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लघुकथा : काल विभाजन
डा. रामकुमार घोटड़

आज हिन्दी लघुकथा एक ऐसे मुकाम पर खड़ी है जो किसी बखान के मोहताज नहीं। अब लघुकथा अपने आप में परिपूर्ण एवं विकसित विधा है। इस अवस्था तक पहुँचने में लघुकथा को एक लम्बा सफर करना पड़ा। पंचतंत्र की कथाएँ, जातक कथाएँ, नीति कथाएँ, प्रेरक कथाएँ, जैन–बोध कथाएँ, लघुकहानी हास्य क्षणिकाएँ, लघु व्यंग्य रचनाएँ, ये सभी हिन्दी लघुकथा का मूल आधार व दिशा बोध रहे हैं।
हिन्दी लघुकथा की उत्पत्ति के बारे में मेरा विचार है कि हिन्दी लघुकथा अनजाने में ही उपजी एक साहित्यिक देन है। यहां अनजाने का मेरा मतलब है कि उस समय प्रारंभिक युग में लेखक ने जानबूझकर लघुकथा नहीं लिखी क्योंकि तब लघुकथा शब्द की उत्पत्ति ही नहीं हुई थी। जहां तक मैं सोचता हूं, उस समय के लेखक को एक प्लाट (कथानक) मिल गया, उससे वो बहुत प्रभावित हुआ और उस विषय पर लिखने लगा। कुछ सीमित शब्दों के लिखे जाने के बाद, स्वत: ही लिखा जाना बन्द हो गया और रचना पूर्ण हो गई। बहुत कोशिश करने के बाद भी वो उस रचना को विस्तार नहीं दे पाया। इस रचना को लेखक का मन कहानी भी नहीं मान पा रहा था और उसे यह रचना रूपक, दृष्टान्त, पंचतंत्र, हितोपदेश व जैन–बोध कथाओं से भी भिन्न प्रतीत हो रही थी। इस नई रचना को लेखक संतोषजनक ढं़ग से परिभाषित नहीं कर पाया और उसे एक लघु आकारीय कथा, लघु कहानी कह कर संतोष करना पड़ा। इसी लघु आकारीय कथा का नाम आगे चलकर लघुकथा पड़ा।
हिन्दी लघुकथा को वर्तमान रूप में पहुंचने में एक शताब्दी से भी तीन दशक उपर समय लग गया। बदलते समय के अनुसार काल, परिवेश व सामाजिक परिवर्तन के अनुरूप लघुकथा के कथ्य एवं शैली में भी बदलाव आता गया। समयानुरूप परिवर्तन के आधार पर हिन्दी लघुकथा विधा को चार काल में रखा गया है–
(1) प्रारंभिक काल (1875–1920) (2) सुषुप्त काल (1921–1950)
(3) परिवर्तन काल (1951–1970) (4) आधुनिक काल (1971 से आगे)
1. प्रारंभिक काल (1875–1920) : हिन्दी कथा साहित्य का आरंभ भारतेन्दु युग से माना जाता है। इस युग में लिखी गई कोई भी लघुकथ्यात्मक साहित्यिक रचना निश्चित तौर से हिन्दी लघुकथा ही होगी। हिन्दी लघुकथा पारम्परिक किस्सा–गोइयों का ही एक परिवर्तित रूप है। मौलिक रूप से चली आ रही आपसी हास–परिहास और चमत्कारिक घटनाओं की सशक्त भारतीय परम्परा का लेखन है। जन जीवन में हास परिहास से जुड़ी हुई मौलिक कथा की इस परम्परा में लघुकथा का मूल आधार तैयार हुआ। हास परिहास और चुटकलों की यही मौलिक परम्परा भारतेन्दु युग में लेखन की एक विधा के रूप में प्रकट हुई। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की सन् 1875 में हरिप्रकाश यंत्रालय–बनारस से प्रकाशित पुस्तक ’परिहासिनी’ में लगभग दो दर्जन लघुकथ्य शैली वाली रचनाएं प्रकाशित हैं। हालांकि भारतेन्दु ने इन्हें हँसी, दिल्लगी, चित्त विनोद वाली रचनाएं माना है लेकिन फिर भी इन में से कुछ रचनाएं जैसे ज्ञानचर्चा, दुआ माँगना, पंच का प्रपंच, भाषा शैली एवं आकारगत ढंग से हिन्दी लघुकथा के दायरे में आती है। वैसे भी हास्य एवं व्यंग्य पुट आधुनिक लघुकथा का बीज रूप रहा है। भारतेन्दु युगीन पत्र पत्रिकाओं में इस प्रकार की हंसी मजाक चुटकले नुमा छोटी–छोटी कहानियाँ पर्याप्त मात्रा में देखने को मिलती है। हिन्दी में भारतेन्दु जी के बाद तपस्वीराम (बिहार) ने 1885 के आसपास काफी लघुकथात्मक रचनाएं लिखी जो उनकी पुस्तक ’कथामाला’ में संगृहीत हैं। ये भारतेन्दु की व्यंग्यपरक शैली से हटकर ’नीतिपरक’ लघुकथ्य रचना एँ हैं।
