह होता है कि शल्यचिकित्सा के पहले सूई देकर एक–दो तीन गिनते–गिनते मरीज बेहोश हो जाए जैसे। या कि टूटती हुई साँस के मरीज को कोरामिन का इंजेक्शन दिया जाए और वह उठ बैठे, बातें करने लग जाए। यह ‘‘देखन में छोटन लगै’’ अवश्य है, पर असर घाव ‘‘करे गंभीर’’ इसका अंजाम बनता है।
आज जिस युग में हम जी रहे हैं, उसे समय की ह्रस्वता, बीमार शीघ्रता, द्विधाचित्रता और व्यवस्तता का युग कहा जाता है। हर चीज छोटी होती चली गई है। अब लालकिला, कुतुबमीनार और ताजमहल का जमाना नहीं रहा अब तो छोटे–छोटे प्लेट्स का युग है। अचकन–पचकन और लहँगा–साड़ी की जगह मुख्तसर शर्टपैंट और स्कर्ट–शर्ट ने ले ली है। बड़े–बड़े रेडियो की जगह पॉकेट ट्रांजिस्टर ने ले ली है। चुनावदार जड़ाऊ जूते–जूतियों की जगह हवाई चप्पल का प्रचलन हो चला है। जमीन की हदबंदी, दौलतकी हदबंदी, बच्चों पर पाबंदी सब जगह संक्षिप्तता आ गई। ड्वार्फ़ पेड़ और पौधे लगाए जाते हैं। सब कुछ छोटा–छोटा और जल्दी–जल्दी होना चाहिए। विडंबना और विरोधाभाव यह भी है कि शक्ति का संकेंद्रण होता चला गया । कुछ की मुट्ठियों में ही तमाम दुनिया की ताकत सिमटती चली गई। दहशत दस्तकें देने लगी है। किसी के पास समय नहीं रहा कि महाकाव्य, महाकाव्यात्मक उपन्यास या पौराणिक विशालवाङ्मय में अवगाहन कर सके। एक जीवन केवल व्याकरण पढ़ने में व्यतीत करने का दर्शन अब समाप्त हो गया है। लोकांतर और पुनर्जन्म की आस्था को भी भौतिकतावादी एवं अर्थ–नियंत्रित जीवनदर्शन के कारण गहरा आघात लगा है। जो कुछ है, बस उपस्थित वर्तमान और वह भी संघर्ष–संकुल और ह्रस्वतापहृत। इसलिए लघुकथा का अस्तित्ववान् हो जाना न तो असमीचीन है, न ही आश्चर्यजनक। लघुकथा का आविर्भाव सहज, स्वाभाविक और सामयिक है। इस विधा का स्वागत भी इसी मानसिकता के साथ व्यापक और लोकस्वीकृत हुआ।
धीरे–धीरे यह सत्य स्वीकृत होता चला गया कि ‘‘साहित्य’’ ही एकमात्र संयोजक और समाहारक तत्व है। शेष सभी शास्त्र अपने को शेष से पृथक् कर लेते हैं। केवल साहित्य के प्रांगण में ही सबों का समन्वय–समीकरण, समागम–समाहरण होता है। साहित्य की अंतभूमि इसीलिए संधि और समास की रही है, विग्रह और विन्यास की नहीं। दूसरी बात निष्कर्ष बनकर यह आई कि साहित्य का लक्ष्य आनंद–वितरण है। इसी आनंद के साथ विनोद, मनोरंजन, विरेचन जैसी भावभूमियाँ जुड़ी हुई हैं। आजकल साहित्य की सार्थकता व्यंग्य, विनोद और मनोरंजन के पृष्ठाधार पर ही परीक्षित होने लगी है। इस वर्तमान दृष्टि और दृष्टिकोण को आधार–मान लें तो ‘‘लघुकथा’’ का रूप–रंग और गंध–स्वाद सब कुछ सर्वथा अनुकूल और समीचीन सिद्ध होता है।
लघुकथा के साथ एक भ्रांति जुड़ी रही है कि इसका मुख्य स्वर हास्य या व्यंग्य का ही होता है, या हो सकता है। यह निपूर्ल है। चुटकुले और लतीफों में यह बात होती है। फिर लघुकथा को चुटकुले–लतीफों के साथ रख परीक्षित करने से यह भ्रांति पैदा हुई है। लघुकथा हास्य, व्यंग्य, विनोद की उत्पाद–भूमि हो सकती है, बिल्कुल हो सकती है, किन्तु इसकी सीमा यहीं समाप्त हो जाती है, यह स्थापना एवं धारणा गलत है। लघुकथा में करूण, शृंगार, शांत इत्यादि सभी रसों का परिपाक संभव है। इसकी स्वायत्तता में संपूर्ण समाज और उसकी संपूर्ण मनोभूमि है।
लघुकथा भोजन–निर्माण के पूर्व की विस्तृत आयोजन–प्रक्रिया नहीं है, जैसी कहानी में होती है। जैसे चूल्हे के पास जलावन का रखना, चूल्हे पर पतीली रखना, पतीली में पानी डालकर उसे खौलाना, फिर उसमें चावल धोकर डालना, पकने पर उसे उतार लेना है। इसी प्रकार दाल और सब्जियों का पकना–पकाना है। यह सब कुछ लघुकथा में नहीं होता। यह तो कुकर में दाल, भात सब्जी इत्यादि सभी खाद्य–पदार्थों का सजाकर रखना और दो–चार सीटियों पर दो–चार मिनटों में उतार लेना है। खाना तैयार । संपूर्ण दृष्टि भोजन की आस्वाघता पर है। भूख भी लगी है। हम ज्यादा देर तक इंतजार भी नहीं कर सकती। इस तरह लघुकथा एक प्रकार से कुक्डफूड, प्रीपेयर्ड फूड, पैकेट फूड या टिंड फूड हैं अथवा हद–से–हद सिटी मारता कुकर–फूड है। हम डायनिंग टेबुल पर बैठे हैं जबतक प्लेट, चम्मच, ग्लास, पानी सजाया गया, खाना तैयार। हम खाकर संतुष्ट हो जाते है। ऐसा ही शील स्वभाव और क्रिया–प्रक्रिया लघुकथा की है। उपन्यास में तो प्रक्रिया और लंबी हो जाती है। चावल बनना है तो धनरोपनी से शुरू करते हैं। चूल्हे पर हाँड़ी चढ़ानी है तो कुम्हार के घर आवा लगाने को कह आतें हैं। इसी तरह जलावन के लिए पेड़–पेड़ चढ़ते और सूखी लकडि़याँ तोड़ते हैं। उपन्यास में देश और काल का फलक विस्तृत और दीर्घ होता है। काहनी में यह देशकाल–बोध सिमट जाता है। फिर लघुकथा में यह देश और काल कण और क्षण बनकर रह जाता है। इसीलिए लघुकथा एक ओर कण–दर्शन है तो दूसरी ओर क्षण–बोध। कण और क्षण की अन्विति से जो एक खूबसूरत चीज पैदा हुई, वह लघुकथा है।
