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समकालीन लघुकथा की यथार्थ –दृष्टि : डॉ. यशोधरा राठौर

साहित्यिक विधाओं का उदय किसी रचनाकार विशेष की रचनात्मक पहलकदमी की बदौलत नहीं होता है, रचनाकार चाहे कितना भी प्रतिभासम्पन्न और युगद्रष्टा क्यों न हो,नई साहित्यिक विधाओं का प्रादुर्भाव एक विशेष काल–खण्ड में समाज विशेष की ऐतिहासिक जरूरत और माँग की अनिवार्य परिणति होता है, क्योंकि साहित्यिक विधाएँ हर हाल में किसी–न–किसी विचारधारा से जुड़ी होती है और उनकी आन्तरिक बनावट विचारधारात्मक होती है। रॉल्फ कोहेन के अनुसार- एक लेखक रचना के लिए विधा का चुनाव करते समय विचारधारात्मक चुनाव भी करता है, क्योंकि विधा का चुनाव करते हुए जीवन–जगत को देखने, रचने और व्यक्त करने की दृष्टि और पद्धति का चुनाव करता है। हिन्दी में लघुकथा तमाम आलोचकीय उपेक्षा के बावजूद रचनाकारों के सामूहिक प्रयास और समाज की ऐतिहासिक जरूरत के दबाब से समकालीन कहानी से इतर एक स्वतंत्र विधा का दर्जा हासिल कर चुकी है।
कई लोग आज भी लघुकहानी और लघुकथा के अंतर को स्पष्टत: अलग कर पाने में असमर्थ दृष्टिगोचर होते हैं। असल में, केवल छोटे आकार की छोटी संरचना होने मात्र से कोई छोटी कहानी लघुकथा नहीं हो जाती। लघुकथा में वस्तुत: एक कालखंड की एक ही मन:स्थिति, अनुभूति,विचार–संवेदना और अनुभव–खंड की चरितार्थता होती है। अगर कोई रचना किसी यथार्थ विशेष के विभिन्न परिदृश्यों या परिप्रेक्ष्यों को अपने नितांत छोटे–से कलेवर में व्यक्त करती है तो वह छोटी कहानी होगी लघुकथा हरगिज नहीं होगी। निशांतर ने लघुकथा को परिभाषित करते हुए कहा है कि वर्णनात्मकता के विस्तार से परे लघुआकारीय वह कथा–रचना जो समय की एक छोटी किन्तु, सतत इकाई में अनुस्यूत किसी भी एक कथ्य (आशय/अनुभूति/घटना) का सार्थक रचनात्मक विनियोग करके लिखी जाने पर समकालीनता, अनुभव की प्रामाणिकता तथा रंजनात्मक प्रभावान्विति आदि गुणों के द्वारा पाठक की किसी सकारात्मक सामाजिक संदेश /उद्देश्य को मानवीय संवेदना की ओर प्रवृत्त करे। निशांतर की इस परिभाषा में यह जोड़ना नितांत जरूरी है कि इस पूरी प्रक्रिया में रचनाकार की मन:स्थिति का भी एक होना अत्यावश्यक है ,अन्यथा लघुकथा काल–दोष की गिरफ्त में आ सकती है।
हिन्दी साहित्य का पाँचवाँ दशक साहित्य में किसिम–किसिम की साहित्यिक विधाओं के उद्भव का काल था, क्योंकि भारतीय जन–मानस स्वतंत्रता–प्राप्ति के मोहभंग के दौर से गुजर रहा था और मुक्ति का कोई सार्थक और कारगर विकल्प सामने नहीं था। जमीनी सच्चाइयों ने काल्पनिक आदर्शवाद के परखचे उड़ा दिए थे और प्रतिबद्धताएँ अराजकता की भेंट चढ़़ चुकी थीं। इसी दौर में कविता अकविता हो गई और कहानी अकहानी तथा गीत अगीत। इसी दौरान अमूर्तन और दुरूहता को अच्छे एवं दीर्घजीवी साहित्य का प्रतिमान बना दिया गया। परिणाम स्वरूप