इस काल में कुछ और इस प्रकार की लघुकथात्मक प्रस्तुतीकरणीय रचनाएँ पढ़ने को मिलती है जैसे 1901 में रचित माधव सप्रे की ’एक मिट्टी भर टोकरी’ जो छत्तीसगढ़ पत्रिका में प्रकाशित हुई। 1904 में मुंशी प्रेमचन्द व चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की भी लघुआकारीय रचना देखने को मिलती है। 1915 में छबीले लाल गोस्वामी की रचना ’विमाता’ सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई। 1916 में ’सरस्वती’ में ही पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी की ’झलमला’ प्रकाशित हुई। इसी काल में माखनलाल चतुर्वेदी की भी ’बिल्ली और बुखार’ जैसी कुछ लघुआकारीय रचनाएं मिलती है। इनके अलावा 1920 में जगदीश चन्द्र मिश्र ने भी लघुकथ्य शैली की अपनी प्रथम रचना ’बूढ़ा व्यापारी’ लिखी।
इस युग में लघुकथा शब्द की उत्पत्ति नहीं हुई थी। लेखक अपने हिसाब से लघुआकारीय रचना लिखा करते थे जिनको बाद में लघुकथा के दायरे में रखकर लघुकथा मान लिया गया।
2. सुषुप्त काल (1921–1950) : हिन्दी लघुकथा लेखन हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक दौर में शुरू हो गया था। प्रतिष्ठित लेखकों जैसे भारतेन्दु, माखनलाल चतुर्वेदी, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, प्रेमचन्द, पदुमलाल–पुन्नालाल बक्शी, माधव सप्रे, छबीले लाल गोस्वामी के लेखन में हिन्दी लघुकथा की नींव पड़ी। बाजार में जब कोई नई विषय वस्तु आती है तो सामर्थ्यानुसार हर शख्स उस पर हाथ आजमाने की कोशिश किया करता है लेकिन इस युग के लेखकों ने नई विधा के प्रति ऐसा कुछ नहीं किया। हिन्दी साहित्य की नई देन को पनपाने के लिए इस विधा के प्रति लेखन कार्य होना चाहिए था, अपेक्षित नहीं हो पाया। सामर्थ्यवान लेखकगण होते हुए भी अपेक्षित लघुकथा लेखन न कर पाने का कारण क्या रहा, समझ में नहीं आता।
इस युग के पाठक तिलस्मी साहित्य एवं उपन्यास व बड़ी–बड़ी कहानियाँ पढ़ने के आदी थे। लेखक उनकी भावनाओं व पसंद का ध्यान रखते हुए लघुकथा लेखन कार्य कम कर पाये हों, या फिर लेखक अपनी बात को ढंग से रखने के लिए इतना विस्तार दे देता कि वो रचना लघुकथा के दायरे से बाहर निकल जाती या यह भी हो सकता कि साहित्यकार साथी उस समय चल रहे स्वतंत्रता आन्दोलन में पद्य या गद्य व्याख्यानों के द्वारा आजादी एवं स्वतंत्रता आन्दोलन का महत्व बताने के लेखन कार्य में व्यस्त रहते और लघुकथा के माध्यम से सम्प्रेषणीयता कम कर पाये हों। कारण जो भी रहा हो लेकिन यह निश्चित है कि इस काल में लघुकथा लेखन कार्य कम हुआ।
