भारतेन्दु काल से लेकर स्वतंत्रता पूर्व तक किसी महिला ने लघुकथाएँ लिखीं या नहीं, कहना कठिन है। किन्तु पाँचवें दशक में इलाहाबाद की शान्ति मेहरोत्रा ने इस दिशा में अवश्य ही पहल की। इनकी कुछ लघुकथाएँ उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ के सम्पादन में प्रकाशित पत्रिका ‘संकेत’ में देखी जा सकती हैं। फिर सातवें दशक से लघुकथा के विकास के दौर में भी महिलाएँ चुप नहीं बैठीं और उन्होंने भी इस विधा हेतु पूरी निष्ठा एवं श्रम से कार्य किया, जिसकी चर्चा लघुकथा–इतिहास में अनिवार्य होगी। यहाँ हम उन महिलाओं की चर्चा करेंगे, जिनसे लघुकथा की परम्परा समृद्ध हुई। इस क्रम में सर्वप्रथम अंजना शर्मा (बाद में अंजना अनिल)का नाम आता है, जो मोदीनगर की निवासी हैं। सम्प्रति अलवर में रहकर इस विधा हेतु निर्बाध रूप से कार्य कर रही हैं। अंजना अनिल की लगभग 150 लघुकथाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इनका एक संग्रह भी प्रकाश में आ चुका है। इनकी लघुकथाएँ आम आदमी के जीवन से सीधा साक्षात्कार कराती हैं। अंजना अनिल की तरह ही डॉ. शकुन्तला ‘किरण’ ने भी हिन्दी–लघुकथा को अनेक स्तरों एवं माध्यमों से समृद्ध किया है। भारत में लघुकथा पर सर्वप्रथम शोधकार्य डॉ.शकुन्तला ‘किरण’ ने किया, जिनका विषय ‘कथा–लेखन का एक और पिरापिड था। इसमें इन्होंने लघुकथा के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर कार्य किया था, जिसने बाद में शोधकार्य करनेवालों को न मात्र उत्प्रेरित किया, अपितु उन्हें इस विषय को और आगे बढ़ाने हेतु ठोस आधार भी प्रदान किया। ‘धुँधला दर्पण, ‘कोहरा’, ‘मौखिक परीक्षा’, ‘शॉप इंस्पेक्टर’, ‘कैरियर’, ‘हार’, ‘चेकिंग’ इत्यादि इनकी दर्जनों रचनाएँ आज भी पाठक विस्मृत नहीं कर पाए हैं। लघुकथा के कई चर्चित संकलनों में इनकी लघुकथाएँ संकलित हैं। डॉ. शकुन्तला ‘किरण’ के बाद दूसरा शोध–कार्य डॉ शमीम शर्मा ने किया, जो आजकल हिसार के एक कॉलेज की प्राचार्या हैं। डॉ. शमीम शर्मा ने वस्तुत: शकुन्तला ‘किरण’ के कार्य को ही आगे बढ़ाया। इनके सम्पादकत्व में कुरुशंख’ पत्रिका का लघुकथांक तथा ‘हस्ताक्षर’ लघुकथा–संकलन 1981 ई. में प्रकाशित होकर ख्याति अर्जित कर चुका है। इनकी लघुकथाएँ महिलाओं को प्रगतिशील दिशा देने में सफल रही हैं। इनके बाद जिन महिलाओं ने लघुकथा में शोधकार्य करके उसके विकास में अपना उल्लेखनीय योगदान दिया, उनमें सागर की डॉ. मंजु पाठक, बोकारो की डॉ. आशा पुष्प, डॉ. अंजली शर्मा इत्यादि के नाम प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त मुजफ्फरपुर की मणिप्रभा, उज्जैन की भारती इत्यादि महिलाएँ हिन्दी–लघुकथा पर शोध–कार्य कर रही हैं।
