गतिविधियाँ
 
 
   
     
 
  सम्पर्क  
सुकेश साहनी
sahnisukesh@gmail.com
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
rdkamboj@gmail.com
 
 
 
अध्ययन-कक्ष - जयप्रकाश मानस
जयप्रकाश मानस द्वारा सुकेश साहनी जी का साक्षात्कार

1. साहनी जी, आप के सम्मुख अभिव्यक्ति के लिए कई विधाएँ थीं । कथा-लेखन के लिए कहानी जैसी स्थापित और मान्यता प्राप्त विधा थी, फिर भी आपने तात्कालीन साहित्यिक दुनिया में लघुकथा जैसी अल्प परिचित विधा को अपनाया, जबकि वह विधा के रूप में मान्यता प्राप्त करने के लिए संघर्ष भी कर रही थी । ऐसा क्यों ?

- बहुत कम लोग जानते हैं कि मेरे लेखन की शुरूआत उपन्यास से हुई। 1970 से 1973 के बीच मैंने आठ उपन्यास लिखे थे, जिनमें से तीन प्रकाशित हुए थे। उपन्यास लेखन की वजह से शिक्षा के चलते लेखन स्थगित रखना पड़ा। आई.आई.टी. मुम्बई से पोस्ट ग्रेजुएशन करते हुए लेखन की पुन: शुरूआत हुई। मैं लघुकथा लेखन की ओर किसी योजना के तहत प्रवृत्त नहीं हुआ । अब सोचता हूँ तो यही लगता है कि उस समय मेरे मस्तिष्क में लघुकथा लेखन के लिए उपयुक्त स्नैपशॉटस् (कच्चा माल) कहीं अधिक था जो रचना प्रक्रिया के दौरान पककर लघुकथा के रूप में सामने आया। ‘साहित्य जगत में स्थान बनाना है’, ‘लघुकथा को मान्यता प्राप्त है अथवा नहीं’ जैसी बातों की मुझे समझ ही नहीं थी। हाँ, उन दिनों छप रही लघुकथा को देखकर मन में यह बात जरूर आती थी कि मैं इनसे बेहतर लिख सकता हूँ ।
2- आपने लघुकथा लेखन कब शुरू किया, आपकी पहली लघुकथा कौन-सी है । वह कहाँ प्रकाशित हुई?

–पहली लघुकथा ‘रिश्ते के बीच’ 1973 में लिखी थी जो लखनऊ से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक ‘विश्वविद्यालय संदेश’ में छपी थी। इसी साप्ताहिक में पहली कहानी ‘पागल’ भी छपी थी।
3- जिस दौर में आप लघुकथा लेखन के क्षेत्र में प्रवृत हुए उस समय लघुकथा की साहित्यिक दशा कैसी थी ? प्रकाशन के अवसर कैसे थे ? सार्वजनिक मान्यता कैसी थी, आलोचकों का रूख कैसा था?
–उस दौर में लगा कि लघुकथा की साहित्यिक दशा अच्छी नहीं थी। अपनी बात कहूँ तो मैं केवल सारिका में प्रकाशित होने वाली लघुकथाओं से ही परिचित था। बाद में अखबारों के रविवासरीय परिशिष्ट की ओर ध्यान गया जिनमें फिलर के रूप में लघुकथा छापी जाती थी। लघुकथा साहित्य जगत में मान्यता के लिए संघर्ष कर रही थी। आम पाठक जरूर इसे चाव से पढ़ने लगा था । उस दौर में भी मुझे अपनी लघुकथाओं के प्रकाशन को लेकर किसी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा। अखबारों के सम्पादकों ने मेरी लघुकथाओं को रेखांकनों के साथ महत्त्व देकर छापा। स्थापित आलोचकों ने आज भी लघुकथा की ओर रुख नहीं किया है, तब स्थिति तो बहुत खराब थी।
4-आपकी रचना प्रक्रिया को मैं किन अर्थों में भिन्न कह सकता हूँ ?