यह काल तीन दशकों तक रहा। इस काल के अन्तिम दशक के प्रारंभिक दौर सन् 1942 में लघुकथा शब्द की भी उत्पत्ति हो चुकी थी। इन तीन दशकों में यानि तीन सौ साठ महीनों में तीन सौ साठ लघुकथाएँभी नहीं लिखी गई और लघुकथा विषयक संग्रह सिर्फ़ संख्या में पांच प्रकाशित हुए। लघुकथा विषयक प्रथम पुस्तक जयशंकर प्रसाद का लघुकथा संग्रह ’प्रतिध्वनि’ 1926 में प्रकाशित हुआ। लघुकथा की दूसरी पुस्तक ठीक दो दशक बाद 1947 में सुदर्शन का लघुकथा संग्रह ’झरोखे’ प्रकाशित होकर आया। इस काल की अन्य लघुकथा पुस्तकें 1950 में रामवृक्ष बेनीपुरी का ’गेहूँ और गुलाब’ व जबलपुर से श्री आनन्द मोहन अवस्थी का ’बंधनों की रक्षा’ और बिहार से दिगम्बर द्वारा रचित ’हर सिंगार’ शीर्षक से लघुकथा संग्रह प्रकाशित हुए। इस काल के उपलब्ध लघुकथा लेखन का ब्यौरा संक्षिप्त में इस प्रकार से है–
इस काल की प्रथम लघुकथा श्री शिवपूजन सहाय की सन् 1924 में साम्प्रदायिक दंगों पर आधारित चार सौ शब्दीय एक लघुकथ्यात्मक रचना ’मारवाड़ी’ मासिक (कलकत्ता) में प्रकाशित ’एक अद्भुत कवि’ है। इस दौरान जयशंकर प्रसाद ने ऐसी रचनाएँ लिखना शुरू किया जो 1926 में उनकी प्रकाशित पुस्तक ’प्रतिघ्वनि’ में संकलित है। 1929 में श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने सेठ जी, सलाम आदि लघुकथाएँ लिखी जो आगे चलकर उनके संग्रह ’’आकाश के तारे : धरती के फूल’’ में संगृहीत की गई। 1929–40 के मध्य श्री मोहनलाल महतो ’वियोगी’ (बिहार) ने लघुकथाएँ लिखीं जो बाद में, ’सलिला’ शीर्षक से लघुकथा संग्रह प्रकाशित होकर आया। 1930 में जयशंकर प्रसाद ने गूदड़ साई, बेड़ी आदि लघुकथाएँ लिखी। 1935 से 1955 के दौरान श्री जानकी बल्लभ शास्त्री ने 70–80 लघुकथाएं लिखी जो उनकी ’चलन्तिका’ शीर्षक पाण्डंलिपि में संगृहीत की है। 1938 में रवीन्द्रनाथ टैगोर की भी लघुकथाएँ आभूषण, प्रेम, प्रतीती सामने आई। 1939 में ऐसी लघुकथ्य शैली वाली रचनाओं को ‘वीणा’ पत्रिका (इन्दौर) ने लघुकहानी शीर्षक से छापना शुरू किया। 1940 के आसपास विनोबा भावे अपने प्रवचनों में छोटे–छोटे दृष्टान्त गढ़कर बताते थे। वे कुछ सीमा तक हिन्दी लघुकथा के निकट है जैसे–कल्पतरु, पाखाना रचनाएँ। 1942 का वर्ष लघुकथा इतिहास में एक स्मरणीय वर्ष है। इस वर्ष बुद्धिनाथ झा ’कैरव’ ने ऐसी लघुकथात्मक शैली वाली रचनाओं का नाम ’लघुकथा’ शब्द दिया। 1944–45 में वीणा पत्रिका (इन्दौर) ने रामनारायण उपाध्याय की लघुकथाएँ आटा और सीमेन्ट, मजदूर व मकान और श्यामसुन्दर व्यास की लघुकथा ध्वनि–प्रतिध्वनि लघुकथा शीर्षक से ही प्रकाशित की। 1945 में डा. माहेश्वर ने ’सदियाँ बीती’ लघुकथा लिखी। 1947 में रावि ने अपनी प्रथम लघुकथा ’शीशम का खूंटा’ लिखी। 1947–48 में सुदर्शन का लघुकथा संग्रह ’झरोखे’ प्रकाशित हुआ जिसमें 48 लघुकथाएं है। 1950 में रामवृ़क्ष बेनीपुरी का ’गेंहू और गुलाब’ और आनन्द मोहन अवस्थी का ’बंधनों की रक्षा’ एवं दिगम्बर रचित ’हर सिंगार’लघुकथा संग्रह प्रकाशित होकर आये।
किन्तु इन लघुकथाओं में अपवाद स्वरूप कुछ लघुकथाओं को छोड़कर जनवादी तेवर का अभाव मिलता है। साथ ही कथ्य एवं शिल्प की दृष्टि से ये आधुनिक लघुकथा से दूर है तथा ये बोध, नीति एवं आदर्शपरक ही अधिक हैं। अत: इन्हें हम हिन्दी लघुकथा कह सकते हैं लेकिन आधुनिक हिन्दी लघुकथा नहीं। इस काल का लेखा–जोखा सामने आने के उपरान्त हमें यह पता लगता है कि निश्चित तौर से इस काल में लघुकथा लेखन अपेक्षाकृत कम हुआ। अत: इसे लघुकथा सुषुप्तकाल कहा गया।