हिन्दी–लघुकथा के विकास में जिन महिलाओं ने अपनी अहम भूमिका का निर्वाह किया, उनमें भोपाल की मालती महावर (अब मालती वसन्त) भी महत्त्वपूर्ण हैं। इनकी साठ लघुकथाओं का संग्रह ‘अतीत का प्रश्न’ 1991 ई. में प्रकाशित हुआ। डॉ. सतीश दुबे के अनुसार–‘लघुकथा आन्दोलन के इतिहास में 22–23 नवम्बर 1980 ई. को एक यादगार ‘लघुकथा–सम्मेलन’ होशंगाबाद में आयोजित हुआ। मध्य प्रदेश के इस सम्मेलन में अनेक महत्वपूर्ण लघुकथा विद्धानों के अतिरिक्त मालती महावर ने भी हिस्सा लिया था। मालती ने प्राय: तीन प्रकार की लघुकथाएँ लिखीं हैं, जिनमें पहला, छायावादी, दूसरा यथार्थवादी और तीसरा मानवतावादी है। इनकी चर्चित लघुकथाओं ‘भूख का एहसास’, ‘मध्यस्थ’, ‘समय’, ‘फूल और भँवर’, ‘गांधारी से एक कदम आगे’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। बोकारो इस्पात नगर (झारखण्ड) की डॉ. आशा पुष्प की लघुकथाओं का संग्रह ‘झलमला’ अपना अलग महत्व रखता है।
मेरठ की चर्चित गीतकार डॉ. शैल रस्तोगीकी छप्पन लघुकथाओं का संग्रह ‘यह भी सच है’ प्रकाशित है। इनका दूसरा संग्रह ‘ऐसा भी होता है’ 2007 ई. में प्रकाशित हुआ। ‘मनहूस’, ‘एक गुमनाम मौत’, ‘मन्नत’, ‘नई रोशनी’, ‘जीवन का नक्शा’ इत्यादि इनकी श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं।
लघुकथा को विकास देने में कलकत्ता की माला वर्मा का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इनके लेखन का विषय मुख्यत: जीवनानुभव है। इनकी भाषा सहज, सरल और स्वाभाविक हैं इनकी लघुकथाओं में ‘साक्षात्कार’,‘विडम्बना’, ‘रैन बसेरा’, ‘आदमी और कुत्ता’, ‘पहचान–पत्र’ इत्यादि को श्रेष्ठ लघुकथाओं में गिना जाता सकता है। इनकी साठ लघुकथाओं का संग्रह ‘परिवर्तन’ अक्टूबर 2000 ई. में प्रकाशित हुआ। महेन्द्र सिंह महलान के अनुसार वर्ष 1983 ई. में प्रकाशित ‘अनमोल सीपियाँ’ कृष्णा भटनागर का लघुकथा–संग्रह की अधिकतर लघुकथाएँ उपदेशात्मक हैं। (राजस्थान का लघुकथा–संसार पृ. 26) इनकी लघुकथाएँ भी आठवें–नौवे दशक में पाठकों को प्रिय रही हैं। राजस्थान की धरती से ही आठवें–नौवें दशक की चर्चित कथाकार पुष्पलता कश्यप की बासठ लघुकथाओं का संग्रह ‘अहसासों के बीच’ प्रकाश में आया। इनकी लघुकथाएँ प्राय: जीवन मूल्यों के रक्षार्थ खड़ी दिखाई देती हैं। इनकी लघुकथाओं के पात्र जुझारू हैं, जो हथियार डालने की अपेक्षा संघर्ष करने में विश्वास करते हैं। आपकी लघुकथाओं में आदर्शों के सतरंगी सपने नहीं, यथार्थ की टकराहट और सीधी–सीधी चोट है। ‘बहू–बेटी’, ‘पटाक्षेप’, ‘बदला’, ‘चौराहे पर’, ‘यथार्थ की टकराहट’, ‘अक्ल का दुश्मन’, ‘चट्टान’, ‘सुअर संस्कृति’ इत्यादि रचनाओं का अवलोकन करने पर हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। राजस्थान की धरती से अन्य जिन महिलाओं ने अपनी रचनाओं से लघुकथा–जगत को समृद्ध किया है, उनमें पुष्पा रघु, उर्मिला नागर, रेणु माथुर, अर्पणा चतुर्वेदी‘प्रीता’, नीलप्रभा भारद्वाज, नीलम सैनी, उषा शर्मा, उषा माहेश्वरी के अतिरिक्त डा. स्नेह इन्द्र गोयल भी एक प्रमुख नाम है। 