–अन्य साथी लघुकथाकारों से अपनी रचना प्रक्रिया भिन्न होने का दावा मैंने कभी नहीं किया। इसे आसान विधा समझने वाले/चुटकियों में लघुकथा लिख लेने वाले/कसम खाकर रोज एक लघुकथा लिखने वालों से मेरी रचना प्रक्रिया जरूर भिन्न है। मेरी अनेक ऐसी लघुकथाएँ ऐसी हैं जिन्हें ‘कच्चा माल’ मिलने के बरसों बाद कागज पर उतार सका। लघुकथा सृजन को लेकर मेरा कहना है–‘‘जीवन यात्रा के विभिन्न पल छोटे–छोटे एहसासों के रूप में (फोटोग्राफी की भाषा में स्नैपशॉटस) दिलो-दिमाग पर छा जाते हैं। अनुकूल परिस्थितियाँ पाते ही जब इनमें साहित्यिक रूप के साथ जीवन का गर्म लहू दौड़ने लगता है, जब उससे संबंधित विचार व्यवस्थित होकर घुल–मिल जाते है, तभी लघुकथा कागज पर उतार पाता हूँ।’’ अपनी इस टिप्पणी को और स्पष्ट करते हुए कहना चाहूँगा कि मेरी लघुकथाओं के पात्र मेरे हाथों की कठपुतलियाँ नहीं हैं बल्कि मैं, मेरा लेखन जीवन के इन पात्रों से परिचालित हुआ है।
5- आज आप अपनी सम्पूर्ण लघुकथा यात्रा को किस तरह देखते हैं ? आप अपनी सृजनात्मकता को लेकर कितने संतुष्ट हैं ? लघुकथा लेखन के इतिहास एवं विकास क्रम में स्वयं को किस रूप में पाते हैं ? कृपया अपनी कृतियों, तथा रचना संसार के बारे में विस्तार से बताएँ?

–मैं अपनी लघुकथा लेखन–यात्रा से संतुष्ट हूँ। संतोष इस बात का है कि प्रस्थान बिंदु से निरंतर आगे बढ़ा हूँ। साहित्यिक यात्रा की कोई मंजिल नहीं होती। यह रास्ता ही रास्ता है। तलाश ही तलाश है। अपनी सृजन यात्रा के परिप्रेक्ष्य में यही इच्छा है कि मंजिल कभी न आए। खुशी होती है यह देखकर कि किसी स्थापित कहानीकार की तुलना में लघुकथा लेखक के रूप में मुझे जानने/मानने वाले पाठकों की संख्या कम नहीं है। लघुकथा की विकास यात्रा में मेरे प्रयासों को ससम्मान रेखांकित किया जाता है। मेरा पहला लघुकथा संग्रह ‘डरे हुए लोग’ 1991 में प्रकाशित हुआ था। आज यह संग्रह पंजाबी, गुजराती, मराठी, अंग्रेजी में उपलब्ध है। उर्दू में शीघ्र प्रकाशित होने वाला है। दूसरा लघुकथा संग्रह ‘ठंडी रजाई’ 1998 में प्रकाशित हुआ था। यह संग्रह भी पंजाबी और अंग्रेजी में उपलब्ध है। डॉ.कोनरॉड मईजिंग (जर्मनी) ने मेरी लघुकथाओं को जर्मन भाषा में अनूदित किया है । अनेक लघुकथा संग्रहों का संपादन कर सका हूँ। मैग्मा और अन्य कहानियाँ 2003 में प्रकाशित हुआ। रोशनी कहानी पर दूरदर्शन के लिए टेलीफिल्म बनी। वहीं कोल्ड वेव, पेन, मैग्मा, खरोंच, और पुल कहानियों को राजेन्द्र यादव, प्रभाकर श्रोत्रिय, श्रीलाल शुक्ल, हृदयेश सरीखे हस्ताक्षरों ने खूब सराहा। बाल कथाओं का संग्रह ‘अक्ल बड़ी या भैंस’ 2005 में प्रकाशित हुआ।
6-लघुकथा के प्रादुर्भाव को लेकर कई तरह के विचार हमारे सामने आते हैं, कोई उसके बीज वेदों और पुराण कथाओं में देखता है तो कोई लोककथाओं में, आप उसे किस तरह उसके अधिकतम सत्य रूप में देखते हैं ?