छोटी कहानी में जो विस्फोट–क्षण (ब्लास्टिंग प्वायंट) होता है, उसे ही लक्ष्यैक–चक्षुष्कता कहते हैं। लघुकथा में यह बिन्दु यथावत् घटित होता है। परिवेश और चरित्र–निर्माण, संघर्ष और द्वन्द्व में छोटी कहानी जितना समय व्यतीत करती है, उसके लिए लघुकथा में अवकाश नहीं होता। इसीतिए परिवेश और चरित्र–निर्माण तथा द्वन्द्व और संघर्ष–उपस्थापना में लघुकथा को संक्षेपण कला–कौशल से काम लेना होता है। व्याकारण–शास्त्र संक्षेपण को व्याख्या से कही ज्यादा कठिन कर्म कहता है। लघुकथा का यह संक्षेपण–व्यापार भी बहुत सरल नहीं है। इसीलिए इसका गद्य संघनन और श्लेष के धरातल पर कविता के संघनन और श्लेष्ज्ञ के निकट पहुँच जाता है। इसीलिए लघुकथा में बिम्ब और प्रतीक की महत्ता हो गई। पूरी दृष्टि तो बाण के उस सुतीक्ष्ण अग्रभाग पर और तनी हुई प्रत्यंचा से छोड़े जाने के बाद उसके तत्काल लक्ष्यवेघ एवं उसकी चुभन पर हैं शेष के लिए अवकाश कहाँ? लघुकथा किसी कपोती के चंचुपुट में समो सकने लायक कागज के छोटे–से टुकड़े पर लिखा गया व्याकुल और तात्कालिक संदेशपत्र है। किसी हाथी के हौदे पर बैठकर औपन्यासिक संदेश पहुँचाया जा सकता है अथवा घोड़े की पीठ पर बैठकर कहानी का वाक्यदूत बना जा सकता है। संदेशवाहन यहाँ भी है, पर एक नन्हीं–सी कपोती के चंचुपुट में संपुटित लघुसंदेश–पत्र। यही लघुकथा।
लघुकथा को आलोचकों ने ‘‘उपविधा’’ कहकर संतोष की साँस ले ली है। कहानी, छोटी कहानी, समांतर कहानी, सचेतन कहानी, अकहानी जैसी विकास–यात्रा की आधुनिक ओर अगली कड़ी के रूप में ‘‘लघुकथा’’ नहीं है। लघुकथा का अस्तित्व स्वतंत्र है।
जेठ की दुपहरी में पसीने से तर किसी पेड़ की छाँव में कोई बर्फ़ भी छोटी–सी उली दे जाए। इससे न तो प्यास बुझ सकती है, न ही हम नहा पाते हैं। हम इस डली को हथेली पर रखकर मुट्ठी बाँध लेते हैं। हथेली की नसों की माफर्त भीतर ही भीतर शीतलता पूरे शरीर में फैलने लगती है। इधर मुट्ठी में दबी बफर् बूँद–बूँद पानी बन टपकती जा रही है। आँखें बंदकर हम शीतलता का अनुभव करते होते हैं कि तबतक बफर् की डली गल चुकी होती है। पर करतल शीतल हो चुका होता है। हम इस शीतल करतल से अपने धूप–तपे मुखमंडल का स्पर्श–आलेपन कर लेते हैं। एक सूकून मिल जाता है। फिर कुछ दूर तक चल लेने की हिम्मत हमारी हो जाती है।
लघुकथा की अंत: प्रकृति और उसका प्रकृत स्वर हास्य, व्यंग्य, विनोद, मनोरंजन, विडंबन और चमत्कार की ओर अधिक है। केवल हास्य हल्का हो जाता है। केवल व्यंग्य गंभीर और प्रहारात्मक हो जाता है। हास्य और व्यंग्य के मिश्रण से विडंबन बनता है। इसका उद्भव विसंगतियों से होता है। हास्य में स्थायीभाव हास होता है, जबकि व्यंग्य का स्थाई भाव शोक में उपलब्ध हो जाता है। हास्य रस और करूण रस में संबंध नहीं होता। दोनों ध्रुवांतर पर स्थित हैं, परंतु विडंबन में दोनों नीरक्षीर–न्यारा से मिल जाते हैं और इनका तीसरा–रूप निखर आता है। लघुकथा सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विसंगतियों का कलात्मक भांडा–फोड़ शिल्प है। ये विसंगतियाँ उरेवीपन [धूर्त्तता] असामंजस्य, अन्याय, कुरूपता, विदूपता, क्रूरता, अमानवीयता, अस्वाभाविकता के परिसर से संबंद्ध हैं। व्यंग्य–बोध इन्हीं विसंगतियों पर चोट करता है। कभी–कभी हास्य का तेवर प्रमुख होने से लघुकथा की संप्रेषणीयता सहज और त्वरित हो जाती है। व्यंग्य में तीक्षणता होती है। व्यंग्य का बाण के साथ मैत्री समास बनता है। हास्य रसों के बीच सबसे अधिक फुर्तीला है। इसका असर तात्कालिक होता है। हास्य संक्रामक भी है। इसके पटाखे तुरंत फूटते हैं। लघुकथा लघुकाय कथाविधा है। समारोह के संपूर्ण आयोजन के पूरा हो जाने पर उद्घाटन के लिए रेशमी फीता बाँधा जाता है। कैंची से फीता कटता है और तालियों की गड़गड़ाहट से माहौल गूँज उठता है। उद्घाटन संपन्न समझ लिया जाता है।
लघुकथा में लघु श्लेषार्थी विशेषण है। लघु अर्थात् छोटा, लघु अर्थात् हल्का (निर्भार,अगरिष्ठ), लघु अर्थात् त्वरित, क्षिप्त। लघुकाय (छोटी काया), लघुभोेजन (हल्का भोजन), लघुहस्त (शीघ्रलेखन)–इन प्रयोगों में लघु के मुख्य रूप से तीन अर्थ लक्षित हैं। लघुकथा में समस्त पद ‘‘लघु’ इन सभी अर्थों में चरितार्थ है। लघुकथा छोटी–कथा है। लघुकथा सुपाच्यकथा है। लघुकथा सद्य: प्रभावशली त्वरितत्कथा है। लघुकथा के इस त्रिशिर–दर्शन में इसकी अंत: प्रकृति व्याख्यात होती है। गुणादय की ‘‘बृहत्कथा’’ का विलोम जहाँ शिल्पित होता है, वहाँ ‘‘लघुकथा’’ स्व–रूप ग्रहण करती है। लघुकथा समय की ह्रस्वता की मांग है। झटके और झटिति के इस युग की अनुकूलता में, संक्षेपण–कला में नान्यधोपाय निपुण इस उपस्थित वर्तमान की आवश्यकता में और पाठकों की रसज्ञता के प्रति आश्वस्ति की मानसिकता में लघुकथा का जन्मोत्सव एक आवश्यक और प्रतीक्षित ‘‘कुमार–संभव’’ है। इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। यह जीवन और जगत् के यथार्थ और जरूरत की क्षतिपूर्ति है।