तत्कालीन कविता के साथ ही कहानियाँ भी पाठकीय रुचि से धीरे–धीरे खारिज हो गई। भारतीय इतिहास के सबसे काले अध्याय आपातकाल के दौरान ,जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने की साजिश रची गई थी, तब कविता के क्षेत्र में गज़ल और कहानी के क्षेत्र में लघुकथा–लेखन के प्रति रचनाकारों का आग्रह बढ़ा था और व्यापक जन–समुदाय ने इसका भरपूर स्वागत किया था। तब से आज तक लघुकथा और गज़ल ने अपने सामाजिक दायित्व के निर्वहन में कोई कोताही नहीं दिखलाई है। निर्विवाद है कि जैसे–जैसे सामाजिक यथार्थ बदलता है, वैसे–वैसे उसकी अभिव्यक्ति के तरीके भी बदल जाते हैं। आज सामाजिक चेतना का कोई अंग ऐसा नहीं है जिस पर हमारे लघुकथाकारों का ध्यान नहीं गया है। आज के उपभोक्तावादी समाज में वित्तीय पूंजी के बढ़ते दबाब से सबसे अधिक हमारी मानवीय संवेदना ही क्षत–वि़क्षत और लहूलुहान हुई है। समाज के सारे काव्यात्मक संबंधों की चूलें हिल–सी गई है। ऐसे कठिन समय में जनता के हमदर्द और सच्चे रचनाकारों का परम कत्र्तव्य हो जाता है कि वह लगातार विनष्ट होती जा रही मानवीय संवेदना को बचाने के लिए रचनात्मक संघर्ष करें, और ऐसे ही आत्मसंघर्ष का रचनात्मक परिणाम सुकेश साहनी की लघुकथा ठंडी रजाई है। इस लघुकथा में निम्रवर्गीय सुशीला अपने पड़ोस के थोड़ा सम्पन्न व्यक्ति से कई अतिथियों के अचानक आ जाने के कारण रजाई माँगने चली जाती है। पहले तो उसकी पड़ोसन उसको रजाई देने से इंकार कर देती है, लेकिन रात में रजाई ओढ़ने के बाद भी ठंड का अहसास होने पर वह स्वयं रजाई पहुँचाने अपने पड़ोसी के घर चली जाती है। इस प्रकार वह पूंजीवादी दबाव से लहूलुहान मानवीयता के शरीर में नया रक्त–संचार करता है और यही रचनाकार का मानवीयता की रक्षा के लिए किया गया सकारात्मक संघर्ष है।
ठण्डी रजाई की मानवीयता संवेदना का चरम विकास पुष्पा जमुआर की लघुकथा (रजाई) में होता है। इस लघुकथा की कथा–वस्तु में कोई नयापन नहीं है। एक मध्यम वर्ग का व्यक्ति अपने युवा और कमाऊ पुत्र के द्वारा बनवाई गई रजाई प्रतिदिन ओढ़कर सो जाता है। पिता की यह हरकत उसके पुत्र को तो नागवार लगती ही है, माँ को भी लगती हैं । माँ के प्रतिवाद करते हुए यह कहने पर कि लड़का जब थका–माँदा घर आता है तो बापको रजाई में दुबका देखकर वह कुढ़ जाता है। कहानी का अंतिम हिस्सा यानी पिता के द्वारा दिया गया यह उत्तर कि मैं अपनी ठंड से बचने के लिए रजाई नहीं ओढ़ता हूँ, बल्कि थका–माँदा बेटा जब घर आए तो उसे ठंडी रजाई नहीं, वरन गर्म रजाई ओढ़ने को मिले, यह सोचकर रजाई ओढ़ता हूँ। अचानक इस लघुकथा की कथावस्तु का पाट अत्यधिक विस्तृत हो जाता है। मानवीय संवेदना की उष्ण गरमाहट से पाठकों की संवेदनशीलता अपादमस्तक भीग जाती हैं। यही इस लघुकथा का नयापन और सच्ची सार्थकता है।
