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लघुकथा : जैसा मैंने जाना : हरदर्शन सहगल

पिछले कई–कई सालों से लघुकथाएँ, लिखी–पढ़ी, सुनी सुनाई जा रही है। लघुकथाओं के पैरवीकार भी बहुत सारे हो चले हैं। लघुकथा सम्मेलन भी प्राय: होते रहते हैं। सभी माध्यमों से लघुकथा के मानदंडों आदि की विवेचना चलती रहती है।
इसके बावजूद, मुझे न जाने क्यों लगता है कि हमारे अधिकतर, पत्र–पत्रिकाओं के पाठकों के पास, लघुकथा के मूल–संवेदन–पक्ष को समझने तथा पाठक को दर्शाने की कोई स्पष्ट दृष्टि हो। किसी भी छोटी कहानी, बड़ी कहानी का सार संक्षेप, व्यंग्य, दृष्टांत, बोध कथा आदि को बड़े आराम से वे लघुकथा के खाते में डाल देते हैं,(लघुकथा के स्वायत्त स्वरूप को साधने की ज़हमत से बचने के लिए)–कमोबेश यही स्थिति हमारे अधिसंख्य लेखकों की भी हो चली है। एक आसान रास्ता चुनते हुए, जिस विचार प्लाट को वे कहानी के रूप में लिखने में अपने को असमर्थ पाते हैं, उसे संक्षिप्त आकार में लाकर ‘लघुकथा’ लिख कर छपने को भेज देते हैं,ऐसे में क्यों न हम सब मिलकर लघुकथा के वर्तमान स्वरूप को और अधिक स्पष्ट (परिभाषित) करने की दृष्टि से, इस का सीमांकन कर, इसका नामकरण नव लघुकथा कथा मार्डन लघुकथा अथवा नई लघुकथा कर लें। क्योंकि अंग्रेजी में भी आम कहानी को ही short story (लघुकथा) कहा जाता है। इस प्रकार हम सारे झंझटों, उलझनों भ्रांतियों ¼confusions½ से पार पा लेंगे। स्वतंत्र लघुकथा की पत्रिकाओं को देखने का अवसर मुझे नहीं मिला। ‘सरचना’ ने यह पहल पूरी गंभीरता से की है लेकिन यह एक सालाना आयोजन है। सुकेश साहनी का इंटरनेट मेरे जैसे देख नही पाते भले ही कभी कभार उसमें मेरी भी लघुकथाएँ, कृपापूर्वक शामिल कर ली जाती हैं। यूनिकोड सुशा आदि से सभी भेज नहीं पाते। हाँ, लघुकथाओं की पुस्तकें खूब छप रही है उनमे से कुछ संपादित–संकलित होती है तब, वहाँ हर श्रेणी के लेखको को आंमत्रित किया जाता है।
दुर्भाग्य से, हमारे कुछ अग्रज लेखकों से, लघुकथाओं के संपादक माँग करते हैं तो वे, बौद्धिकता के अतिरेक में जाकर कुछ उलझा–उलझा शिल्प बुनकर ‘लघुकथा’ के नाम पर भेज देते हैं–अब इतने वरिष्ठों, नामी गिरामियों केा तो छापना ही होगा यह सब लघुकथा की सेहत के लिए, हितकर तो हो ही नही सकता।
उलझी हुई मानसिकता की लंबी–लंबी, कुंठायुक्त कहानियों से ऊब कर ही तो आज का पाठक वर्ग लघुकथा की ओर प्रवृत्त हुआ है। यदि उसे यहाँ भी लघुकथा मे यही सब मिलेगा तो कालांतर में वह इससे भी विरत होता दिखलाई देगा। उसके पास, आपके उलझे हुए कथ्य, दिमागी कंुठाओं, लेखक की नितांत निजी सोचों को सुलझाने का समय नहीं है। यदि होता तो शायद वह कहानी,उपन्यास को ही प्राथमिकता देता।किसी भी उत्कृष्ट कृति के कला–विहीन होने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती, किन्तु कला के नाम पर कलाबाजि़यों को भी पाठक बर्दाश्त नही कर पाता फिर वह चाहे किसी भी विधा में क्यों न हो ।