– जब हम किसी विधा पर शोध करते हैं, तब उसके उद्गम से लेकर विकास यात्रा के विभिन्न पड़ावों की पड़ताल करते हैं। लघुकथा के शोधार्थी इसपर काम कर रहे हैं। इस संदर्भ में आम राय यही है कि लघुकथा हमें विरासत में मिली नीति, बोध एवं दृष्टांत कथाओं का विकसित रूप है इस संबंध में मेरी धारणा है कि जिस प्रकार हमारे पूर्वजों ने विचारों/उपदेशों को सम्प्रेषित करने के लिए इन कथाओं का सहारा लिया, उसी प्रकार लेखक को भी अभिव्यक्ति के लिए लघुकथा की जरूरत पड़ी। तात्पर्य यह कि यदि हमें विरासत में नीति, बोध या दृष्टांत नहीं मिलते तो भी समय की माँग के फलस्वरूप लघुकथा अस्तित्व में आती।
7- लघुकथा को आप मूलतः भारतीय विधा मानते हैं या अन्य कई विधाओं की तरह विदेशी विधा ?

–मैंने इस पर कभी माथापच्ची नहीं की । लेखक अपने भीतर पक रही उन रचनाओं को लघुकथा के रूप में जन्म देता है, जिनमें कहानी के जैसे विस्तार की आवश्यकता नहीं होती यानी जहाँ लेखक के भीतर की मुकम्मल रचना स्वत: लघुकथा का आकार ग्रहण करती है। विश्व के तमाम प्रसिद्ध लेखकों की छोटी कथा रचनाओ का अनुवाद करते हुए यही लगा कि हवा पानी की तरह प्रत्येक लेखक को अपनी बात कहने के लिए लघुकथा की जरूरत पड़ी।
8- लघुकथा के ऐतिहासिक विकास क्रम को आप किस नज़रिये से बताना चाहेंगे ?

–लघुकथा से जुड़े प्रमुख हस्ताक्षर 1970 के प्रारम्भ को लघुकथा का पुनरुत्थान काल मानते हैं। इस काल खण्ड के प्रारम्भ से लघुकथा नीति, बोध एवं उपदेश जैसे तत्वों से मुक्त होकर आम आदमी के दुख–दर्द से जुड़ी। लेखक अपने दायित्व एवं सामाजिक सरोकारों के प्रति अधिक सजग हुआ। सामाजिक यथार्थ के दबाव को महसूस करते हुए वह उचित अनुचित का विवेचन इस विधा में करने लगा। तबसे लघुकथा निरंतर अपनी विकास यात्रा पर आगे बढ़ रही है।
9- लघुकथा को जब परिभाषा के रूप में कोई जानना चाहे तो आपका जवाब क्या होगा ?

9–ऊपर मैंने रचना प्रक्रिया के दौरान इसे परिभाषित करने का विनम्र प्रयास किया है। सृजनात्मक लेखन के सन्दर्भ में लगभग सभी विधाओं की परिभाषा एक सी होती है। लघुकथा के सन्दर्भ में बारीक खयाली और आकारगत लघुता की बात और जोड़ना चाहूँगा।
10. लघुकथा की चारित्र्यिक विशेषताओं के बारे में विस्तार से बताएँ ना, खासकर उन बातों को भी जो केवल आपकी निजी राय भी हो ।

–लघुकथा में लेखक संबंधित विषय का मूल स्वर पकड़ता है। यहाँ मूल स्वर का अभिप्राय मोटी बात से नहीं, बल्कि रचना में संबंधित विषय और कथ्य के मूल (सूक्ष्म) स्वर से है। लघुकथा में लेखक संबंधित विषय से जु़ड़े किसी बिन्दु पर फोकस करता है। फोकस की प्रक्रिया यांत्रिक नहीं होती। इसमें 1- लेखक के दिलों दिमाग में बरसों से छाए अहसास 2. अकस्मात् प्राप्त सूक्ष्मदर्शी दृष्टि 3.विषय से संबंधित विचार सम्मिलित हैं। इस प्रक्रिया में उपन्यास कहानी की भांति बरसों लग सकते हैं। यदि विषय को पेड़ मान लें तो लघुकथा में लेखक उस पेड़ की एक अथवा दो पत्तियों के हरे पदार्थ, स्टोमेटा और उनसे हो रहे एवैपोट्रांसपरेशन पर फोकस करता है। इसी लिए कहा जाता है कि लघुकथा लेखन आसान नहीं है।
11. लघुकथा के भाषागत वैशिष्ट्य के बारे में आपका अपना विचार क्या है ?

