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लघुकथा में शीर्षक का महत्त्व: श्याम सुन्दर अग्रवाल

दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक नाम होता है, उसकी पहचान। इसी तरह से प्रत्येक साहित्यिक कृति का भी अपना एक नाम होता है, उसका शीर्षक। अकसर कहा जाता है कि नाम में क्या पड़ा है। अगर रामचंद का नाम लेखराज हो तथा सोहन लाल का रमेश कुमार तो कुछ फर्क नहीँ पड़ता। असल बात तो गुणों की होती है। किसी भिखारी का नाम करोड़ी मल तथा सेठ का नाम फकीरचंद हो सकता है।
क्या साहित्यिक कृति के संबंध में भी ऐसा कहा जा सकता है? मेरा उत्तर है–नहीं। हाँ, किसी उपन्यास अथवा महाकाव्य के नामकरण के समय अधिक कठिनाई पेश नहीं आती। इन साहित्यिक कृतियों के शीर्षक रचना पर अधिक प्रभाव नहीं डालते। वास्तविक प्रभाव तो रचना का ही होता है। फिर भी शीर्षक रचना के मूल भाव के विपरीत नहीं हो सकता। कहानी का शीर्षक भी रचना के अनुरूप ही होता है, यद्यपि शीर्षक में किए गए थोड़े बदलाव से रचना की प्रभावोत्पादकता में अधिक फर्क नही पड़ता। परंतु इस संबंध में लघुकथा की स्थिति भिन्न है। प्रभावोत्पादकता के संदर्भ में लघुकथा का शीर्षक बहुत अंतर डाल सकता है। परंतु फिर भी अनेक लघुकथा लेखक रचना के शीर्षक की ओर अधिक ध्यान नहीं देते। बहुत कम समीक्षकों ने लघुकथा में शीर्षक के महत्त्व की ओर ध्यान दिलाया है।
क्योंकि लघुकथा छोटे आकार की साहित्यिक विधा है, इसलिए इसमें शीर्षक का महत्त्व अधिक हो जाता है। हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि लघुकथा की बुनावट बहुत ही कसी हुई होनी चाहिए तथा इसमें एक भी शब्द ऐसा नहीं होना चाहिए जिसे रचना से हटाया जा सके। तब हम लघुकथा के शीर्षक को गैर-महत्त्वपूर्ण कैसे मान सकते हैं? डॉ. सतीश दुबे के अनुसार–‘शीर्षक लघुकथा के प्रभाव को बढ़ाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है तथा लघुकथा का नब्बे प्रतिशत कथागत संदेश शीर्षक में ही छिपा होता है।’ जब शीर्षक इतना ही महत्त्वपूर्ण है तो इसके बारे में गंभीरता से विचार-विमर्श होना चाहिए।
लघुकथा का शीर्षक कैसा होना चाहिए, इस पर बहुत विचार-विमर्श की आवश्यकता है। इस आलेख का मुख्य उद्देश्य इस विषय की ओर लेखकों एवं समीक्षकों का ध्यान आकर्षित करना है। मेरे विचार में लघुकथा के शीर्षक का चुनाव करते समय निम्नलिखित कुछ बातों की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए—