1985 ई. में उनका तन्वंगी लघुकथा–संग्रह ‘वकील साहब’ प्रकाश में आया, तो 1989 ई. में इन्हीं के सम्पादकत्व में श्रीगंगानगर से ‘दर्पण’ लघुकथा–संकलन प्रकाशित हुआ। इनकी लघुकथाओं में समाज में व्याप्त दकियानूसी परम्पराओं के विरुद्ध संघर्ष का आह्वान है। स्नेह इन्द्र भारतीय समाज को अपनी स्वस्थ परम्पराओं के आधार पर चलने–चलाने की आग्रही प्रतीत होती है और सार्थक आधुनिक मूल्यों के प्रति उनकी सहमति भी झलकती है।
मध्यप्रदेश से जिन प्रमुख लेखिकाओं के नाम सामने आते हैं, उनमें मीरा जैन जिनकी ‘सर्वश्रेष्ठ एवं ‘दीपोत्सव’ लघुकथाएँ ध्यान खींचती हैं, तो सुमति देशपंडित ‘विदाई’ एवं ‘घर’ आदि लघुकथाओं के कारण अपनी पहचान बना लेती हैं। सीमा पाण्डेय की ‘स्थानान्तरण’, ‘खुशखबर’ आदि लघुकथाएँ चर्चा की अपेक्षा रखती हैं, तो कोमल ‘बोतल में बंद ममता’, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ जैसी रचनाओं के कारण उल्लेखनीय बन गई हैं । प्रज्ञा पाठक की लघुकथाओं में ‘अप–टू–डेट’, ‘विभाजन’ आदि चर्चित हैं। इन सबके अतिरिक्त जया नर्गिस मध्यप्रदेश की महिला लघुकथाएँ ,चर्चित पत्र–पत्रिकाओं तथा उल्लेखनीय संकलनों के माध्यम से अपनी सफल एवं सार्थक पहचान बना चुकी हैं। ‘सतयुग नहीं’, ‘निश्चिंत’ जैसी लघुकथाएँ तो हिन्दी की श्रेष्ठ लघुकथाओं में आने का अधिकार रखती हैं। इसी धरती से कृष्णा अग्निहोत्री भी एक महत्वपूर्ण लेखिका हैं।
लघुकथा–जगत में ‘सच की परछाइयाँ’ एवं ‘दो सौ ग्यारह श्रेष्ठ लघुकथाएँ की लेखिका उषा जैन ‘शीरी’ एक ऐसा नाम है, जो बहुत चर्चा में तो नहीं है, किन्तु उसने साधनारत रहकर आलोचकों को सहज ही आकृष्ट किया है। एक नारी होने के नाते इन्होंने भावना को तो मूल विषय बनाया है, इसके साथ ही साथ, घर–परिवार की समस्याओं को भी सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। ‘सच की परछाइयाँ’ एवं ‘दो सौ ग्यारह श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ इनके दो लघुकथा–संग्रह ‘स्वप्न साकार’ सन् 2008 ई. में प्रकाश में आया है। उर्मिला सक्सेना के अनुसार लेखिका ने सामाजिक जीवन को हृदय तल से झांका एवं भोगा है। इस संग्रह को ‘चोर कौन’, ‘नीयत’,‘साकार स्वप्न’, ‘दया का अहसास’ हेतु स्मरण किया जाता है।
लघुकथा–लेखिकाओं में चित्रा मुद्गल निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण नाम है। कहानीकार एवं उपन्यासकार होते हुए भी इन्होंने पर्याप्त संख्या में लघुकथाएँ लिखी हैं। ‘ऐब’, ‘पहचान’, ‘गरीब की माँ’ इत्यादि इनकी चर्चित एवं प्रतिनिधि लघुकथाएँ हैं, जिन्हें मानक लघुकथाओं की श्रेणी में सहज ही शामिल किया जा सकता है।