–लघुकथा को आज जो स्थान प्राप्त है उसके पीछे आम पाठकों से मिल रही स्वीकृत प्रमुख है। लघुकथा की भाषा आम पाठकों के समझ में आने वाली होनी चाहिए, पात्रों एवं परिवेश के अनुरूप होनी चाहिए। आकारगत लघुकथा के कारण लेखक को मुहावरों और संकेतों का प्रयोग करना चाहिए। यह भी उसी सीमा तक होना चाहिए कि पाठक तक रचना संप्रेषित होने में बाधक न बने। और लघुकथा की प्रस्तुति चुस्त, लघु और प्रभावी हो जाए।
12- लघुकथा के शिल्प को लेकर क्या स्थायी बातें की जानी चाहिए, जैसा कि हर बड़बोला लघुकथाकार करता रहा है ?

–लघुकथा में लेखक के पास अधिक अवकाश नहीं होता। लघुकथाकार अपनी बात को कितने प्रभावी ढंग से पाठकों के सामने रख सकता है, यह महत्त्वपूर्ण है। इसके लिए उसके पास सभी विकल्प खुले होते है। शिल्प की दृष्टि से प्रयोग की असीम संभवानाएँ लघुकथा के लिए भी है। यह दूसरी विधाओं की तुलना में लघुकथा से अतिरिक्त रचना कौशल की माँग करता है।
13- लघुकथा के आकार-प्रकार को लेकर भी काफी बहस कई स्तर पर हो चुकी हैं, आप उसे किस तरह अनुशासित करना चाहेंगे ?
–लघुकथा लेखन कोई यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है, इसलिए इसमें शब्द सीमा तय कर सृजन नहीं किया जा सकता। निसंदेह आकारगत लघुता लघुकथा की विशेषता है। लघुकथा की लोकप्रियता, पहचान इसी लघुता के कारण ही है। यह लघुकथा के साथ जुड़ी अनिवार्य शर्त है। आकारगत लघुकथा को सामग्री की सांद्रता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। कहानी में जहाँ संबंधित विषय के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए लेखक अपनी बात करता है, वहीं लघुकथा में विषय में एक अथवा दो विशिष्ट बिंदुओं पर फोकस करता है। फोकसिंग के दौरान भी जो अतिमहत्वपूर्ण है, उसे चुनता है। रचना को अपने स्वाभाविक रूप में जन्म लेने देना चाहिए। कथा की विषय वस्तु, लेखकीय दृष्टि एवं उससे संबंधित विचार मिलकर लघुकथा का आकार तय करते है। सृजन के क्षणों में लेखक को शब्द सीमा को लेकर माथा पच्ची नहीं करनी चाहिए। बाद में आवश्यक काट–छाँट की जा सकती है।
14- लघुकथा को स्थापित करने के लिए एक आंदोलन भी चला है, यह कैसा आंदोलन था, इसके परिणाम और उसके संघर्ष गाथा के बारे में आपके अनुभव कैसे रहे हैं ? आपकी भूमिका को हम किस नज़रिये से देख सकते हैं ? इस आंदोलन के सिपाहियों के बारे में आपका क्या राय है ? आज उस आंदोलन की स्थिति किस मुकाम पर है ?
–लघुकथा की स्थापना को लेकर जिस आंदोलन की बात की जाती है, उसे लघुकथा लेखकों के विधा के विकास के लिए किए गए प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए। मैंने जहाँ तक संभव हुआ, विभिन्न प्रदेशों में सम्मेलनों में भाग लिया । विचारों का आदान प्रदान हुआ। इससे लाभ मिला। बरेली में वर्ष 1989 में मैंने और काम्बोज जी ने मिलकर लघुकथा पर दो दिवसीय आयोजन कराया था। यह पहला अवसर था जब पढ़ी गई लघुकथाओं पर तत्काल समीक्षा हुई थी और बाद में इसे पुस्तक रूप में प्रकाशित किया गया था। मुझे लगता है इस प्रकार के आयोजनों से विधा की विकास यात्रा में गति आती है। मैं रायपुर में आप द्वारा आयोजित दो दिवसीय आयोजन को भी इसी आंदोलन की कड़ी के रूप में देख रहा हूँ ।
15-यह स्वयं सिद्ध है कि लघुकथा का जनक छत्तीसगढ़ प्रदेश रहा है जहाँ माधवराव सप्रे ने हिंदी लघुकथा का श्रीगणेश किया, फिर भी उसने यहाँ के हम लघुकथाकारों ने कभी भी पटना, सिरसा, दिल्ली और इंदौर वालों की तरह कभी दहाड़े नहीं ? ऐसा क्योंकर होता रहा कि छत्तीसगढ़ के तमाम बड़े लघुकथाकारों, जैसे आचार्य सरोज द्विवेदी, विभू खरे, डॉ. महेन्द्र ठाकुर, ड़ॉ. राजेन्द्र सोनी, स्व. रवीन्द्र कंचन, गिरीश पंकज, महेश राजा, को बड़े मठाधीशों ने बिसारना शुरू कर दिया । जबकि आज खासकर 7 वें और आठवें दशक से सक्रिय कई लघुकथाकार लगातार इस विधा के विकास के लिए कृत-संकल्पित हैं और इतना ही नहीं अच्छा लिख भी रहे हैं, छप रहे हैं ।( कई लघुकथाकार तो दर्जनों उल्लेखनीय संकलन में भी समादृत हैं) ऐसे में मियाँमिठ्ठुओं के इतिहास या विकास क्रम के बारे में लेखन का क्या औचित्य रह जाता है ;जब किसी इतिहास लेखक को अपने आसपास का ही बहुत कुछ दिखाई नही देता ?