3. परिवर्तन काल (1951–1970) : इस काल में लघुकथा में अच्छा खासा परिवर्तन आया। आदर्शवादिता के कम्बल से निकलकर लघुकथा यथार्थ में झांकने लगी। इसी दौरान गुजरते समय लघुकथा का शिल्प, कथ्य रूप एवं मारक क्षमता में बदलाव होता चला गया। आधुनिक लघुकथा का एक संबल ढाँचा सा बनने लगा। वास्तव में देखा जाये तो आधुनिक लघुकथा की नींव की ईं‍टें इस काल में एकत्र होने लगी थी। लेखकगण भी अपने आपको एक लघुकथाकार मानकर नई–नई शैली में लघुकथाएँ लिखने का प्रयास करने लगे थे।
बानगी तौर पर इस काल की कुछ लघुकथाओं और लघुकथा संग्रहों का मैं वर्षवार जिक्र करना चाहूँगा –
1951 में अयोध्या प्रसाद गोयलीय की लघुकथा पुस्तक ’गहरे पानी पैठ’ भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित हुई। इसमें कुछ लघुकथाएँ तीखी हैं, कुछ बोधात्मक। 1952 में केदारनाथ मिश्र ’प्रभात’ ने ’समुन्दर के मोती’ लघुकथा संग्रह दिया। 1953 में रामनारायण उपाध्याय का लघुकथा संग्रह ’अनजाने–जाने–पहचाने’ आया। 1954 में भवभूति मिश्र का लघुकथा संग्रह ’बची खुची सम्पत्ति’ प्रकाशित हुआ। 1954 में ही रावी का प्रथम कहानी संग्रह ’पहला कहानीकार’ प्रकाशित हुआ। रावि जी इसे लघुकथा संग्रह मानते थे। 1955 में शिवनारायण उपाध्याय की 40 लघुकथाओं का संग्रह ’रोज की कहानी’ आया और इसी वर्ष अयोध्याप्रसाद गोयलीय का दूसरा लघुकथा संग्रह ’जिन खोजा तिन पाया’ भी प्रकाशित हुआ। 1956 में लघुकथा विषयक पाँच पुस्तकें आयी। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की ’’आकाश के तारे : धरती के फूल’’, अयोध्या प्रसाद गोयलीय का तीसरा लघुकथा संग्रह ’कुछ मोती कुछ सीप’, राधाकृष्ण के दो लघुकथा संग्रह ’गल्पिका’ एवं ’गेन्द और गोला’, भृंग तुपकारी का लघुकथा संग्रह ’पंखुडि़याँ’ और ’संकेत’ हिन्दी साहित्य की विधाओं का वृहद् संकलन भी इसी वर्ष आया जिसके प्रधान सम्पादक उपेन्द्रनाथ ’अश्क’ एवं सहयोगी सम्पादक कमलेश्वर एवं मार्कण्डेय थे। इसमें एक भाग में लघुकथाएँ ही प्रकाशित है। 1957 में शरदकुमार मिश्र ’शरद’ का ’धूप और धुँआ’ व जगदीश चन्द्र मिश्र का ’पंचतत्व’ प्रकाशित होकर आये। 1958 में रावि का प्रथम लघुकथा संग्रह ’मेरे कथागुरु का कहना है’ व भारतीय ज्ञानपीठ काशी से रामनारायण उपाध्याय की लघुकथा पुस्तक ’गरीब और अमीर’ पुस्तकें और राकेश भारती की कुछ फुटकर लघुकथाएँ भी आयीं। 1959 के आसपास ठाकुरदत्त शर्मा ’पथिक’ की बोध कथा कौरव लघुकथा ’भारती पत्रिका’ में प्रकाशित हुई। इसी वर्ष ’नवनीत’ ’जागृति’ पत्रिकाओं में भी लघुकथाएँ प्रकाशित हुई। 1961 में आयोध्याप्रसाद गोयलीय का चौथा लघुकथा संग्रह ’लो कहानी सुनो’ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से आया और इसी वर्ष ’शबरी’ पत्रिका का मार्च अंक आचार्य शशिकर के सम्पादन में लघुकथांक के रूप में आया। इसमें मन्मथनाथ गुप्त, गुरुबदनसिंह व कमलेश्वर की लघुकथाएँ भी थी। 1962 में शांति मेहरोत्रा का ’खुला आकाश : मेरे पंख’ लघुकथा संग्रह अज्ञेय के सम्पादन में आया। 