उपभोक्तावादी अपसंस्कृति के प्रसार और प्रचार ने हमारे सारे सामाजिक रिश्ते–नातों की लहलहाती जड़ में मट्ठा डाल दिया है। आज के लोग सामूहिक परिवार का अंग होते हुए भी सामाजिक और पारिवारिक संबंधों की ऊष्मा से लगभग खारिज हो चुके हैं। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘ऊँचाई ‘पारिवारिक संबंधों की लगातार सूख रही ऊष्मा पर गहरी चिंता व्यक्त करती है। इस लघुकथा में एक वृद्ध और किसान पिता अपने कमाऊ पुत्र से मिलने उसके घर, शहर में, जहाँ पुत्र अच्छी तनख्वाह पर नौकरी करता है, जाता है तो पुत्र पिता की सेवा करने की बजाय अपनी अभावग्रस्तता और आर्थिक बदहाली का रोना रोने लगता है। पुत्रवधू भी ससुर को बोझ मानकर खीझ जाती है। पिता इस बेरुखी को समझता है और अपने ग्रामीण–संस्कारवश अपने पुत्र की हथेली पर सौ–सौ रुपए के दस नोट रख देता है और कहता है कि रख लो, तुम्हारे काम आएँगे, धान की अच्छी फसल हो गई थी। घर में कोई दिक्कत नहीं है। पुत्र थोड़ा शर्मिन्दा होता है; क्योंकि न तो उपभोक्तावाद के दबाव में अभी पूरी तरह से मानवीय संबंध समाप्त हुए हैं और न ही सामूहिक परिवार की अवधारणा ही पूरी तरह नि:शेष हो हुई है। सामूहिक परिवार के काव्यात्मक संबंधों और उपभोक्तावादी एवं अवसरवादी स्वार्थपरता के द्वन्द्व को उभारने में रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु' की यह लघुकथा पूरी तरह सक्षम दृष्टिगोचर होती है। ‘बोफोर्स कांड’ -डॉ. सतीशराज पुष्करणा की एक अत्यंत ही संकेतात्मक प्रतीक–कथा है। इस लघुकथा में एक स्कूल का हेडमास्टर अपने द्वारा लिखे गए गलत शब्द को छिपाने के लिए पहले उसे आड़ी–तिरछी रेखाओं से कई बार काटता है, फिर उस पर पहले हिन्दी में, फिर अंग्रेजी में कुछ लिखता है। तत्पश्चात् वह उसे चौकोर आयत बनाकर काली स्याही से रंग देता है। असिस्टेंट द्वारा एक गलत शब्द को छिपाने के लिए किए गए इतनी जटिल प्रक्रिया अपनाने के कारण पूछे जाने पर वह बताता है कि अब इसे पढ़ना सर्वथा नामुकिन है। बोफोर्स कांड के सभी अपराधियों को बेदाग बच जाने पर यह एक करारा व्यंग्य है। इसके साथ ही कई वर्ष पूर्व लिखी लघुकथा के यथार्थ का आज चरितार्थ होना उनकी दूरदर्शिता को किसी पात्र,घटना या चरित्र का चित्र का जिक्र तक नहीं है। इस लघुकथा के शीर्षक को बदल दिया जाए तो यह लघुकथा न तो इतनी अर्थपूर्ण रह पाएगी और न ही इतनी प्रासंगिक ही। सतीशराज पुष्करणा मानते हैं कि लघुकथा–रचना में शीर्षक का चुनाव बेहद अर्थपूर्ण और उद्देश्यपरक क्रिया है। बोफोर्स कांड की संरचना उनकी इस स्थापना की ताकीद करती है।