संपत्ति की विशालता लघु सिक्कों में सिमट आई है। कथा की कथनीयता लघुकथा में व्यवस्थित–व्यक्त होने लगी है। तांत्रिक प्रक्रिया में जैसे तंत्र (तनाति इति तंत्र: =विस्तार) वह सिमट और सिकुड़कर यंत्र (यम इति यंत्र: =संकोच) हो जाता है। मंत्र दोनों के बीच संयोजक–तत्व बनता है। आज लघुकथा भी बृहत्त्कथा का यंत्ररूप है। इसमें संदेश (संवाद असंवाद दोनों स्थितियों में ) मंत्रमय सिद्ध होता है। लघुकथा बृहत्त्कथा की तरह स्तवन, स्तुति और गाथा नहीं, वरन् वीजाक्षर–तत्व है। इसीलिए इसमें स्फोटशक्ति और स्फोट–दर्शन का अनुसंधान किया जाता है। यहाँ क्षण–विस्फोट होता है।
लघुकथा मनोरंजन तो है ही, विनोद भी है। मनोरंजन में सामान्य मनस्विता है तो विनोद में वेदुष्य–मंडित सात्विक आनंद। फिर ‘‘चमत्कार’’ लघुकथा का अन्यतम अंतरतम है। चमत्कार मूलत: तंत्र के त्रिक्दर्शन का पारिभाषिक शब्द है, किन्तु सामान्य प्रयोग में यह शब्द प्रभाव की जिस जादूगरी तक पहुँच आया है, वह जादू और जादूगरी भी लघुकथा का प्रभाव–कल्प है। लघुकथा बिना विस्तार–बोध के, पुरश्चरणहित शावर (सावर) मंत्र है। बिना लाम–काफ के, सीधी बात। यहाँ पत्रलेखन में ‘‘स्वस्तिश्री सर्वोपमायोग्य........’’ इत्यादि अलंकरण और विस्तारण के स्थान पर काम की सीधी बात है, पर इन बातों में ‘‘सतसैया के दोहरे’’ का संघनन आवश्यक अभिसंधि है। कविता के प्रांगण में दोहा का जो स्थान है, कथाक्षेत्र में वही स्थान लघुकथा का है। गागर में सागर और बिंदु में सिंधु को समेट लेना मामूली बात नहीं है। इस कृच्छ्र क्रिया में बात बिगड़ भी सकती है। कोई एक स्खलन और अनवधानता लघुकथा को चुटकुले या जोक्स के पीठासन पर बिठा दे सकती है। फिर यह कलात्मक विनोद नहीं रहकर मसखरा और मनोरंजन मात्र रह जाएगा। लघुकथा इसीलिए जलती हुई आग पर बिना जले दौड़कर आर–पार हो जाना है। यह तने हुए रस्से पर चलने की बाजीगरी भी है।
लहंगा–साड़ी की जगह मिनी स्कर्ट के इस जमाने के अनुकूल लघुकथा मिनीस्टोरी है। लघुकथा शार्टस्टोरी नहीं मिनीस्टोरी हैं यह सज्जाकरण का इकेबाना है। लघुकथा भारी गहनों की जगह दुष्यंत की अंगूठी है। लघुकथा एक टिंडफूड है। कहानी या छोटी कहानी की तरह यह रसोई घर की संपूर्ण पाककला नहीं है। अँगरेजी की शार्ट स्टोरी लघुकथा नहीं है। लघुकथा की जमीन रेहन नहीं, केवाला है। लघुकथा किसी मिलन या विदाई के उत्तप्त क्षण की जमीन रेहन नहीं, केवाला है। लघुकथा किसी मिलन या विदाई के उत्तप्त क्षण का चुंबन–मात्र है। यह संपूर्ण मनुहार–कल्प और प्रभातपर्यत शय्या नहीं है। चुंबन पर ही सब कुछ अध्युषित है। इन सर्वों के बीच लघुकथा साहित्य के अंतर्गत व्यवस्थाप्य नहीं बन सकता, जबतक उसमें शिल्प और शैली, स्थापत्य और संदेश, भाषा और भाव–बोध, कथ्य और कथनभंगिमा का संतुलित सामंजस्य न हो। मर्म को छूने की बात बेमानी नहीं है। लघुकथा मर्मस्पर्श की त्वक्–चेतना है।
खुलती हुई गाड़ी से किसी ने प्लेटफार्म पर छोड़ते–दौड़ते खिड़कियों से कुछ बातें कहीं। और वे बातें पूरी यात्रा में गूँजती रहीं। यही है, लघुकथा। विस्तार और अलंकरण की कोई गुंजायश ही नहीं है यहाँ। लघुकथा एक कोड लेंग्वेज स्टोरी है। यहीं प्रतीकधर्मिता और रूपक–विधान भी है।
यथार्थ और आदर्श को लेकर साहित्य में काफी विवेचण हुआ है। विशेषकर कथाविधाओं का उल्लेख सर्वाधिक हुआ है। कभी यथार्थ को प्रमुख माना गया, कभी आदर्श को। इसी तरह कभी आदर्शों मुख यथार्थवाद और फिर कभी यथार्थोंन्मुख आदर्शवाद का उल्लेख हुआ है।
लघुकथा–मूल्यांकन में भी इसका उल्लेख होता है, किन्तु लघुकथा के मूल्याकंन–शास्त्र के निर्माण–क्रम में ये शब्द आधुनिक युगचेतना का संवहन कर नहीं पाते हैं। इसीलिए इनके स्थान पर मैं दो शब्दों को प्रस्तावित कर रहा हूँ। वे हैं, यथार्थ के लिए ‘‘विश्वसनीय’’ और आदर्श के लिए ‘‘सत्य’’। अविश्वसनीय यथार्थ देवीघटना या व्यक्तिवैचित्र्य चित्रण के रूप में स्वीकार किया जाएगा, जिसका साधारणीकरण नहीं हो सकता। इसलिए ऐसे ‘‘यथार्थ’’ मानव–समाज के लिए न तो संवेदनीय बन पाते हैं, न हीं, विश्वसनीय। विश्वसनीयता के बाद ही संवेदनीयता के साधारणीकरण नहीं हो सकता। और साधारणीकरण के पृष्ठाधार के निर्माण के बिना रसोपचिति नहीं होगी। इसी तरह आदर्श और सत्य का संबंध हैं जो आदर्श है, वह सत्य है, वह आदर्श नहीं भी हो सकता है। सत्य आदर्श से बड़ा होता है। आदर्श सनातन और निरपेक्ष होता है। इसका तात्पर्य हम यह कहेंगे कि विश्वसनीयता और सत्य अंतस् और बहिर् दोनों धरातलों पर संयुक्त् होंगे, क्रम–विक्रम दोनों रूपों से संयुक्त होंगे और फिर चार शब्द समाप्त बनेंगे–आत्मसत्य, युगसत्य, आत्मविश्वसनीयता एवं युगविश्वसनीयता। मेरी दृष्टि में लघुकथा में अभी जितने प्रयोग हुए और हो रहे हैं, उनको समझने के लिए विश्वसनीयता और सत्य के निकष पर मूल्यांकन आवश्यक है।