आज की लघुकथा का उद्भव ही, इसीलिए हुआ कि निहायत व्यस्त त्रस्त तनावपूर्ण जिंदगी में मनुष्य के पास स्वयं का हाल पूछने की भी फुर्सत नहीं रही तब यदि किसी व्यक्ति विशेष को कोई लघु कथा थोड़े में ही, बहुत सहज भाव से, उसी का हाल कह सुनाए तो कहना ही क्या? निश्चित रूप से वह लघुकथाओं का कायल हो जाएगा, तथा उन्हीं में अपनी तथा समाज की समस्याओं का हल खोजेगा। वह होने पर ही हाशिया कथा आज को मुख्य कथा बन पाती है।
यदि मुझे थोड़ी भावुकता से अपनी बात कहने की अनुमति दें तो मेरे सम्मुख लघुकथा के रूप में, हवा के झोंके की मानिंद, अपनी खुशबू, पीड़ा, जीवन विसंगति–अपनी पूर्ण जीवतंता लिए अल्हड़ किशोरी का चित्र उभरता है, जो आतुरता से आ खड़ी होती है।
उसी तेजी से अपनी बात समाप्त कर चपलता से मुँह चिढ़ाती हुई तत्क्षण भाग खड़ी होती है,हमारी रोजमर्रा की कारस्तानियों, कारगुज़ारियों का कच्चा चिट्ठा कुछ अनूठे ढंग से कहती, कटाक्ष करती हुई।
उसके चले जाने के बाद भी कितने ही समय तक, उसके शब्दों की अनुगूँज हमारे कानों को सहलाती रहती है। उनमें तपिश पैदा कर जाती है। हम तिलमिलाते, खिसियाते, अपने गिरेबा में झाँकते सहसा, ‘खी–खी’ करने लगते हैं।
इसके साथ में यह कहने का साहस करता हूँ कि इस प्रकार मैंने लघुकथा को कहानी, पौराणिक तथा बोध कथाओं आदि से अलग करके देखने का यत्न किया है।
इस तरीके से मेरी परिकल्पना में लघुकथा निरंतर, प्रवाहमान, शाब्दिक, नवीनता, समय सापेक्ष जीवन की जटिलताओं को कम से कम शब्दों में, कहती, ऊबड़–खाबड़ रास्तों को पार करती, मीठे–ठंडे झरनों के निकट, या तपती रेते के बीच ला कर हमें खड़ा कर देती है।
मैं प्रारंभ से ही भाषा के कौशल द्वारा कम से कमतर शब्दों पर ज़ोर देता चला आ रहा हूँ। कम शब्दों के कारण ही कोई रचना आकार में लघु बनती है। वह सभी प्रत्यक्ष: सर्वविदित है, किन्तु कम शब्दों के भारीपन पैनेपन से जो ठोस ज़मीन तैयार होती है, उनसे जो विस्फोट पैदा होता है, उससे कम लोग ही परिचित हो पाते हैं। (इसीलिए शायद हमारे कुछ कथा कार झोलदार स्वेटर बुनते रहते हैं)
सच्चाई यही है कि कम शब्दों में अधिक शक्ति निहित है। वे कौन से तीर थे, जो ‘‘देखन में छोटे लगे–घाव करे गंभीर।’’ कम शब्दों के प्रयोग से नामी वकील मुकदमे जीत जाते हैं।
एक रोचक घटना बताता हूँ। एक बार प्रिंसिपल ने हमारी श्रीमती जी को मीमो थमा दिया कि आप बरामदे में शोर कर रही थीं, क्यों न आपके विरुद्ध ....वही रटी रटाई लंबी चौड़ी दफ्तरी लैंग्यूएज।
श्रीमती जी ने घबरा कर स्टूडैंट्स, टीचर्स, माहौल आदि के परिप्रेक्ष्य को लेकर लंबा जवाब तैयार कर डाला। उसे देखकर स्टाफ सैक्रेटरी ने कहा, ‘‘मैडम इसे फाड़ डालें। आप प्रिंसिपल को लिखें आप बताएँ : ‘‘मैं शोर क्यो कर रही थी?’’