कृष्णानंद कृष्ण की लघुकथा ‘स्वाभिमानी’ बोफोर्स काण्ड की तरह एक प्रतीक–कथा है, जिसे पढ़कर प्रेमचंद की प्रतीक कथा दो बैलों की कथा की याद ताजा हो जाती है। इस लघुकथा में कृष्णानंद कृष्ण ने एक मध्यवर्गीय परिवार की त्रासद मनोदशा के द्वन्द्व को दिखलाया है , जिसकी संतान बड़े होने और पढ़–लिख जाने पर अपने बुजुर्ग माँ–बाप को अकेला छोड़कर अपने बीवी–बच्चों के साथ अपना अलग कुनबा बना लेते हैं। वृद्ध माता–पिता महानगरीय विकास के कारण अपने भूखे बच्चे के लिए एक चिड़े के द्वारा पर्याप्त भोजन न जुटा पाने की बेबसी और उसकी वस्तु–स्थिति में अपनी जीवन–स्थिति की समानता ढूँढ़कर उसे मदद करने का प्रयत्न करते हैं, लेकिन स्वाभिमानी चिड़ा परजीवी बनकर जीना नहीं चाहता और उनके द्वारा बिखेरे गए अन्न के दानों को छूता भी नहीं है। इस प्रतीक के जरिए कृष्णानंद कृष्ण, दरअसल यह दिखलाना चाहते हैं कि एक चिड़ा तो बिना श्रम किए हासिल वस्तु को स्वीकार करने की बजाए भूखे मर जाना श्रेयस्कर मानता है, किन्तु मनुष्य दूसरे के श्रम से उपार्जित वस्तु को अपना बना लेने को ही अपनी समृद्धि और सम्मान पाने का साधन मानता है और परजीवी बनकर जीने में वह फर्क महसूस करता है।
भूमण्डलीकरण, उपभोक्ता संस्कृति और उदारीकृत बाजारवाद का चेहरा कितना नृशंस और अमानवीय है, इस पर नवोदित लघुकथाकार अंकिता की लघुकथा बाजारवाद पर तीखा प्रहार करती है, दरअसल इस लघुकथा में उपभोक्तावादी संस्कृति के अमानवीय चेहरे को उजागर करने के लिए एक अविश्वसनीय कथानक का उपयोग किया गया है। बाजारवाद के विकास में प्रचार–माध्यमों की भूमिका सर्वोपरि होती है। प्रचार–माध्यम उपभोक्ता के मन मस्तिष्क को अपनी गिरफ्त में ले लेता है और उपभोक्ता अपनी सुध–बुध खोकर प्रचार माध्यमों का गुलाम हो जाता है। इसी प्रक्रिया से बाजारवाद की नायिका गुजरती है। वह टी.वी. देखने में इतना मशगूल रहती है कि बिस्तर पर सोए अपने नवजात शिशु के साथ ही बेडशीट को वाशिंग मशीन में धोने के लिए डाल देती हैं इस लघुकथा में अंकिता ने भूमंडलीकृत उपभोक्तावाद की अमानवीयता का तो उद्घाटन करती ही है, प्रचार–माध्यमों के मायाजाल और उसके कुप्रभाव का भी पर्दाफाश करती है कुछ लोगों को इस लघुकथा में वर्णित यथार्थ नितांत काल्पनिक और विश्वसनीय लग सकता है। एक अविश्वसनीय पात्र, चरित्र और घटना का सृजन ही सच्ची कलात्मकता होती है ;अन्यथा प्रेमचंद पूंजीवादी समाज की अमानवीयता और श्रम के अजनबीपन के उद्धघाटन के लिए कफन और पूस की रात में अमानवीय और अविश्वनीय घटनाओं और पात्रों का सृजन नहीं करते। रामऔतार सतीश दुबे की बहुत ही मार्मिक लघुकथा है जिसे पढ़ते समय शेखर जोशी की कहानी ‘बदबू’ की याद आ जाती है। यह बात अलग है कि बदबू में नायक चमड़े के कारखाने में लगातार काम करते रहने के कारण चमड़े की बदबू का इतना आदी हो जाता है कि उसे अबइस बदबू का एहसास होना ही बंद हो जाता है, जब कि रामऔतार का रामऔतार फैक्टरी की आवाज के साथ इतना घुल–मिल जाता है कि उसे हर समय चल रही मशीनों की आवाज ही सुनाई पड़ती है। इसलिए फैक्टरी से डयूटी पूरी हो जाने के बाद घर वापस आते समय भी उसके कानों में चलती मशीनों की आवाज ही गूँज रही होती है, जिसके