आज लघुकथा इसलिए भी लोकप्रिय हुई है और होती जा रही है, क्योंकि इसमें विश्वसनीयता है। पाठक को यह ‘‘कथाकथ्यात्मक’’ ‘‘लघुकथा’’ अपने उपस्थित वर्तमान, परिधित परिवेश और अनुभूत चिंतन के त्रिकोण में जानी–पहचानी लगने लगती है। यथार्थ तो झख मारकर झेला जाता है। पर ‘‘विश्वसनीयता’’ के साथ आत्मीयता हो जाती है। फिर ‘‘सत्य’’ के संधान में समर्पित लघुकथा मानव मूल्य के शाश्वत स्परूप को रूपायित करने में व्यग्र और व्याकुल है। इस तरह लघुकथा के देहात्म–धर्म से यह निष्कर्ष निकलता है।
लघुकथा का अंतस्त्त्व है ‘‘मर्म’’। मर्म अर्थात् मूलमानवमन या मूलमानववासनावृत्ति या मूलमानव–संवदेनधर्म। इस ‘‘मर्म’’ मानववंश के इतिहास में जितना जो कुछ शुभ एवं शम् है, उसका अधिवास है। वह मर्म तीव्रसंवेद्य अंत:स्थल है। यह ‘‘मर्म’’ मानव–समाज की सभी संवदेना एवं समवेदना का अधिकरणकारक है। अपनी स्पंदकारिका के क्षणों में यही अधिकरणाकारक संप्रदान–कारक बन जाता है। लघुकथा का कुछ भी बाहर शेष नहीं बचता। सब कुछ पाठक के भीतर, उसके मर्म पर अधिष्ठित हो जाता है। मर्म के ऊपर सभ्यता की इतनी–इतनी कृत्रिम परतें पड़ गई है कि उनका भेदन कर मूल मर्म पर पहुँचना वस्तुत: असंभव नही तो कठिनतम अवश्य हो गया है। इसलिए आज साहित्यकार का दायित्व गुरूतर और साधना कृच्छ्तर हो गई है। आज सफल लघुकथाकार नहीं हो सकता है, जिसका मर्म जीवित हो। जिसे मर्म की पहचान है, जो अपनी रचना को मर्मस्पर्शी बना सके और जिसके पास इसके शिल्प और संप्रेषण के शेष कलापक्ष का अभ्यास एवं अभ्यास हो। अन्य अनेक विधाओं में मर्महीन साहित्य रचा जा सकता है, किन्तु ‘‘लघुकथा’’ मर्म से अलग होकर नहीं लिखी जा सकती। मर्म तो इसका वह ‘‘ऐटम’’ है, जो विस्फोट कर दिक् एवं काल के मानस–स्तंभ पर नहीं मिटनेवाली पाषाण–पंक्तियाँ छोड़ जाता है। यही कारण है कि सौ–सौ लघुकथा पढ़ने पर कोई एक उत्तम और अनुशासित लघुकथा मिलती है। यह पाठकीय अभिमत तथा ऐतिहासिक सर्वेक्षण का अवांतर किन्तु आवश्यक विषय हैं लघुकथा का अंतिम तो नहीं, पर सर्वाधिक तीक्ष्ण संप्रेषणीय स्वर व्यंग्य का है। आज नीति और उपदेश से काम नहीं चलेगा। क्रोध और आक्रोश का भी राजनीतिक वर्गीकरण होने के कारण, वहाँ व्यर्थता आ गई है। ये सारे प्रयोग आज विफल और बेमानी है। घाव पुराना है। इसके भीतर मवाद भर गया है। दवा की गोलियों से यह घाव अब ठीक नहीं होगा। प्राकृतिक चिकित्सा भी बेकार है। इसलिए एक तेज नश्तर चाहिए। धीरे से चुभो देने की जरूरत है। फिर तो सब कुछ ठीक।
आज समाज में कुरीतियाँ कहाँ नहीं है। उनकी गणना ही व्यर्थ है? शायद ही कोई व्यक्ति, स्थान या विभाग शेष या अपवाद हो कि जहाँ ये विडंबित कुरूपताएँ न हों। अत: साहित्य के माध्यम से ही एक ओर व्यथा का मर्म उपस्थित किया जा सकता है और दूसरी और व्यथा के नियामकों पर व्यंग्य का नश्तर चुभोया जा सकता है। और कोई उपाय नहीं है। और यह कार्य सर्वाधिक कौशल एवं प्रभाव के साथ लघुकथा में हो रहा है।
व्यंग्य को लेकर एक भ्रांति भी है, जिसपर पुनर्विचार आवश्यक है। काव्यशास्त्र के अंतर्गत शब्दशक्ति–प्रकरण में तीन प्रकार के शब्दों का उल्लेख है–वाचक, लक्षक एवं व्यंजक। इन तीनों शब्दों से वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ एवं व्यंग्यार्थ को क्रमश: उत्पन्न किया जाता है। शब्द के अर्थ के निष्पादन में क्रमश: तीन शक्तियों का उपयोग होता है–अभिधा–शक्ति, लक्षणा–शक्ति एवं ‘‘व्यंजना’’ शक्ति। अत: ‘‘व्यंग्य’’ मूलत: काव्यशास्त्र का शब्द है। ‘‘व्यंग्य’’ अर्थ (व्यंग्यार्थ) के रूप में तभी ‘‘व्यंजक’’ शब्द से व्युत्पन्न होता है, जब ‘‘व्यंजना’’ शक्ति का उपयोग किया जाता है। अभिधा से व्यंजना का संबंध विच्छिन्नप्राय हो जाता है। दूरगामी अर्थ का आक्षेपण (अनायन) व्यंग्य के द्वारा ही साधित होता है। आयरनी और सटायर के रूप में जब व्यंग्य का प्रयोग होता है तो इसका तात्पर्य एक आघातक साधन–विशेष है। आज के व्यंग्य और विशेषकर ‘‘लघुव्यंग्य’’ को साहित्य–विधा के रूप में उपस्थित–स्थापित किया जा रहा है। कुछ पहले कहानी में व्यंग्य की प्रधानता के कारण उन्हें भी केवल ‘‘व्यंग्य’’ कहा जाता था। परन्तु कालांतर में ‘‘व्यंग्यप्रधान कहानी’’ जैसी बात कहकर विवाद समाप्त किया गया। कविता में भी व्यंग्य का उपयोग होता रहा है। कबीर इसके सर्वोत्तम उदाहरणपुरुष है परन्तु मूलत: उनकी रचना की व्यंग्य नहीं कहते। इसी तरह समाचारपत्रों में व्यंग्यप्रधान आलेख छपते हैं, जो केवल ‘‘व्यंग्य’’ नहीं कहे जाते।