बस इससे जैसे पूरे चैम्बर में तूफान आ गया। प्रिंसिपल झूठा तो था ही। बौखला गया। क्या जवाब दे। कुछ सुझाई नहीं दे रहा था। अतएव परोक्ष रूप से माफी माँग कर केस को रफा दफा किया।
यहीं कम शब्दों के, बड़े जाल में पड़कर लघुकथा की परीक्षा भी होती है। थोड़े शब्द–लेकिन कैसे थोड़े शब्द, कितने थोड़े शब्द, क्या इतने थोड़े कि वे पहेली बन जाएँ। क्या इतने थोड़े कि पाठक ‘फिल इन द ब्लैंक’ करता फिरे और निर्दिष्ट सूत्र को पकड़ने के चक्कर में पड़ जाएँ। नहीं। जो कथ्य संकेत द्वारा पाठक के सम्मुख कलात्मकता से स्पष्ट हो जाए, हम उसी की बात कर रहे हैं। ‘‘कला को कलात्मक ढंग से छिपा जाना ही वास्वविक कला है।’’
मैं यहाँ लघुकथा की कोई व्याख्या या स्थापना नहीं कर रहा। केवल लघुकथा के साथ जुड़ी हुई अपनी निजी सोच को सहजतापूर्वक आपके साथ बाँटने की विनम्र चेष्टा कर रहा हूँ। असहमति आपका अधिकार है।
कहानी, उपन्यास आदि की कितनी ही परिभाषाएँ भिन्न–भिन्न तरीके से हमारे विद्वान्–आलोचक समय–समय पर व्यक्त करते रहे हैं। लेकिन सर्वमान्य परिभाषा, कभी संभव नहीं हो पाती। हर व्यक्ति की सोच समझ, अनुभव का दायरा अलग–अलग होता है। एक ही कृति को कुछ लोग उत्कृष्ट तो कुछ निहायत साधारण कहते सुने जाते हैं। साधारण पाठकों, तथा साहित्य के मर्मज्ञों की राय जुदा होना तो अलग बात है। एक ही श्रेणी वालों का सुर प्राय: एक नहीं हो पाता। ऐसे में मैं भी लघुकथा की पड़ताल अपनी ही दृष्टि से करता हूँ। यह बहस तो बेशक चलती रहनी चाहिए, परन्तु इससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात जो मैं सोचता हूँ, वह है, ऐसी लघुकथाओं का सृजन, जो अधिक से अधिक, पढ़ने वालों के मन मस्तिष्क में अपना घर कर ले। यह तभी संभव हो पाएगा, जब लघुकथा के सीमित शब्द, जो एक विशेष (पर्टीकुलर), साथ ही विस्तृत दिशा–बोध को आयाम दें। निखरे हुए उपयुक्त शब्द–नियंत्रित, अनुशासित ढंग से सजे हुए, अपनी लयबद्धता का परिचय, अत सूक्ष्म रूप से कराए, वही शब्द लघुकथा के लिए मतलब (अभिप्रेत) हो पाएँगे, उनके स्थान पर दूसरे नहीं।
किसी भी लेखक का शब्दों के साथ, खिलवाड़ करना, उतना ही घातक सिद्ध हो सकता है जितना किसी जवान का अपनी बंदूक के साथ खिलवाड़ करना। हालाँकि हमारे कुछ बड़े भाषण देने वाले लेखक बड़ी शान से बौद्धिक विलास में डूबकर शब्दों के साथ खिलवाड़ करने को ऊँचा गुर मानते हैं। उनके अनुसार जो लेखक शब्दों के साथ जितना ज्यादा खिलवाड़ कर सकता है, वह उतना ही बड़ा लेखक होगा हो सकता है वे अपने हिसाब से खरे हों।
किसी जागरूक लेखक का जोर तो शुरू ही से एकदम सटीक शब्दों के चयन पर रहता है, और चुनौती भी। उन (शब्दों) का कोई पर्यायवाची शब्द शायद ही कोई होता हो। बिना आत्मसात् किए हुए शब्द, जिनके प्रति हमारे, आपके मन–संसार में निष्ठा, आदर, श्रद्धा ही नहीं है, कैसे हमारी रचना को, हमारे ठीक–ठाक मन्तव्य के साथ पाठक तक संप्रेषित करेंगे? लघुकथा के लिए तो यह और भी अपरिहार्य है, जहाँ हमें बिल्कुल सीमित बजट में ही सब का मन जीत लेना है।
यदि सशक्त विस्तृतकथ्य, रोचक–प्रवाहमय शैली, लेखक में विद्यमान है तो उसकी थोड़ी बड़ी कथनी भी सिकुड़ कर, आपसे आप लघुकथा की श्रेणी में आ जाएगी। ऐसी कृतियों में होता यह है कि पाठक का मस्तिष्क उसे पढ़ने के दौरान इस कदर रम और बँध जाता है कि उसे समय बीतने का अहसास ही नहीं हो पाता। यह सब रचना कौशल की बात है, लघु कथा की अपनी शर्तो की कसौटी तो है ही। कुछ लघुकथाएँ तो अपने प्रबल कथ्य के कारण श्रुतिकथाएँ भी बन जाती हैं। जैसे ‘मुआवजा’ ‘कौआ’ के लेखकों के नाम याद नहीं रहे। हाँ,’ठंडी रजाई’ -सुकेश साहनी याद हैं। हमें श्रेष्ठ सृजन पर ही ज्यादा जोर देना चाहिए न कि भाषणों, बौद्धिक विलास वाली बहसों के वक्तव्य झाड़ने पर । ‘अन्यथा’ पत्रिका का ताजा अंक उठा कर देख लें। कहानी पर विद्धानों के आलेखों, साक्षात्कारों आदि–आदि से भरा पड़ा है परंतु कहानियाँ केवल आठ हैं। पृष्ठ संख्या 364 के हिसाब से बहुत ही कम।
यह सब लिख जाना कदरे आसाँ काम है, बनिस्बत एक निर्दोष लघुकथा के लिखे जाने के। फिलहाल इतना ही।

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