– लघुकथाकारो में अपने अपने गुट के नामों का उल्लेख करने की परम्परा रही है, इसकी निन्दा की जानी चाहिए। लेकिन यह भी ध्रुव सत्य है कि अंतत: अपने लेखन के बल पर ही रचनाकार की पहचान बनती है। समर्थ रचनाकार इन बातों की परवाह किए बिना अपनी सृजन यात्रा में लीन रहता है । उसकी सशक्त रचनाएँ ही ऐसी ओछी हरकतों का जवाब हो सकती है।
16- लघुकथा को यदि आप स्वतंत्र विधा मानते हैं तो किस तरह ?
–लघुकथा कहानी का संक्षिप्त रूप नहीं है। लघु आकार की मुकम्मल कृति के साथ–साथ अन्य विशेषताओं के चलते इसे स्वतंत्र विधा मानता हूँ। लघुकथा की चारित्रिक विशेषताओं पर ऊपर विस्तार से चर्चा हो चुकी है।
17- लघुकथा को कुछ आलोचक कहानी के अगले क़दम के रूप मे देखते रहे हैं, वह कथाकुल की विधा होने के बावजूद किन अर्थों में कहानी से भिन्न है ? ज़रा विस्तार से बताएँ ?

-लघुकथा कहानी का अगला कदम है मैं इससे सहमत नहीं। लघुकथा को हम स्वतंत्र विधा मानते हैं तो उसे हमें तमाम विशेषताओं और खामियों के साथ स्वीकार करना होगा। यहाँ मैं डॉ.शकर पुणतांबेकर के कथन से सहमत हूँ–‘‘कहानी को जिस भाँति उपन्यास का लघुरूप नहीं माना जाता उसी तरह लघुकथा को हम कहानी का लघुरूप नहीं कह सकते। उपन्यास की अपेक्षा कहानी में अनुभूति की तीव्रता कहीं अधिक होती है और कहानी की अपेक्षा लघुकथा में और अधिक।’’
पुणतांबेकर जी के इस कथन के पीछे भी वही बात है, जिस पर हम चर्चा कर चुके है। लघुकथा में लेखक का विषय के किसी बिंदु पर फोकस सामग्री की सांद्रता को जन्म देता है। इसी वजह से कहानी की तुलना में लघुकथा में अनुभूति की तीव्रता कहीं अधिक होती है। लघुकथा का समापन बिंदु भी उसे कहानी से अलग करता है। यह कहानी की तुलना में अतिरिक्त श्रम एवं रचना कौशल की मांग करता है। लघुकथा के समापन बिंदु को उस बिंदु के रूप में समझा जा सकता है जहाँ रचना अपने कलेवर के मूल स्वर को कैरी (carry) करते हुए पूर्णता को प्राप्त होती है। लघुकथा की रचना प्रक्रिया के दौरान लेखक आकारगत लघुता एवं समापन बिंदु को ध्यान में रखकर ही ताने बाने बुनता है और यही लघुकथा की रचना प्रक्रिया दूसरी विधाओं से भिन्न हो जाती है।
18-मुझे ठीक तरह से याद है एक दौर था जब लघुकहानी, लघुव्यंग्य या आधुनिक लघुकथा की बातें भी जोरों से होती रहीं ? इसे किस तरह देखा जाना चाहिए ?