कारण पीछे से आ रही कार के हार्न की कर्कश आवाज भी वह नहीं सुन पाता और दुर्घटनाग्रस्त होकर मारा जाता है। पूँजीवादी समाज की यही अमानवीय त्रासदी है और उस व्यवस्था में सच्चे श्रमजीवियों के गरीबी की जिन्दगी जीने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इसमें यह संकेत अंतर्निहित है कि मानवीय शोषण पर अवलम्बित इस पूंजीवादी समाज–व्यवस्था को अब और बरकरार नहीं रहना चाहिए । ‘साम्राज्यवाद’ शीर्षक लघुकथा में नरेन्द्र प्रसाद नवीन ने समाजवादी राष्ट्रों के द्वारा गरीब और कमजोर राष्ट्रों के दमन और शोषण की अमानवीय नीति पर एलसेशियन और सड़कों पर भटकने वाले देसी कुत्तों के प्रतीक के जरिए बहुत ही अर्थपूर्ण चित्र उपस्थित किया है। पालतू एलसेशियन कुत्ता सड़क छाप कुत्ते पर अपनी शक्ति प्रदर्शन के उद्देश्य से गुर्राता रहता है और देशी कुत्ता उसके भय से अपनी दुम दबाए रहता है। जब तक देशी कुत्ते आपस में संगठित नहीं हो जाते हैं, एलसेशियन कुत्ते की हेकड़ी गुम हो जाती है और वह अपनी दुम दबा लेता है। मतलब स्पष्ट है कि विकसित साम्राज्वादी देशों से अविकसित और विकासशील देश आपस में संगठित होकर ही मुकाबला कर सकते हैं। ये सभी बातें प्रतीक में कही गई हैं इस लघुकथा का शीर्षक अगर साम्राज्वाद नहीं होता तो इस अर्थ तक पहुँचने में पाठकों को काफी दिक्कत होती। अर्थात इस लघुकथा की बनावट और बुनावट में शीर्षक की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
रघुनंदन त्रिवेदी की लघुकथा ‘माधुरी दीक्षित की नींद’ लघुकथा के विस्तृत आकाश–गंगा की तरह देदीप्यमान है। इस लघुकथा में इजारेदार पूंजीवाद और साम्राज्यवादी दौर के पूंजीवाद की आपसी होड़ तथा एक दूसरे को निगलकर अपने विकास को चरम तक ले जाने के मंसूबे को बेनकाब किया है। इसमें नायिका माधुरी दीक्षित अपनी शक्ति से भी अधिक काम करने की वजह से बुरी तरह थकी हुई है और एक गहरी नींद सोना चाहती है, लेकिन अपनी निजी सचिव की इस चेतावनी पर कि मैडम, बुरा न माने, फिलहाल कुछ वर्ष आपको सोना नहीं चाहिए....उन तमाम प्रशंसकों, कद्रदानों की नींद में आपको विजिट करना है....वे थके हुए, समस्याओं से धिरे लोग बिना किसी कोमल सपने के सो नहीं सकते। और आप तो जानती हैं कि जूही, श्रीदेवी और जाने कितनी हिरोइनें हैं तो इस वक्त इसी फिराक में हैं।
इस चेतावनी के बाद माधुरी दीक्षित की नींद हवा हो जाती है और वह अपनी व्यस्तताओं में खो जाती है। यही है इजारेदार और साम्राज्यवादी पूँजीवादी की आपसी होड़ और एक–दूसरे को निगलकर अपने को सुरक्षित और सुदृढ़ बनाए रखने का प्रतिरक्षात्मक द्वन्द्व। इस लघुकथा की आंतरिक संरचना काफी गझिन है और इसमें काव्यात्मक अंतराल और मौन का कलात्मक उपयोग किया गया हैं। इस कारण इस लघुकथा में काव्यात्मक सघनता और अर्थ की बहुस्तरीयता है।