‘‘व्यंग्य’’ गुण–मात्र है, यह गुणी नहीं हो सकता। एक उदाहरण से बात स्पष्ट होगी। नमक या लालमिर्च भोजन में आवश्यक हैं। ज्यादा मिर्च डालकर भोजन को तीखा बनाया जा सकता है, पर एक बात तै है कि केवल मिर्च या केवल नमक से भोजन नहीं बन सकता। लवण से लावण्य शब्द बनता है। लावण्य का सीधा अर्थ है नमकीनपन । यह वाच्यार्थ है, पर यही शब्द ‘‘व्यंग्यार्थ’’ में (व्यंजना शक्ति के सहयोग से) सुंदरी नायिका के चुंबकीय एवं सम्मोहक मुखमंडल के उपांग–कपोल, अधरोष्ठ, नासिका, मस्तक–सर्वों पर छलक आता है और कहते हैं, मुख पर लावण्य है। यह लावण्य निराधार नहीं दीखता। दीख भी नहीं सकता।
इसी तरह व्यंग्य या हास्य या अन्य साहित्य–तत्व कथाफलक या साहित्य की अन्य स्वीकृत विधाओं में ही शोभित होते हैं। इसलिए व्यंग्य लघुकथा का एक आवश्यक और धारदार तेवर है। अत: अलग से लघुव्यंग्य की आवश्यकता मेरी दृष्टि में नहीं है। ‘‘लघुकथा’’ के साथ ‘‘रस’’ की चर्चा प्राय: नहीं हुई है। रस की चर्चा करते ही आलोचक को दिनातीत मान लिया जाता है। इसलिए लघुकथा से लेकर कहानी और उपन्यास तक और सभी गुण–धर्म, शील–स्वभाव, वृत्ति–प्रवृत्ति की तो चर्चा होगी, कुंठा, संत्रास, युगबोध इत्यादि का भी उल्लेख होगा, पर ‘‘रस’’ का नामोल्लेख तक नहीं करेंगे और सत्य तो यह है कि रस का प्राथमिक उल्लेख भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में कथा–प्रसंग अर्थात् नाटक के सिलसिले में ही किया था। और फिर लगभग दो हजार वर्षों तक भरत के उस रससूत्र का विश्लेषण किया गया है। अंतत: इतना तो स्वीकार कर ही लिया कि साहित्य की आत्मा रस है– ‘‘रसासदिश्चात्मा’’ रस के बिना जो साहित्य है वह रससाहित्य के कारण ‘‘रसहीन’’ या ‘‘नीरस’’ ही नहीं, ‘‘साहित्य’’ मात्र नहीं है। अत: लघुकथा के प्रसंग में रस की चर्चा करनी होगी।
उत्तम कृति और सहृदय पाठक का जब ‘‘संयोग’’ होता है धीरे–धीरे ‘‘साधरणीकरण’’ को स्थिति उत्पन्न होती है। साधारणीकरण एक बहु–आयामी बोधन–व्यापार और अंत: प्रक्रिया है। लेखक के विचार, उन विचारों में व्यवस्थित चरित्र और शब्द, सहृदय सामाजिक (प्रेक्षक, पाठक, श्रोता किसी भी रूप में) सर्वों का साधारणीकरण होता है। फिर रसोपचिति या रसनिष्पात्ति होती है। इसके पश्चात् आनंद की वह स्थिति उत्पन्न होती है, जिसके लिए उपनिषद् में ‘‘रसो वै:’’ कहा गया।
स्थायीभाव दिक्कालातीत भाव से प्रत्येक सहृदय सामाजिक के हृदय में पहले से ही विद्यमान होते हैं। जो अपने अनुकूल स्थिति–योग या दृश्य–स्पर्श या भावबोध के कारण रसदशा में रूपांतरित हो जाते हैं।
लघुकथा अपनी काया के अवकाश–लाघव के कारण साधारणीकरण तक पहुँचकर छोड़ देती है। तत्काल रसरूपांतरण होता नहीं, हो भी नहीं सकता। फिर होमियोपैथी की दवा की तरह यह हाई पावर्ड छोटी गोली असर करने लगती है। हो सकता है, दवा महीनों बाद असर दिखाए। इसी तरह लघुकथा का असर दूर और देर तक रहता है। ‘‘लघुकथा’’ प्रत्यंचित बाणाग्र पर बैठकर अपने पाठक के साथ टंकार के साथ छूट तो जाती है, पर तत्काल कोई लक्ष्यवेध नहीं होता। कभी भी,कालांतर में लक्ष्यवेध हो सकता है। तबतक हम प्रक्रिया–सुख में होते हैं। भोजन के बाद की तृप्ति ‘‘चरम है और उसका अपना एक सुख है। किन्तुं डायनिंग टेबुल पर भोजन की चर्वणवस्था का भी अपना सुख और सौंदर्य है। लघुकथा साधारणीकरण के भूमपीठ पर पहुँची हुई मधुमती भूमिका है। मधुमती भूमिका ‘‘समाधि’’ या ‘‘रसोपचिति’’ के पहले की वह अवस्था है, जिसे हम खुमारी की संज्ञा देते हैं। खुमारी न तो बेहोशी है, न ही जागरण। यह मध्यवर्ती स्थिति है। इसे ही कबीर कहते हैं–‘‘पियत रामरस लगे खुमारो।’’दृष्टांत–भाषा में लघुकथा गोमुख–गोमुखी–मात्र हैं इस गोमुखी से गंगा निकलती है। गोमुखी के पीछे संशोधित जलराशि की अल्केमी का विशाल भंडार होता है, जो दीखता नहीं। गोमुखी से निकली गंगा आगे कितने तीर्थ बना यह भी नहीं दीखता। दीखती तो है बस यह मध्यस्थ गोमुखी। लधुकथा में चुंबक का पानी होता है। लघुकथा अतीत और भविष्य दोनों का संकेत दे देती हैं पाठक जीवन–भर उस लघुकथा में उपसर्ग–प्रत्यय लगाता रहता है और उसे अपना बना लेता है। लेकिन शर्त यह है कि ऐसी लघुकथा में विश्वसनीयता और सत्य होना चाहिए, कथा और कथ्य होना चाहिए, स्थापत्य–शिल्प एवं भाषा–शैली होनी चाहिए। लघुकथा के चरित्र भाषा के शब्दों में पिघलकर एकाकार हो जाते हैं। इसलिए लघुकथा में संगतराश भी शिल्पगत तराश होनी चाहिए। जरा–सी चूक, हल्की या भारी चोट या जरा–सी गलत जगह की तराश से मूर्ति विकृत हो जा सकती है। लघुकथा योग की लघिमा एवं अणिमा–सिद्धि है।
लघुकथा का इतिहास लगभग अस्सी वर्षों का इतिहास है। कहानी के समानांतर इसका सोता चलता रहा है। जिस तरह कहानी उपन्यास का उत्तर परिणाम नहीं, वरन् एक स्वतंत्र और स्वाबलंबी विषय है। यह दूसरी बात है कि कहानी का विकास पहले और ज्यादा हुआ है। लघुकथा का विकास बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से कहानी के समानांतर धीरे–धीरे अवश्य हुआ है किन्तु अब इसकी जमीन स्थिर होती जा रही है। यह भी सत्य है कि लघुकथा के लिए कभी कोई आयोजित आन्दोलन नहीं हुआ। इस प्रबंध के आरम्भ में लघुकथा को ऐतिहासिक दृष्टि से देखते हुए इसके दो काल–खण्ड किए गए थे–प्राक्–स्वातंत्र्य–काल और स्वातंत्र्योत्तर–काल। प्राक्स्वातंत्र्य -काल में प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद की कुछ लघु कहानियों को लघुकथा की गलत संज्ञा दी गई हैं, किन्तु लघुकथा का विश्वसनीय स्वरूप उपेन्द्रनाथ अश्क की लघुकथाओं में मिलता है। स्वातंत्र्योत्तर–काल में लघुकथा का आरम्भ यशपाल के ‘‘फूलो का कुरता’’ कहानी –संग्रह की भूमिका में व्यवस्थित एक लघुकथा से होता है। फिर 1989 में, आज तक ऐसे बीसियों लघुकथाकारों के नाम सफल सूची में रखे जा सकते हैं।