1963 में जिज्ञासा व सुषमा पत्रिकाओं में भी लघुकथाएँ पढ़ने को मिलती है। 1964 में यशपाल की लघुकथाएँ ’संतोष का क्षण’ और ’सीख’ सामने आई और छह लघुकथा पुस्तकें, जैसे कानपुर से तिलक के दो संग्रह ’पत्थर और प्रतिमा’ व ’मां’, ज्योतिप्रकाश का ’दिल की गहराई’, बैकुण्ठनाथ मेहरोत्रा का ’ऊँचे और ऊँ’, कामता प्रसाद सिंह ’काम’ का ’नावक के तीर’, श्यामनन्दन शास्त्री का ’पाषाण के पंछी’ प्रकाश में आई। 1965 में राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका मधुमती में लघुकथाएँ आईँ और इसी वर्ष से डा. सतीश दूबे की भी लघुकथाएँ सामने आने लगी। 1966 में सुगनचन्द ’मुक्तेश’ का लघुकथा संग्रह ’स्वाति बूँद’ प्रकाश में आया और इसी वर्ष बिहार से ’बिखरे फूल’ (सं. रामेश्वर प्रसाद वर्मा), लघुकथा संकलन आया। 1968 में राजेन्द्र यादव की लघुकथा ’अपने पार’ कहानीकार–जन.फर.अंक (वाराणसी) में प्रकाशित होकर आई। 1969 में लोक चेतना प्रकाशन, जबलपुर से आनन्द मोहन अवस्थी का लघुकथा संग्रह ’इन्द्रधनुष का अन्त’ प्रकाशित होकर आया। 1966 से 1970 तक ’सारिका’ पत्रिका के प्रत्येक अंक में लघुकथाएँ प्रकाशित होती रही हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इस बीस वर्षीय लघुकथाकाल में लगभग दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित होकर सामने आई और इतनी ही संख्या की पत्रिकाओं ने लघुकथा प्रकाशित कर इस विधा को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई।
इस काल की लघुकथाओं में शिल्प, शैली एवं मारक क्षमता में परिवर्तन के साथ आम जन से जुड़ी हुई सी लगना अपने आप में खासियत रही है।
4. आधुनिक काल (1971 से आगे) : सन् 1970 के बाद बदलती पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों ने जनमानस की सोच व जीवन शैली बदली। आम जन का दृष्टिकोण संतोष एवं त्याग से हटकर स्वार्थी एवं भोगवादी हो गया। धन लोलुपता, मतलबी रिश्ते, बिगड़ते सम्बन्ध, ह्रास होते संस्कार एवं नैतिक मूल्य एवं राजनैतिक छलछद्म परिवेश ने जीवन मूल्यों को खण्डित कर दिया। जीवन के इन खण्डित क्षणों को सूक्ष्मता से परिभाषित करने के लिए आधुनिक हिन्दी लघुकथा का जन्म हुआ। इस काल को दो उपकालों में रखा गया है –
(क) आधुनिक पूर्वार्ध काल (1971 से 1990)
(ख) आधुनिक उत्तरार्ध काल (1991 से आगे)
(क) आधुनिक पूर्वार्ध काल (1971 से 1990) : इस काल में लघुकथा पर बहुत कुछ कार्य हुआ और लघुकथा की नींव पक्की हुई। इस काल में लघुकथा एक लघुकथा के नाम से जानी गई एवं एक निर्विवाद साहित्यिक विधा का दर्जा दिया गया। इसी काल में अनेक लघुकथाकार सामने आये और असंख्य लघुकथाएँ लिखी गई जिनमें से ज्यादातर तो हास्य, व्यंग्य बनकर रह गई और लघु पत्रिकाओं की एक बाढ़ सी आ गई जिन्होंने लघुकथा छापने के नाम पर एक पेशा सा अपना लिया। लघुकथा संग्रह एवं सहयोगी आधार पर लघुकथा संकलन भी खूब प्रकाशित हुए। फिर भी लघुकथा के लिए इस दौरान बहुत कुछ किया गया। लघुकथा आयोजन, लघुकथाकार सम्मेलन एवं लघुकथा विषय पर आलेख लिखना और बहसबाजी ने लघुकथा का रूप सँवारने में एक अहम भूमिका निभाई। इसे अगर लघुकथा का स्वर्णकाल कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