शीर्षक आकर्षक हो—शिक्षित माता-पिता अपने बच्चे का नामकरण करते समय उसे कभी भी टींडू, कद्दू, भिंडी, तोता, बंदर जैसे बेहूदा नाम देना पसंद नहीं करते। वे अपने बच्चे का नाम मनमोहक-सा रखना चाहते हैं ताकि सुनने वाले को वह प्यारा लगे, बच्चे के प्रति दूसरों के मन में अच्छे विचार उत्पन्न हों। रचना में भी पाठक ने सबसे पहले शीर्षक को ही पढ़ना होता है। इसलिए शीर्षक में पाठक को अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता होनी चाहिए। मन को प्रभावित करने वाला शीर्षक ही पाठक को रचना पढ़ने के लिए बाध्य करता है। ‘चुप्पी के बोल’, ‘काली धूप’, ‘ठंडी रजाई’, ‘रोटी की ताकत’, ‘बिन शीशों वाला चश्मा’, ‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’, ‘विष-बीज’, ‘जब द्रोपदी नंगी नहीं हुई’ इत्यादि आकर्षक शीर्षक कहे जा सकते हैं।
शीर्षक कथ्य अनुरूप हो— लघुकथा का शीर्षक रचना के कथ्य के अनुरूप ही होना चाहिए। शीर्षक कथ्य के अनुरूप न हो तो रचना अपने मूल भाव को पाठक तक ठीक से संप्रेषित नही कर पाती। शीर्षक से रचना के कथा-कहानी विधा से संबंधित होने का भी पता चलना चाहिए। शीर्षक पढ़कर पाठक को ऐसा न लगे कि यह किसी अन्य विधा से संबंधित रचना है। ‘विज्ञान के चमत्कार’, ‘परिवार नियोजन’, ‘आर्थिक असमानता’, ‘देश के निर्माता’ तथा ‘सक्षम महिला-एक पहल’ जैसे शीर्षक कथा-साहित्य के लिए उपयुक्त नहीं कहे जा सकते।
शीर्षक कथ्य को उजागर न करता हो— केवल वही लघुकथा पाठक को बाँध कर रख सकती है जो उसे साहित्यिक आनंद प्रदान करे। जो उसके मन में रचना को आगे पढ़ने के लिए उत्सुकता पैदा करे। प्रत्येक पंक्ति को पढ़ने के पश्चात–‘आगे क्या होगा?’ जानने की जिज्ञासा बनी रहनी चाहिए। अगर रचना का समापन बिंदु अथवा कथ्य शीर्षक से ही उजागर हो जाए तो रचना में पाठक की दिलचस्पी का कम हो जाना स्वाभाविक है। पाठक ऐसी रचना को पढ़ना पसंद नहीं करता। ‘खेत को खाती बाड़‘, ‘ढोल की खुली पोल’, ‘चोर की दाढी में तिनका’, बच्चे पैदा करने वाली मशीन’, ‘पर-पीड़ा में सुख’, ‘इश्क न पूछे जात’ तथा ‘कथनी-करनी’ जैसे शीर्षक रचना के कथ्य को पहले ही उजागर कर देते हैं। ऐसी रचनाओं को पढ़ने के प्रति पाठक उदासीन हो जाता है।
शीर्षक अस्पष्ट न हो— अकसर नए लेखक व कुछ सूझवान रचनाकार भी लघुकथा को शीर्षक देते समय बहुत सोच-विचार नहीं करते। वे अकसर रचना में बार-बार प्रयोग किए गए शब्द का ही शीर्षक के रूप में प्रयोग कर लेते हैं। या फिर रचना के अंतिम अवतरण अथवा वाक्य में प्रयुक्त कोई विशेष शब्द अथवा वाक्यांश को ही शीर्षक का रूप दे देते हैं। कई बार ऐसे शीर्षक बहुत ही अजब व अस्पष्ट बनकर रह जाते हैं। ‘इज्जत मुफ्त मिलेगी’, ‘लव यू बोले तो’, ‘आपका स्वागत है’, ‘पढ़ा, पढ़ा, भला तुम क्या पढ़ोगे?’, ‘तुम मेरे क्या लगते हो?’, ‘जा तू चली जा’, ‘ऐसे ही खामखाह’, ‘कह देंगे’, ‘मैं नहीं जाती’, ‘तुम गुस्सा तो नहीं करोगी?’ जैसे शीर्षक अस्पष्ट व अर्थहीन बनकर रह जाते हैं। पाठक इनसे कुछ नहीं समझ पाता। शीर्षक का चुनाव करने से पहले कथ्य व उसके द्वारा संचारित संदेश को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। शीर्षक संपूर्ण रचना का प्रतिनिधित्व करता हुआ दिखाई देना चाहिए।

शीर्षक रचना को अर्थ प्रदान करता हो— लघुकथा का शीर्षक अर्थ-भरपूर होना चाहिए न कि कोई व्यर्थ शब्द। उसी शीर्षक को उत्तम शीर्षक कहा जा सकता है जो रचना को अर्थ प्रदान करता हो तथा अगर शीर्षक को हटा दिया जाए अथवा बदल दिया जाए तो रचना पर गहरा प्रभाव पड़े अथवा उसके अर्थ ही बदल जाएँ। रचना पढ़ने के पश्चात उसको समझने के लिए पाठक को पुनः उसका शीर्षक पढ़ना पड़े, उसे मैं श्रेष्ठ शीर्षक मानता हूँ। ऐसे शीर्षक ही सही अर्थों में लघुकथा का भाग बनते हैं। उदाहरण के लिए उर्दू के प्रसिद्ध लेखक जोगेंद्र पाल की लघुकथा ‘चोर’ को लिया जा सकता है। रचना है—
मैं अचानक उस अंगूर बेचने वाले बच्चे के सिर पर जा खड़ा हुआ।
“क्या भाव है?”
बच्चा चौंक पड़ा और उसके मुँह की तरफ उठते हुए हाथ से अंगूर के दो दाने गिर गए।
“नहीं साहब! मैं खा तो नहीं रहा था…”

शीर्षक के बिना इस रचना के अर्थ बहुत स्पष्ट नहीं हैं. लेकिन जब लेखक ने इसको शीर्षक ‘चोर’ दिया तो अर्थ स्पष्ट हो गए। विचार कीजिए, अगर इस रचना का शीर्षक ‘बच्चा’, ‘अंगूर’ या फिर ‘जूठे अंगूर’ रख दिया जाए तो क्या इसके अर्थ बदल नहीं जाएंगे?
यह केवल शुरुआत है। इस संबंध में बहुत विचार-विमर्श की आवश्यकता है।
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