विश्वस्तर पर जिन लघुकथाकारों के नाम लिए जाते हैं, उनमें मूलत: सभी छोटी कहानी के लेखक हैं। फिर भी कुछ ‘‘छोटी–छोटी कहानियों’’ के आधार पर उन्हें लघुकथाकार के रूप में भी स्वीकार किया गया। इनमें बालजाक, खलील जिब्रान, एडगर एलेन पो,मोपासाँ, पुश्किन, चेखव, गोगोल ओ0 हेनरी के साथ अन्य बीसियों नाम आते हैं। पर मेरी दृष्टि में ओ0 हेनरी विश्व के प्रथम लघुकथाकार हैं। किसी ‘‘लघुकथा’’ आन्दोलन का उन्होंने प्रवर्तन नहीं किया था। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशक तक ओ0 हेनरी का लेखन–काल है।
ओ हेनरी की छोटी कहानी ‘‘गिफ्ट ऑव मेगाई’’ वस्तुत: लघुकथा है। इसे मैं विश्व की पहली शिल्पित लघुकथा मानता हूँ। यद्यपि इसे छोटी कहानी की कोटि में रखा गया है। यहाँ विधा और शास्त्र पर विचार करने के सिलसिले में ‘‘गिफ्ट ऑव मेगाई’’ का उल्लेख करना चाहूँगा।
‘‘डेला और बिल पत्नी–पति हैं। गरीब हैं। बिल मामूली नौकरी पर है। जिस जगह उसके रहने का मामूली फ्लैट है, उसके सामने के लेटर–बॉक्स का भी सही रख–रखाव वे नहीं कर पाते। दोनों में बेहद प्यार है।
दोनों मन–ही–मन क्रिसमस में एक–दूसरे को उपहार देने को सोचते हैं। डेला सालभर से बचत करती चली आ रही है कि वह इस क्रिसमस के दिन अपने पति को घड़ी की चेन खरीदकर दे सके। और उसने सालभर में एक डॉलर सतासी सेंट्स बचाए हैं। पिता से मिली घड़ी को उसका पति पहन नहीं पाता, क्योंकि उसमें चेन नहीं है। वह आईने के पास खड़ी होती है। वह अपने सुंदर, रेशमी और बड़े बालों को देखती है, जिन बालों के कारण वह चर्चा में रहती है। इन रेशमी केशों के कारण पति और अधिक प्यार करता है। वह अचानक कुछ सोचती है और बाजार जाकर ब्यूटी पार्लर में अपने केश समूल कटवाकर बेच देती है। फिर बालों के पैसे और पहले से इकट्ठे पैसों से वह पति के लिए घड़ी का खूबसूरत चेन खरीद लाती है, ताकि इस क्रिसमस पर वह सरप्राइज गिफ्ट दे सके।
इधर पति बिल बाजार जाकर अपनी घड़ी बेचकर प्यारी पत्नी के लिए खूबसूरत कंघी खरीद लाता है। दोनों इस क्रिसमस पर एक–दूसरे को उपहार देते हैं।
यहीं कथा का अंत होता है। दांपत्य,वैवाहिक जीवन, प्रेम, गरीबी, त्याग, निश्छलता, अव्यावहारिकता ओर अमृत संवेदना का ऐसा संगुंफन अन्यत्र कम हुआ है। दांपत्य, प्रेम और विवाह का त्रिकोण जिस गरीबी की भूमि पर बना है, वहाँ दोनों ही अपने सर्वोत्तम का सहज त्याग करते हैं। अपने से अधिक महत्व दूसरे को देते हैं। यह लघुकथा है। इसे फैलकर छोटी कहानी, कहानी या लंबी कहानी का भी रूप दे दिया जाए तो भी इसकी कथाकाया लघुकथा की ही होगी । आधुनिक काल में ऐसी अनेक लघुकथाएँ पढ़ने को मिलती हैं, जो मूलत: छोटी कहानी या कहानी का कथातत्व लिये होती है।
हिंदी–साहित्य के स्वातंत्र्योत्तर–लघुकथाकाल में मेरी दृष्टि में पहली समर्थ लघुकथा ‘‘फूलो का कुरता’’ (यशपाल) है । यहाँ यह लघुकथा यथावत् प्रस्तुत है–
‘‘वंकू शाह की दूकान के बरामदे में पाँच–सात भले आदमी बैठे थे। हुक्का चल रहा था। सामने गाँव के बच्चे ‘‘कीड़ा–कीड़ी’’ का खेल खेल रहे थे। साह की पाँच बरस की लड़की फूलो भी उन्हीं में थी।
पाँच बरस की लड़की का पहरना और ओढ़ना क्या? एक कुरता कंधे से लटका था। फूलो की सगाई हमारे गाँव से फर्लांग–भर दूसर ‘‘चूला’’ गाँव में संतू से हो गई थी। संतू की उम्र रही होगी, यही, सात बरस। सात बरस का लड़का क्या करेगा? घर में दो भैसें, एक गाय और दो बैल थे। ढोर चरने जाते तो संतू छड़ी लेकर उन्हें देखता और खेलता भी रहता, ढोर काहे को किसी के खेत में जाएँ। साँझ को उन्हें घर हाँक लाता।
बारिश थमने पर संतू अपने ढोरों को दलवान की हरियाली में हाँककर ले जा रहा था। संतू साह की दुकान के सामन पीपल के नीचे बच्चों को खेलते देखा तो उधर ही आ गया। संतू को खेल में आया देखकर सुनार का छह बरस का लड़का हरिया चिल्ला उठा–‘‘आहा, फूलो का दुल्हा आया।’’
दूसरे बच्चे भी उसी तरह चिल्लाने लगे।
बच्चे बड़े–बूढ़ों को देखकर बिना बताए–समझाए भी सबकुछ सीख और जान जाते हैं। यों ही मनुष्य के ज्ञान और संस्कृति की परंपरा चलती रहती है। फूलों पाँच बरस की बच्ची थी तो क्या? वह जानती थी, दूल्हे से लज्जा करनी चाहिए। उसने अपनी माँ को, गाँव की सभी भली स्त्रियों को लज्जा से घूँघट और परदा करते देखा था। उसके संस्कारों ने उसे समझा दिया था, लज्जा से मुँह ढंक लेना उचित है।