आंतकवाद और साम्प्रादयिकता आज पूरे विश्व में भूमंडलीकृत बाजारवाद और उपभोक्तावाद की अमानवीय प्रतिस्पर्धात्मकता से भी बड़ा खतरा बन गया है। इसके कई रूप और कई चेहरे हैं। रामनिवास मानव की लघुकथा आंतकवादी नकाबपोश आतंकवादी के पर्दानशीन चेहरे को बेनकाब करती है। ये आतंकवादी जन–सेवा की आड़ में अपनी निजी स्वार्थसिद्धि के लिए हजारों बेगुनाहों का खून बहाने से तनिक भी परहेज नहीं करते। इन्हें आतंकवादियों के द्वारा कई निर्दोष जनता की निर्मम हत्या करवा कर देश के अमन–चैन में खलल डालने पर भी पर्याप्त हंगामा होता नहीं दिखता है तो झूठी अफवाह फैलाकर देश में साम्प्रदायिक दंगा करवाने में भी कोई संकोच नहीं होता ।मतलब स्पष्ट है कि पारम्परिक आतंकवादियों की तुलना में ये सत्ताधारी आतंकवादी अधिक खतरनाक हैं । ये जन–भावनाओं को भड़काकर अपना–अपना उल्लू सीधा करते है, इसलिए इनकी पहचान और खात्मा अत्यावश्यक है। साम्प्रदायिकता आतंकवाद से कम खतरनाक नहीं होती। यह किसी भी विविध धर्मावलम्बी राष्ट्र की आंतरिक स्थिति को खोखला बनाकर उसे आंतरिक कलह में ढ़केल देती है और प्रकारान्तर से उसके सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया को अवरुद्ध कर देती है, साथ ही दो पड़ोसी देशों को युद्ध की भयानक आग में भी झोंक देती है। साम्प्रदायिक सौहार्द पर हिन्दी में ढेरों कहानियाँ और लघुकथाएँ लिखी गई हैं, लेकिन पुष्पा जमुआर की लघुकथा बाघा बोर्डर विशेष रूप से उल्लेखनीय है, इसमें साम्प्रदायिक सौहार्द के साथ-साथ दो राष्ट्रों के बीच में आपसी भाईचारे की स्थापना करती है। साम्प्रदायिक सद्भाव की नई व्याख्या प्रस्तुत करती है।
जिन लघुकथाओं के आधार पर इस विचार–विमर्श को आगे बढ़ाया गया है और हिन्दी लघुकथा की यथार्थ–दृष्टि की खोजबीन की गई है तथा जिनमें हमारे सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन के अंतर्विरोधों, द्वन्द्वों और तनावों के मार्मिक चित्र उकेरे गए हैं, उनमें बोफोर्स कांड, सामाजवाद और माधुरी दीक्षित की नींद विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, क्योंकि इनका आंतरिक संगठन बिल्कुल चुस्त है। इनमें अर्थ पूर्ण और नितांत सटीक शीर्षक का प्रयोग किया गया है। इसमें न एक शब्द फालतू हैं न कोई वाक्य अनावश्यक है। इसकी संरचना गीत की तरह इतनी सघन है कि एक भी शब्द को निकाल देने से पूरी संरचना ही चरमरा जाएगी। जबकि अधिकतर लघुकथाओं को पढ़ते हुए महसूस होता है कि इस लघुकथा में कुछ वाक्य नहीं होते तो इसकी संरचना अधिक सघन होती अथवा यह महसूस होता है कि इसके ट्रीटमेंट में कुछ रिक्तियाँ रह गई हैं ,जिससे रचना का अपेक्षित प्रभाव बधित हो रहा है। इन लघुकथाओं के विचार और कथ्य तथा रूप और वस्तु में द्वन्द्वात्मक एकता हैं इसलिए इन लघुकथाओं को लघुकथा-रचना का उत्कृष्ट प्रतिमान माना जा सकता है।

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