–कुछ अति महात्वाकांक्षी लघुकथा लेखकों द्वारा इस तरह के शगूफे अवश्य छोड़े गए, जिस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
19- आप लघुकथा के विकास और लोक-स्वीकृति के पीछे किन-किन तथ्यों को मानते हैं ?

–यह सच है कि आज नई पीढ़ी में साहित्य के प्रति रूचि कम दिखाई देती है। अपने आकार के कारण लघुकथा के पास दूसरी विधाओं की तुलना में कहीं अधिक पाठक हैं। मैंने देखा है कि पत्र–पत्रिकाओं को केवल उलटने पलटने के इरादे से उठाने वाला व्यक्ति भी लघुकथा को पढ़ ही लेता है । यदि पहले पहल उसे अच्छी लघुकथा पढ़ने को मिल गई तो आगे चलकर वह ढूँढ़ कर लघुकथाएँ पढ़ता है। लघुकथा के विकास एवं लोक–स्वीकृति के पीछे यही प्रमुख कारण नजर आता है।
20- लघुकथा का वर्तमान दौर किस दिशा की ओर संकेत करता है ? उसका भविष्य किस तरह से निर्धारण हो सकेगा ?

–लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य संतोषजनक ही कहा जा सकता है। अच्छा इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि बहुत अधिक मात्रा में सशक्त लघुकथाएँ अभी भी सामने नहीं आ रहीं। भविष्य अच्छा है क्योंकि बहुत से स्थापित कथाकार अभिव्यक्ति के लिए लघुकथा के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं ।
21-मुझे नहीं लगता कि जिस तरह से संवेदना के संपूर्ण फलक को कथा विधा की तरह लघुकथाकार लघुकथा में रख सकता है । फिर वहाँ शिल्प और भाषा की भी अधिक वेरायटी की संभावना नहीं दिखाई देती और आप स्वयं सहमत होना चाहेंगे कि विडम्बनाओं, विद्रुपताओं, और सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यहीनता की घटनायें प्रकारांतर से वहीं है तब भविष्य में ऐसे में नये विषय वाले लघुकथायें कैसे लिखी जाती रहेगी ?

–आपकी इस टिप्पणी से मैं सहमत नहीं हूँ। नए विषयों पर अपनी रचनाओं का उदाहरण देना उचित नहीं लगता। इतना जरूर कहूँगा कि मुझे लघुकथा में अभिव्यक्ति की दृष्टि से असीम संभावनाएँ दिखाई देती हैं। हाँ, ऐसी रचनाओं पर काम करते हुए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है।
22- आज भी लघुकथा के नाम पर अनाप-शनाप चल रहा है ? कुशल और योग्य संपादक के अभाव एवं पत्र-पत्रिकाओं की बहुलता, और सामग्री के कमी के कारण आज भी अपरिपक्व लघुकथाकार स्थान पा जाते हैं, आखिर यह कहाँ जाकर ठहरेगा । इसकी भी स्थिति ठीक उसी तरह है जिस तरह से समकालीन कविता की हो रही है....

–दिक्कत यह है कि आकारगत लघुता जहाँ लघुकथा के लिए वरदान साबित हो रही है, वहीं अभिशाप भी । अनेक नए रचनाकार आसान विधा समझ के इसमें आते हैं, चुटकुलों या परस्पर विरोधी दो घटनाओं वाली लघुकथाएँ लिखने लगते है, जिन्हें लघुकथा अपनी विकास यात्रा में काफी पीछे छोड़ चुकी है।
23-क्या इसे आप आलोचकों की इस विधा के प्रति अवहेलना मानते हैं या समय का दबाब जिसमें हर कोई फटाफट रचना चाहता है और जिसके लिए उसे लघुकथा विधा में अधिक स्पेस की गुंजायस नज़र आता है । इस प्रवृत्ति को आप किस रूप में लेते हैं ?

–इसके लिए सि‍र्फ़ और सिर्फ़ लेखक जिम्मेवार है। फटाफट पचास–साठ लघुकथाएँ लिखकर संग्रह छपवाने के मोह ने इस विधा को बहुत नुकसान पहुँचाया है।
24- लघुकथा को लेकर कई लोग कई विश्वविद्यालय में शोध कर चुके हैं फिर भी जहाँ तक मेरी जानकारी है इस विधा को कई राज्यों के पाठ्यक्रमों में अभी भी समादृत नहीं किया जा सका है, इसके लिए लघुकथाकारों की भूमिका क्या हो सकती है, और आलोचकों, शिक्षाविदों की भी ? मैं आपसे यह भी जानना चाहूँगा कि किस-किस राज्य के किस-किस स्तर पर इसे एक मान्य विधा के रूप में स्कूली और महाविद्यालयीन (खासकर साहित्य विषय में) पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जा रहा है ?