हरियाणा की धरती का भी लघुकथा–जगत को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यहाँ से शमीम शर्मा, इंदिरा बंसल, गार्गी तिवारी, काननबाला जैन, उषा यादव, इन्द्रा स्वप्न रक्षाकमल शर्मा, इंदिरा खुराना, संतोष गर्ग, उषा मेहता ‘दीपा’ इत्यादि महिलाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इनमें इंदिरा खुराना इतनी सतर्क हैं कि नित्यप्रति घट रहीं घटनाओं पर इनकी पैनी दृष्टि रहती है और इन घटनाओं को लघुकथाओं का विषय बनाकर अपने समकालीनों में अपनी विशिष्टता सिद्ध करती हैं। ‘समकालीन लघुकथाएँ’ में प्रकाशित इनकी पाँच लघुकथाएँ–‘विश्वशांति के अग्रदूत’, ‘ये नि:स्वार्थी बेटे’, ‘पराजित मृत्यु’, ‘कुंठा’ और ‘स्वार्थ के संबंध’ को देखा जा सकता है। ऐतिहासिक–पौराणिक पात्रों को लेकर वर्तमान स्थितियों से जोड़कर सार्थक ढंग से प्रस्तुत करना इनकी अतिरिक्त विशेषता रही है। वैचारिक धरातल पर भी इन्होंने इस विधा को समृद्ध किया है। ये एक साप्ताहिक पत्र ‘झरोखा उर्वर’ भी प्रकाशित करती हैं, जिसमें लधुकथाएँ एवं कभी–कभी लघुकथा परिशिष्ट प्रकाशित करके इस विधा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। संतोष गर्ग के लघुकथा–संग्रह ‘अपनी–अपनी सोच’ में सत्तर लघुकथाएँ हैं। संतोष हिन्दी एवं पंजाबी दोनों भाषाओं में इस विधा को समृद्ध कर रही हैं। इसी धरती से डॉ. शील कौशिक भी एक उल्लेखनीय हस्ताक्षर हैं। सन् 2004 ई. में इनका लघुकथा–संग्रह पगडंडी पर पांव’ प्रकाशित हो चुका है।
विगत दो दशकों से इस विधा में अपना योगदान देती रही लेखिका निर्मला सिंह धीरे–धीरे अपनी पहचान बनाने में सफल हो रही हैं। इनके दो लघुकथा–संग्रह ‘बबूल का पेड़’ एवं ‘साँप और शहर’ प्रकाश में आ चुके हैं। निर्मला की लधुकथाएँ प्राय: श्रेष्ठ पत्र–पत्रिकाओं में स्थान बना पाने में सक्षम हो रही हैं। बरेली शहर की अन्य लघुकथा लेखिकाओं मे स्वराज शुचि, कृष्णा खंडेलवाल, पूनम सूद और डॉ महाश्वेता चतुर्वेदी महत्वपूर्ण हैं। पूनम सूद की लघुकथाएँ कभी–कभी ‘हंस’ में भी देखने को मिलती हैं। इनमें डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी को छोड़करअन्य किसी का एकल संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है। डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी का संग्रह ‘सर्पदंश’ सन् 1994 ई. में प्रकाशित हुआ था।
लघुकथा के विकास में बिहार का योगदान सर्वविदित है। यहाँ की महिलाएँ भी पीछे नहीं हैं। अभी हाल में ही बिहार से अलग हुए राज्य झारखंड में डालटनगंज नगर की डॉ. लक्ष्मी विमल का सन् 2000 ई. में प्रकाशित संग्रह ‘सादा लिफाफा’ चर्चा में है। इस संग्रह में इनकी इकसठ लघुकथाएँ संकलित हैं। इनकी लघुकथाओं पर विचार करते हुए डॉ. जगदीश्वर प्रसाद लिखते हैं, ‘डॉ. लक्ष्मी विमल की इन लघुकथाओं में पर्यवेक्षण की सूक्ष्मता भी है और चित्रण की प्रभविष्णुता भी प्रभावित करती है। बिहार के बेगूसराय की सुनीता सिंह का सद्य: प्रकाशित लघुकथा–संग्रह ‘राज नंगा हो गया’ में पचहत्तर लघुकथाएँ हैं। इनकी लघुकथाओं में ठहराव नजर आता है और कुछ में उनके चिंतन–मनन की सीमा। ऐसी लघुकथाओं में प्रमुखत: ‘तरकीब’, ‘औरत’, ‘तीसरा आदमी’ तथा ‘माँ की ममता’ का नाम आसानी से लिया जा सकता है।’ वस्तुत: इनकी लघुकथाओं में ‘राजा नंगा हो गया’, ‘माँ का पत्र’, ‘अहमियत’, ‘शिकार’ श्रेष्ठ लघुकथाएंँ हैं। सुनीता की लघुकथाएँ प्राय: लघु पत्र–पत्रिकाओं में अधिक पढ़ने को मिलती हैं। इसी शहर में स्वाति गोदर भी इस विधा में अपना सक्रिय योगदान दे रही हैं। पटना की डॉ. अनीता राकेश ने भी लगभग दो दर्जन लघुकथाएँ लिखीं हैं ,जो छपरा के एक महाविद्यालय में हिन्दी की व्याख्याता हैं, । इनका कोई संग्रह तो प्रकाश में नहीं आया, किन्तु पत्र–पत्रिकाओं में इनकी लघुकथाएँ प्रकाशित होती रहती हैं। इस विधा के आलोचना क्षेत्र में भी ये सक्रिँय हैं। ऐसा ही पटना का एक नाम डॉ. मनीषा मिश्र हैं, जिन्होंने लघुकथाएँ तो लिखीं, किन्तु संग्रह अभी प्रकाश में नहीं आया है। डालटनगंज की एक अन्य लेखिका श्यामा शरण ने भी पर्याप्त लघुकथाएँ लिखी है।ये अब इस दुनिया में नहीं रहीं । उनका एवं उनके पति डॉ. नागेन्द्रनाथ शरण का संयुक्त लघुकथा–संग्रह ‘लघुकथाएँ: उनकी और मेरी’ सन् 2002 ई. प्रकाश में आ चुका है। इस संग्रह की ‘लेना–देना’, ‘बहू–बेटी’, ‘परिवर्तन’ इत्यादि लघुकथाएँ चर्चा के योग्य हैं।
इनके अतिरिक्त अनेक लघुकथा–लेखिकाएँ हैं, जो एक समय में काफी चर्चित रहीं, आज शिथिल हो गईं। ऐसी लेखिकाओं में निशा व्यास एवं जया नर्गिस का नाम लिया जा सकता है। इनके अतिरिक्त कुछ लेखिकाएँ ऐसी भी हैं, जो निष्किय तो नहीं हैं, किन्तु अपेक्षाकृत कम लिखती हैं। हाँ, जो लिखती हैं, वह श्रेष्ठ लिखती हैं। ऐसी लेखिकाओं में अनन्दिता का नाम आता है, जो अपनी लघुकथा ‘सपना’ के कारण चर्चित हैं। शिमला निवासी आशा शैली की लघुकथाएँ गुणवत्ता की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। ‘पड़ोसी’ लघुकथा तो उनकी पहचान है। सन् 2006 ई. में इनका एक संग्रह ‘ऊमियाँ’ प्रकाश में आकर चर्चित हो चुका है।
नासिरा शर्मा और सुमति अय्यर वस्तुत: कहानीकार हैं। किन्तु इन्होंने लघुकथाएँ भी लिखीं, जो संकलनों में संकलित हैं। नासिरा शर्मा की ‘लू का झोंका’, ‘रुतबा’ तथा सुमति अय्यर की ‘पोस्टर’ लघुकथाएँ श्रेष्ठ मानी जाती हैं।
सुमति अय्यर दक्षिण भारतीय होते हुए भी हिन्दी–कथा के विकास में अपना योगदान कर रही थीं। बिहार के आरा नगर की वयोवृद्ध लेखिका उर्मिला कौल की लघुकथाओं की प्रौढ़ता और गंभीरता स्पष्ट झलकती है। उन्होंने अपनी लघुकथाओं में अपना एक संघर्ष तथा अर्थपूर्ण जीवन जिया है। इनकी एक सौ लघुकथाओं का संग्रह ‘स्वांत: सुखाय’ सन् 2006 ई. में प्रकाशित हुआ था। हापुड़ की कमलेश रानी अग्रवाल का भी एक संग्रह प्रकाशित हैं इसी श्रेणी में प्रियकमल कालविजयिनी, साधना कुमारी, डॉ.