बच्चों के उस चिल्लाने से फूलो लजा गई, परन्तु वह करती तो क्या? एक कुरता ही तो उसके कंधों से लटक रहा था। उसने दोनों हाथों से कुरते का आँचल उठाकर अपना मुख छिपा लिया।
छप्पर के सामने, हुक्के को घेरकर बैठे प्रौढ़ भले आदमी फूलों की इस लज्जा को देखकर कहकहा लगाकर हँस पड़े।
काका राम सिंह ने फूलों को प्यार से धमकाकर कुरता नीचे करने के लिए समझाया। शरारती लड़के मजाक समझकर हो–हो करने लगे।
यहाँ यह लघुकथा समाप्त होती है। ‘‘फूलो का कुरता’’ यशपाल की आठ कहानियों का संग्रह है, जिसका प्रकाशन विप्लव कार्यालय, लखनऊ से हुआ था। इस कहानी संग्रह में भूमिका शब्द के नीचे उपशीर्षक है ‘‘फूलों का कुरता’’। तीन पृष्ठों की इस भूमिका में एक पृष्ठ यह लघुकथा घेरती है। लेखक के हस्ताक्षर के साथ तिथि छपी है, अगस्त 1949 ईस्वी।
यह लघुकथा भूमिका के मध्य में व्यवस्थित है। ग्रंथ की आठ कहानियों के साथ इसे नहीं रखा गया परन्तु भूमिका के बीच इसके व्यवस्थापन से इसका महत्व बढ़ा ही है।
परम्परा से प्रशिक्षित लज्जा की भावना और उसको ढँकने के क्रम में प्राकृतिक संस्कृति नंगी हो गई है। आज हो यही रहा है। बाल–विवाह का सामाजिक रोग भी यहाँ है। बच्चों की मासूमियत और परम्परा–प्रशिक्षित संस्कार एवं उपस्थित यथार्थ के संघर्ष का दुष्परिणाम सामने है। बच्चों के सहज चारित्रय में विश्वसनीयता और सत्य का उद्घाटन है। शब्दों में पूर्वापरता का अंत: सूत्रित अनुबंध और कथा से संयुक्त कथ्य का कौशल इस लघुकथा को एक ऊँचाई दे जाता है। धीरे–धीरे यह लघुकथा अपने शब्दानुशासन और स्थापत्यकला के सावधान पूर्वापर–संयोजन के कारण संवेद्य एवं संप्रेषणीय बन गई है। शिल्प की तराश और भाषा की एकोद्दिष्ट भंगिमा लघुकथा को साहित्यिक साधारणीकरण और सामाजिक संवेदन एक साथ प्रदान करती है। मैं इस लघुकथा को अनेक दृष्टियों से महत्व देते हुए हिंदी की पहली शिल्पित लघुकथा कहना चाहूँगा।
1949 ई0 के बाद जनवरी 1989 की एक लघुकथा का उल्लेख करना चाहूँगा। बीच में चालीस वर्षों का अंतराल है। लघुकथा अनेक उतार–चढ़ाव को पार करती हुई यहाँ तक पहुँची है। इस मध्य के बीसियों नाम उल्लेखनीय हैं, या हो सकते हैं। लघुकथा के प्रकाशित ग्रंथ भी अब अंगुलिगण्य नहीं हैं। लेकिन मेरा मकसद इतिहास उपस्थित करना नहीं, वरन इतिहास–दर्शन,ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और भविष्य–धावित कालचक्र के आलोक में लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता का अनुचिंतन करना था। जब सिद्धांत बनते या बनाए जाते हैं तो उनका विनियोग भी होता है। इसी विनियोग–विन्यास पर मैं सिर्फ़ दो लघुकथाओं को रख रहा हूँ। एक तो ‘‘फूलों का कुरता’, जिसका उल्लेख किया जा चुका है और दूसरा श्रीयुगल–लिखित ‘‘पेट का कछुआ’’ शीर्षक लघुकथा। इसका प्रकाशन ‘‘हंस’’ (दिल्ली) मासिक पत्रिका के जनवरी 1989 के अंक में पृष्ठ 65 पर हुआ है। पहले यहाँ लघुकथा यथावत् प्रस्तुत है, ‘‘खस्ता हाल बन्ने का बारह साल का लड़का पेट–दर्द से परेशान था और देह छीजती जा रही थी। टोना–टोटका और घरेलू इलाज का कोई फायदा नजर नहीं आ रहा था। दर्द उठता तो लड़का ऐंठ जाता, चीखता और माँ–बाप की आँखों में आँसू आ जाते। एक रात जब लड़का ज्यादा बदहाल हुआ, तो माँ ने बन्ने को लड़के का पेट दिखलाया। बन्ने ने देखा, कछुआ–जैसा कुछ पेट के अंदर चलने की कोशिश कर रहा है। गाँव के डॉक्टर ने भी हैरत से देखा और सलाह दी कि लड़के को शहर के अस्पताल ले जाओ।
बन्ने घर के बर्तन बेचकर लड़के को शहर ले आया। अस्पताल के सर्जन को भी अचरज हुआ,–पेट में जिंदा कछुआ? सर्जन ने जब कछुए को उँगलियों से दबाया तो वह इधर–उधर चलता–जैसा नजर आया। और लड़के के पेट का दर्द बढ़ गया। सर्जन ने बतलाया, लड़के को बचाना है तो दो हजार का इंतजाम करो।
बन्ने की आँखें चौंधिया गई। दो क्षण साँसें ऊपर की अटकी रह गई। लड़के को वह कभी नहीं बचा सकेगा। उसके जिस्म की ताकत चुकती लगी। वह बेटे को लेकर अस्पताल केबाहर आ गया। वह विमूढ़ बना सड़क के किनारे बेटे के साथ बैठ गया।
‘‘लड़के को कराहता देखकर किसी ने सहानुभूति जतलाई, ‘‘क्या हुआ है?’’ बन्ने बोला, ‘‘पेट में कछुआ है साहब।’’
‘‘पेट में कछुआ?’’ मुसाफिर को अचरज हुआ।
‘‘हाँ साहब।’’ और बन्ने ने लड़के का पेट दिखलाया। पेट पर उँगलियों का टहोका दिया। कछुआ कुछ इधर–उधर हिला। बन्ने का गला भर आया। ‘‘आपरेशन होगा साहब! डॉक्टर दो हजार माँगता है। मैं गरीब आदमी। लड़का मर जाएगा साहब।’’ और वह रो पड़ा।
तब तक कई लोग वहाँ खड़े हो गए थे। उस मुसाफिर ने दो रुपए का नोट निकाला और कहा, ‘‘चंदा इकट्ठा कर लो और लड़के का आपॅरेशन करवा दो।’’
फिर कई लोगों ने एक–दो रुपए और दिए। जो सुनता रुक जाता..........‘‘पेट में कछुआ?’’.........’’हाँ जी, चलता है।’’......