–देखिए, वर्ष 2007 को हमने अभी अलविदा कहा है। सभी पत्र–पत्रिकाओं ने वर्ष भर का साहित्यिक लेखा–जोखा छापा है। इसमें महत्वपूर्ण रचनाओं/प्रकाशित पुस्तकों का जिक्र है। लघुकथा की किसी पुस्तक का जिक्र मेरे देखने में नहीं आया। इसके लिए जहाँ संबंधित स्तम्भ लेखक का उपेक्षापूर्ण रवैया जिम्मेवार है, वहीं फटाफट लघुकथा लिखने वाले लेखक भी दोषी हैं। इन परिस्थितियों में कई राज्यों के पाठयक्रमों में लघुकथा को शामिल न किए जाने का कारण स्वत: स्पष्ट हैं। दूसरे लघुकथा का कोई महत्वपूर्ण हस्ताक्षर पाठय पुस्तकों हेतु गठित चयन समिति में नहीं रहा। भाई रामेश्वर काम्बोज जी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण प्रकाशक की कक्षा एक से आठ तक की पाठ्य पुस्तक ‘भाषा मंजरी’ में लघुकथाओं का समावेश किया है। ये पुस्तकें पश्चिमी उत्तर प्रदेश,दिल्ली, हरियाणा में पिछले कई वर्षों से पढ़ाई जा रही हैं। सी.बी.एस.ई. बोर्ड की कक्षा.11एवं 12 में एन सी ई आर टी जैसी संस्था कई साल पहले लघुकथाएँ शामिल कर चुकी है । इससे बड़ी स्वीकृति और क्या होगी ?बिहार शिक्षा बोर्ड बहुत पहले लघुकथा को हिन्दी के पाठ्यक्रम में शामिल कर चुका है ।
25- वैसे तो आज हिंदी की लगभग तथाकथित प्रतिष्ठित पत्रिकायें संपादक के अहम् और गर्वोक्ति की शिकार बन चुकी हैं । साहित्य की सही दिशा की कम लोगों को ही चिंता है । उसमें भी आलोचना मुँहदेखी और भोथरी हो रही हैं । ऐसे में लघुकथा के आलोचना शास्त्र के विकसित होने की संभावना कम ही दिखाई देती है । जो भी मानक मूल्य तय किये गये हैं क्या उससे आप सहमत हैं ? क्योंकि मैं व्यक्तिगत रूप से समझता हूँ कमलकिशोर गोयनका जी जैसे प्रयासों के लिए हिंदी के आलोचकों को आगे आना ही होगा । और खासकर ऐसे आलोचकों को जो केवल लघुकथाकार ही न हों । आप क्या कहते हैं ?

–मैं आपसे सहमत हूँ। डॉ.अनूपसिंह, कृष्णानंद कृष्ण,नागेंद्र प्रसाद सिंह एवं कमल किशोर गोयनका जैसे हस्ताक्षरों को छोड़कर यहाँ सन्नाटा है। इससे लघुकथा का वास्तविक मूल्याकंन नहीं हो पा रहा है।
26- वैसे तो समीक्षा कोई फार्मूला नहीं फिर भी लघुकथा आलोचना की सर्वोत्कृष्ट विधि क्या हो सकती है
–किसी भी रचना के गुण–दोष परखने के लिए आलोचक किसी भी विधि को अपना सकते है।
27- साहनी जी, एक वरिष्ठ लघुकथाकार के रूप में आप लघुकथा-समीक्षा के निकष के बारे में क्या विचार रखते हैं ?