सुंभदा पांडेय, शकुंतला कुमारी, रश्मि नायर, सविता, डॉ.सरोज अग्रवाल, पुष्पा कुमारी, इंदिरा कुमारी, वाणी, शशिप्रभा सिन्हा, डॉ. मीना कुमारी, कृष्णा कुमारी, अर्चना शर्मा, सुशीला शील, शशि पाठक, मीना अग्रवाल, ममता अग्रवाल, अलका पाठक, आलमआरा खां, आरती खेड़कर, उषा कुशवाहा, प्रभा दीक्षित, डॉ. पुष्पा कुमारी, पुष्पा सिंह, इरा स्मृति, गीता डोगरा, उर्मि कृष्ण, उषा माहेश्वरी, मनोरमा मोहन, आभा सिंह, आभा पूर्वे, शशिप्रभा शास्त्री, विनीता शास्त्री, डॉ. मंजुलता तिवारी,विमल अहल्यायन, डॉ. स्नेहलता गुप्ता, सुधा अरोड़ा, सुषमा शुक्ल, निर्मला ठक्कर, सुशीला सितारिया, पुष्पा राकेश, शमा खान, पुष्पा जमुआर इत्यादि ऐसी महिला लघुकथा लेखिकाएँ हैं, जो संकलनों में तो दिखाई देती हैं, किन्तु उनके एकल संग्रह आने को हैं। राजस्थान की डॉ. सरला अग्रवाल एक ऐसी अनुभवसिद्ध प्रौढ़ कथा–लेखिका हैं, जिनकी लघुकथाएँ प्राय: पत्र–पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती हैं। सन् 2004 ई. में इनका लघुकथा-संग्रह ‘दिन दहाड़े प्रकाश में आया है , जिसकी भूमिका ’कमल चोपड़ा ने लिखी है। सन्2007 ई. में इनका दूसरा एकल संग्रह भी प्रकाश में आ चुका है।
लघुकथा लेखिकाओं की चर्चा की समाप्ति के क्रम में संकोचपूर्वक कहना चाहूंगी, कि इन पंक्तियों की लेखिका के भी दो लघुकथा संग्रह–‘अंधेरे के विरुद्ध’ तथा ‘छँटता कोहरा’ अब प्रकाश में आ चुके हैं। ‘2004 ई. में प्रकाशित 111 लघुकथा लेखिकाओं की 118 लघुकथाओं के संकलन ‘कल के लिए’ का सम्पादन किया हैं ।अहमदाबाद की डॉ. मालती दूबे इस संकलन की भूमिका में लिखती हैं, –इस संकलन की सभी लघुकथाएँ मिलकर मानव–जीवन एवं वर्तमान समय के प्रत्येक पक्ष को प्रस्तुत करने में सफल हुई हैं।’ तीसरा संग्रह भी प्रकाशनाधीन है। अन्य कई समर्थ लेखिकाएँ ऐसी हैं, जिन्होंने बहुत ही कम लघुकथाएँ लिखकर ख्याति अर्जित की है, उनमें नीलम कुलश्रेष्ठ, ममता भटनागर, अरुण बाला वर्मा, मंजुला शर्मा, राजश्री मुस्काती (बाद में राजश्री रंजीता), मति मुखोपाध्याय, शैल वर्मा, डॉ. स्नेह मोहनीश, अंजना अशोक, वर्तिका नंदा, इन्दु उषा भास्कर राव, मंजु भारती, रेहाना परवीन, शबनम नीर, साधना कौशिक, अर्चना जाना, डॉ. मीना कुमारी, कृष्णाकुमारी, डॉ. सरोजनी कुलश्रेष्ठ, इति माधवी, सरिता शर्मा,कोमल, प्रज्ञा पाठक,सीमा पांडेय, मधु यास्मीन, सुरभि, मधु गुप्ता, कुंकुम गुप्ता, डॉ. कामिनी, सरस्व मनूचा, सिंधु मोहन, रेखा करतार, मंजुश्री, पूनम सिंह, नीलम राकेश, इन्दु कश्ययप, शांता जैन, रेणुरी अस्थाना, उषा कुशवाहा, शमा खान इत्यादि का नाम सरलता से लिया जा सकता है।
अनेक कई लेखिकाएँ भी इस जगत में आ रही है, जिनकी लघुकथाएँ पढ़कर आश्वस्त हुआ जा सकता है कि लघुकथा का भविष्य उज्ज्वल है और वह सही हाथों में जा रहा है।
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