‘‘चलाओ तो।’’
बन्ने लड़के के पेट पर उँगलियों से टहोका देता। कछुआ हिलता। लड़के के पेट का दर्द आँखों में उभर आता। लोग एक–दो या पाँच के नोट उसकी ओर फेंकते! ‘आपॅरेशन करा लो भाई। शायद लड़का बच जाए।’’
साँझ तक बन्ने के फटे कुरते की जेब में नोट और आँखों में आशा की चमक भर गई थी।
अगले दिन वह उस शहर के दूसरे छोर पर आ गया। वह लड़के के पेट पर उसी तरह टहोका मारता। पेट के अंदर कछुआ चलता। लोग प्रकृति के इस मखौल पर चमत्कृत होते और रुपए देते। बन्ने दस दिनों तक शहर के चालू नुक्कड़ों पर यह तमाशा दिखलाता रहा और लोग रुपए देते रहे। दूसरे–तीसरे दिन लड़के की माँ आती। बन्ने उसे रुपए देकर लौटा देता। लड़के ने पूछा–‘‘बाबू ऑपरेशन कब होगा?’’ फिर कुछ सोचता हुआ बोला–
‘‘मुन्ना तेरा क्या ख्याल है? पेट चीरा जाकर भी तू बच जाएगा? डॉक्टर भगवान तो नहीं। थोड़ा दर्द ही तो होता है न? बर्दाश्त करता चल। यों जिंदा तो हैं। मरने को क्या? असल तो जीना है।’’
लड़का कराहने लगा। उसके पेट का कछुआ फिर चलने लगा था।’’
यहाँ लघुकथा समाप्त होती है। मर्म के हर रेशे को झकझोरने वाली यह लघुकथा जिस अकथित कथ्य के साथ यहाँ उपस्थित होती है, उसका कथ्य सम्पूर्ण कथा है। कथा, कथ्य और भाषा का समीकरण तादात्म्य में बदल गया है। इन्हें हम यहाँ अलग–अलग नहीं कर सकते। शब्द उतने ही हैं, जितने की जरूरत कथा में है। एक भी फालतू शब्द नहीं है। शब्दों का संयोजन और विन्यास इस हिसाब से है कि उन्हें न तो हम न्यूनाधिक कर सकते हैं, न ही व्यक्तिक्रमित। कथा उतनी ही उपस्थित तथा स्थापत्य–स्थापित है, जो कथ्य बन सकती है। कथा और कथ्य का परस्पर निगीकरण रूपक–अलंकार की तरह सर्वात्मभावित है।
मुन्ने के पेट में कछुआ है। वह दर्द से कराहता है। वह इलाज के लिए घर के बर्तन बेच देता है। बर्तन संपत्ति की अंतिम इकाई होते हैं। माँ–बाप का वात्सल्य आँखों में उमड़ता–झरता रहता है।
वही बच्चा जब शहर के चौराहे पर खड़ा है और बाप अपरिचित भीड़ से याचना करता है तो उसे इलाज के लिए रुपए मिलने लगते हैं। रुपए इतने कि हर दूसरे–तीसरे दिन बन्ने की पत्नी राशि बटोर कर ले जाती है। समाज के पास सहानुभूति है। इस सहानुभूति के वशीभूत होकर लोगों ने रुपए दिए किंतु इससे भी बड़ी बात है, मनोरंजन की लालसा। समाज दूसरों के जीवन के मूल्य पर भी अपना मनोरंजन चाहता है। फिर वह समाज जोखिम उठाने और जान पर खेलकर तमाशा दिखानेवालों को पैसा देता है। बन्ने के पास अब रुपए बरसने लगे। वह मदारी की तरह अपने मरणोन्मुख बेटे का तमाशा दिखाता है।
इस समाज में अर्थ की जो महत्ता और नियामकता है, उसके परिणाम–स्वरूप जो मानवीय विपर्यस्तता तथा विकृति आती है, उसका एक संश्लिष्ट चित्र यहाँ उपस्थित है। माता–पिता का वात्सल्य और ममता धीरे–धीरे इस अर्थ–तंत्र में सूख जाती है। उस पैसे के लिए वह अपने बीमार और जीवित बेटे को भी परवान चढ़ाता है। बेटे के पेट पर ठोकर मारकर वह तमाशा दिखाता है। लोग पैसे देते हैं। बन्ने मुन्ने का ऑपरेशन नहीं कराता। बेटे के पूछने पर वह पूरी स्थिति का दार्शनिकीकरण कर देता है। वह कहता है, ‘‘थोड़ा दर्द ही होता है न? बर्दाश्त करता चल क्यों जिंदा तो हैं। मरने को क्या? असल तो जीना है।’’
प्रेमचंद की कहानी ‘‘कफ़न’’ अपनी मार्मिकता एवं शिल्पगत तराश के लिए हिंदी की सर्वोंत्तम या सर्वोंत्तम कहानियों में एक है। वहाँ घीसू और माधव पिता–पुत्र हैं। दुधिया पेट में बच्चा लिए मर जाती है। उसके कफन के नाम पर दोनों चंदा लेते और दारू पी जाते हैं। यहाँ माता–पिता अपने जिंदा बेटे के दर्द का तमाशा दिखाकर पैसे लेते और आँखों में चमक लिए हैं। दुधिया के पेट में बच्चा था। यहाँ मुन्ने के पेट में कछुआ है। दुधिया गर्भस्थबालक के साथ मर गई थी। यहाँ मुन्ना गर्भस्थ कछुआ के साथ जिंदा है।
‘‘कफन’’ में माधव जब अपने पिता घीसू से पूछता है कि बाबा, हमने कफन के रुपए से तो दारू पी ली, कफन भी नहीं खरीदा, दुधिया की आत्मा क्या कहेगी? परलोक में हम क्या जवाब देगें? तो घीसू दार्शनिक की तरह समझाता है कि चिंता मत करो, उसे स्वर्ग मिलेगा। उसके कफन के पैसे से हमने दारू पी और भरपेट भोजन किया।
यहाँ पिता दर्द से कराहते अपने बेटे को समझाता है ‘‘थोड़ा दर्द ही होता है न? बर्दाश्त करता चल। यों जिंदा तो हैं। मरने को क्या? असल तो जीना है।’’ दोनों स्थलों पर दर्शन के इस्तेमाल के सहारे अपनी विकृतियों को उचित ठहराया जा रहा है। यह विकृति सामाजिक विषमताओं और शोषण का उत्तर परिणाम है, किंतु कभी भी इनके कारणों का न तो उल्लेख है, न ही आक्रोश। एक विकृत स्थिति–चित्र, उसके भीतर कराहता हुआ दर्द और उसकी भी तह में सामाजिक विषमता का शोषक समुदाय। तीन परतों से बनी इस लघुकथा में केवल पहली परत स्पष्ट है। दूसरी और तीसरी परत का कहीं उल्लेख या संकेत तक नहीं। यह कथा का कथ्यापत्मक कौशल है।
बच्चा पेट में दर्द का कछुआ अथवा कछुआ का दर्द लिये कराह रहा है, किंतु माँ–बाप को तमाशा दिखाकर पैसे मिलते है और समाज को सस्ते में कौतुकाधार आनंद।
पूरी कथा की बुनावट ऐसी है कि कथा–पट पर कोई धागा अलग से नहीं दीखता। ऊपर से कोई कशीदाकारी नहीं है, बल्कि भीतरी तारों के कुशलसंयोजन से अपेक्षित चित्रांकण उभर आता है। भीतर से ही सब कुछ पैदा हो रहा है।
ऊपर वीभत्स रस, मध्य में करुण रस और भीतर अंतिम छोर पर रौद्र रस का त्रिपादी कथारस इस कौशल से प्रवाहित हुआ है कि सहृदय सामाजिक का हृदय अभीप्सित साधारणीकरण तक सहज ही पहुँच जाता है। फिर तो दर्द का यह कछुआ सबों के पेट में उतर जाता है और फिर हम बिना टहोका मारे कराह उठते हैं।
लघुकथा का यही कौशल भी है।
ऐसे और भी उदाहरण उपस्थित किए जा सकते हैं, पर यहाँ इतिहास–दृष्टि और व्यावहारिक आलोचना के स्थान पर विधागत शास्त्रीयता पर ही केंद्रित रहना था। ये कुछ उदाहरण इसलिए उपस्थित किए गए कि प्रस्तारित निकष पर लघुकथा की जाँच की क्या प्रक्रिया हो सकती है, इसे थोड़ा स्पष्ट करना था।
इस विचारपत्र के माध्यम से मैंने जो कुछ निवेदित किया है, वह अंतिम नहीं है, ऐसा मैं आरम्भ में भी कह चुका हूँ। आपके परामर्श , विचार, संशोधन और संयोजन से मैं निश्चय ही लाभान्वित होना अपना सौभाग्य समझूँगा। इत्यलम्।
[यह आधार-आलेख लघुकथा-लेखक –आलोचक –सम्मेलन , अप्रैल 1989 के अवसर पर पटना में प्रस्तुत किया गया ]