–पंजाब में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले कार्यक्रम ‘जुगनुओं के अंग–संग’ में शामिल होता रहा हूँ। रात भर चलने वाले इस कार्यक्रम लघुकथाकार गोलदायरे में बैठ जाते हैं। एक कथाकार रचना पाठ करता है, फिर सभी उसी पर टिप्पणी करते हैं। आदर्श लघुकथा की जिन विशेषताओं पर हम सभी की सहमति बन चली है, पढ़ी गई लघुकथा उस पर खरी उतरती है या नहीं, इसी आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाता है । पंजाबी और हिन्दी लघुकथाओं पर इसका सकारात्मक और गुणात्मक प्रभाव साफ़ झलकता है
28—आप पहले लघुकथाकार हैं जो अंतर्जाल पर लघुकथा की प्रतिष्ठा के लिए आगे आयें हैं । यह बात अलग है कि अंतर्जाजाल पर संचालित लगभग सभी मानक पत्रिकाएँ अब लघुकथा छापने के लिए लायायित नज़र आती हैं......अपने इस क़दम के बारे में बताएँ ।
–दरअसल मेरी हंस में प्रकाशित कहानी ‘मैग्मा’ का जर्मन अनुवाद गुटनबर्ग यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर कोनरॉड मईजिंग ने किया था और इसे यूनिवर्सिटी की वेब साइट पर डालने हेतु अनुमति ली थी। तभी मेरा ध्यान इस ओर गया था। भाई रामेश्वर काम्बोज जी के बेटे निशान्त काम्बोज और सुशान्त काम्बोज वेब डिजाइनिंग के क्षेत्र में हैं। उनसे चर्चा हुई तो उनकी मदद से लघुकथा डॉट कॉम का सन् 2000 में शुभारम्भ हुआ। कहना न होगा कि इसमें काम्बोज परिवार का सहयोग न मिलता तो मैं इस दिशा में कदम नहीं बढ़ा पाता।
29- साहित्य में लघुकथा की स्थिति को किस तरह से मूल्यांकित किया जा सकता है ?
–साहित्य के वार्षिक लेखे–जोखे का जिक्र कर मैंने इस ओर संकेत किया है। लघुकथा को प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिए अभी लम्बा सफर तय करना है।
30- लघुकथा में कितना साहित्य है और कितना साहित्यकार ? मुझे तो अब तक पढ़ी-सुनी गई हजारों लघुकथाओं में कहीं भी लघुकथाकार दिखाई नहीं देता । एक ऐसी विधा जिसमें एक लघुकथाकार का व्यक्तित्व सदैव अनुपस्थित रहे वह कब तक उसका दामन पकड़कर अपनी समूची रचनात्मकता को साहित्य में रख सकेगा ?
–अपनी समुचित रचनात्मकता को लघुकथा के माध्यम से साहित्य में रखने की बात सोचने का कोई मतलब नहीं है। आपके मस्तिष्क में कच्चे माल के रूप में यदि बीज लघुकथा का है तो आप लघुकथा ही लिख सकेंगे। यदि बीज कहानी का है तो उस पर लघुकथा लिखने का कोई औचित्य नहीं हैं।
31-आपको प्रिय लगने वाले समकालीन लघुकथाकार जिसे हम समूचे विश्व में एक अच्छे लघुकथाकार के रूप में भी बता सकते हैं ? उन पुराने रचना कारों के नाम जो अन्य विधाओं में भी प्रतिष्ठित रहे हैं और जिन्होंने लघुकथा को अपना पूर्ण समर्थन दिया है ? हिंदी लघुकथा को संभावनाशील रचनाकार (केवल अपने आसपास वालों के नाम ही नहीं पूछ रहा हूँ मैं) के बारे में क्या राय है आपकी ?
-रमेश बतरा मेरे प्रिय लघुकथाकार हैं ।इनकी हर रचना का तेवर अलग है । पुराने रचनाकारों में प्रमुख हैं–भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, माधवराव सप्रे, छबीलेलाल गोस्वामी, प्रेमचन्द, गुलेरी, माखनलाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद, पदुमलाल पुन्नालाल बखी, रामवृक्ष बेनीपुरी, यशपाल, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, जानकीवल्लभ शास्त्री, रावी, उपेन्द्रनाथ अश्क, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, विष्णु प्रभाकर,राजेन्द्र यादव आदि। नये संभावनाशील रचनाकार, जिनकी रचनाओं ने ध्यान खींचा है और जिनके नाम एकाएक याद आ रहे हैं–आनन्द, ज्ञानदेव मुकेश, आलोककुमार सातपुते, आरती झा, पवित्रा अग्रवाल, हरीश बर्णवाल, राघवेन्द्र कुमार शुक्ल, हरि मृदुल, रेखा कस्तवार, किसलय पंचोली आदि।


°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
 
 
Developed & Designed :- HANS INDIA
Best view in Internet explorer V.5 and above