इस काल में लघुकथा विषयक प्रकाशित सामग्री का लेखा–जोखा काफी अच्छा है। जैसे 1970 से 1980 तक लघुकथा संग्रह–10, लघुकथा संकलन–9, लघुकथा विशेषांक–38 एवं 150 विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में लघुकथाएं प्रकाशित हुई। इन दस वर्षों में कुल मिलाकर 4715 लघुकथाएँ लिखी गई। इसी प्रकार 1980 से 1990 तक लघुकथा संग्रह–57, लघुकथा संकलन–93 प्रकाशित हुए और राष्ट्रीय स्तर की लगभग 50 पत्रिकाओं ने लघुकथा विशेषांक, लघुकथाएं एवं लघुकथा विषयक सामग्री प्रकाशित कर लघुकथा के प्रचार–प्रसार एवं लघुकथा को आम जन तक पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया।
(ख) आधुनिक उत्तरार्द्ध (1991 से आगे) : इस काल तक पहुँचते–पहुँचते लघुकथा जनमानस की छाया बनकर आम पाठक के मन मानस की एक पसंदीदा रचना बन गई। लघुकथा में व्यंग्य पुट वाली धारणा पिछड़ गई और रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, शासकीय अकर्मण्यता और सियासी कारनामों के लीक से हटकर इस युग में नई सोच एवं मानवीय संवेदना व्यक्त करती हुई एक संविधान के दायरे में लघुकथाएँ लिखी जाने लगी। इस युग के लघुकथाकरों ने निशान्तकेतु द्वारा प्रतिपादित लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता एवं लघुकथा सौंदर्य शास्त्र के मापदण्डों के अनुरूप लघुकथाएँ लिखकर इस विधा को परिमार्जित कर सशक्त बनाया। कुकुरमुत्ते की तरह पनपने वाले लघुकथाकार इस काल तक पहुँचते–पहुँचते शांत हो गये और उनकी लेखनी मृत प्राय: सी हो गई। लघुकथाकारों की भीड़ में से वे ही साथी रह पाये जो वास्तव में लघुकथाकार थे एवं समर्पित भाव से लघुकथाएं लिखा करते थे।
इस काल में सक्रिय लघुकथाकारों की संख्या में कमी के बावजूद लघुकथा पुस्तक प्रकाशन में एक आश्चर्यजनक ढंग से इजाफा हुआ है। लघुकथा के एक सौं पैंतीस वर्षीय इतिहास के अन्तिम दो दशक यानी आधुनिक उत्तरार्धकाल में कुल लघुकथा पुस्तकों में से पचहत्तर प्रतिशत लघुकथा विषयक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है।
उपलब्ध सामग्री एवं तथ्यों के आधार हिन्दी भाषी राज्यों में इस काल में लघुकथा पुस्तक प्रकाशन में वृद्धि हुई, यह इस काल की एक अहम देन है। जैसे राजस्थान में कुल लघुकथा पुस्तकें 65 हैं जिनमें से 50 पुस्तकें 1990 के बाद ही प्रकाशित हैं, हरियाणा में कुल 120 लघुकथा पुस्तकों में 85, उत्तर प्रदेश में 67 में से 40, मध्यप्रदेश में 35 में से 20, दिल्ली में 47 में से 32 पुस्तकें इस काल में आयी हैं। बिहार में परिस्थितियां इसके विपरीत रही हैं। 1990 से पूर्व 95 व बाद में 15 ही लघुकथा विषयक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बिहार लघुकथा क्षेत्र में एक समृद्ध हिन्दी भाषी क्षेत्र है।
अनुमानत: हिन्दी भाषी क्षेत्र में 70–80 प्रतिशत लघुकथा–पुस्तक प्रकाशन इस काल में हुआ है। अहिन्दी भाषी भाग गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, मेघालय जैसे राज्यों में भी 1990 के बाद हिन्दी लघुकथा का अच्छा लेखन एवं प्रचार–प्रसार हुआ है। यह लघुकथा के उज्ज्वल भविष्य का एक शुभ संकेत है।
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