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हिमाचल का लघुकथा संसार- रतन चंद 'रत्नेश'

लघुकथा आज हाशिये से निकलकर साहित्य की एक सशक्त विधा के रूप में दर्ज होने के बावजूद विसंगति यह देखने में आ रही है कि इसे अंतरंगता में समझने में अभी भी कई त्रुटियाँ हो रही हैं। अंग्रेजी में जहां हिन्दी की कहानी विधा को ‘शार्ट स्टोरी’ कहा जाता है ,वहीं कई लोग लघुकथा को ही ‘शार्ट स्टोरी’ की संज्ञा दे देते हैं। बीसवीं सदी की शुरुआत में जब हिन्दी साहित्य में कहानी अपनी जड़ें जमा रही थीं तब कुछ लेखकों ने आकार में कई छोटी कहानियां लिखीं पर उस दौरान अलग से लघुकथा एक अलग विधा के रूप में अस्तित्व में नहीं आई थी। देश-विदेश की अन्य कई भाषाओं में भी समय- समय पर कथ्य के फलक के अनुसार छोटी कहानियाँ लिखी गई हैं जिसमें भरपूर कथारस है। अपितु आठवें दशक के बाद लघुकथा ने धीरे-धीरे अपनी अलग पहचान बनानी शुरू की और अनगिनत लघुकथाकार उभर कर सामने आए।
अन्य भाषाओं में भी लघुकथा को नयी पहचान मिली। पंजाबी में इसे ‘मिन्नी कहाणियाँ’ कहा गया तो बांग्ला में अनुगल्प। कथा सम्राट मुंशी प्रेम चन्द और रवीन्द्र नाथ टैगोर जैसे स्वनामधन्य लेखकों की भी कई ऐसी लघुकथाएँ हैं, हालांकि उनमें से कई लघुकथा के विद्वानों के अनुसार उस दायरे में नहीं आती। बहरहाल यह एक अलग मुद्दा है, पर यह कहना गलत नहीं होगा कि आज लघुकथा का अपना अलग रंग-रूप है, अपनी प्रासंगिकताहै। इसकी अनेक सृजनात्मक विशिष्टताएँ, विधागत सामर्थ्य और रचनात्मक स्वरूप है। जिस प्रकार एक वृक्ष, एक पौधे और तृण का अपना अस्तित्व है, इसी तरह लघुकथा का उपन्यास , कहानी के बावजूद अपना एक धर्म है। अपने इसी धर्म के कारण यह बेजोड़ प्रभाव छोड़ती है।
उदाहरण के रूप में सआदत हसन मंटो की कई लघुकथाओं को लिया जा सकता है, जो उनकी कहानियों से उन्नीस नहीं ठहरतीं। यह कहना गलत होगा कि इस विधा ने कई लेखकों को स्थापित किया और पहचान दिलायी। लघुकथा के सिंद्धात और भाषा पक्ष पर गंभीरतापूर्वक कार्य करने वाले नागेन्द्र सिंह के अनुसार लघुकथा लघुकथात्मक प्रस्तुति है। इसमें एक मितव्ययी बुद्धिमान की तरह कम से कम वक्यों में कथा को प्रभावी, सार्थक और सोद्देश्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करना होता है। स्व० रमेश बतरा लघुकथा की शक्ति और सीमा को पहचानने पर जोर दिया करते थे। उनका मानना था कि इन दो तत्वों की जानकारी होने पर लघुकथाकार तय कर सकता है कि लघुकथा के ढांचे में चीजों को कहाँ तक और किस तरह ते जाया जाय। उनके अनुसार लघुकथा किखना कहानी लिखने से भी अधिक कठिन है। एक अच्छी लघुकथा लेखन के लिए विधा को बारीकी से जानने और उसे सलीके से बुनने की आवश्यकता है। ...लघुकथा में छोटे फलक पर जटिल अनुभवों के तनावों की अभिव्यक्ति व्यंजना की तीक्ष्ण धार से की जा सकती है. लघुकथा घटना नहीं, बल्कि उसी घटना घटनात्मकता में से प्रस्फुटित विचार है। लघुकथाकार और समीक्षक डॉ. बालेंदु शेखर तिवारी की मानें तो लघुकथा छोटे आकार की वह कथा-केंद्रित विधा है जिसमें समझ और अनुभव की संभवत: सर्वाधिक संश्लिष्ट और सूक्ष्म अभिव्यक्ति संभव है। हिमाचल प्रदेश में ऐसे कई लेखक हैं जिन्होंने अन्य विधाओं में लेखन के साथ-साथ लघुकथाओं में भी हाथ आजमाया। कई कवि, कथाकार, व्यंग्यकार और उपन्यासकार ऐसे हैं जिन्होंने शुरुआती दौर में लघुकथाएँ लिखीं, पर आगे चलकर इससे पूर्णत: किनारा कर लिया और यह सिलसिला ‘उसने कहा था’ कहानी से चर्चित हुए पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के समय से चला आ रहा है। वैसे यह कहना गलत नहीं होगा कि बीती सदी के उत्तरार्द्ध में लघुकथा विधा पर जितनी गंभीरता से लिखा गया, उसका प्रभाव हिमाचल के लेखकों में भी बहुत पड़ा और कई अच्छे लघुकथाकार उभर कर सामने आये। आज उनमें से कई लघुकथाएँ क्यों नहीं लिख रहे या फिर नाममात्र का ही लिख रहे ,यह अलग से शोध का विषय हो सकता है। जो लघुकथाकार समर्पित भाव से लघुकथा लेखन में सक्रिय थे, उन्होंने भी या तो लघुकथा लेखन कम कर दिया अथवा लेखन से विरक्त हो गये। अगर आज भी हिमाचल में पच्चीस से अधिक लघुकथाएँ लिखने वाले लघुकथाकारों की सूची बनाई जाये तो वे पन्द्रह से अधिक नहीं ठहरेंगे। यही कारण है कि 1998 मे प्रकाशित ‘हिमाचल की श्रेष्ठ लघुकथाएँ’(सम्पादक: रतन चंद 'रत्नेश') के बाद कोई भी ऐसा लघुकथा-संग्रह प्रकाश में नहीं आया ,जिसमें हिमाचल के लघुकथाकारों को प्रतिनिधित्व मिला हो। हालाँकि बलराम ने देश के विभिन्न राज्यों की लघुकथाओं के कई कोष प्रकाशित किए पर उनमें भी उन लघुकथाकारों को स्थान नहीं मिल पाया ,जिन्होंने वास्तव में लघुकथा के साहित्यिक दायरे में अच्छी और चर्चित लघुकथाएँ लिखीं। उनसे किसी कारणवश कई ऐसे लघुकथाकार छूट गये ,जिनकी लघुकथाओं को राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में स्थान मिला और कई का अन्य प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। पंजाब से निकलने वाली तथा श्याम सुन्दर अग्रवाल, श्याम सुन्दर दीप्ति और विक्रमजीत सिंह नूर द्वारा सम्पादित ‘मिन्नी’ के प्रयास से समय- समय पर विभिन्न विशेषांकों में हिमाचल प्रदेश की लघुकथाओं को पंजाबी अनुवाद के सौजन्य से स्थान मिलता रहा है। यहाँ तक कि लघुकथा के शोधपूर्ण लेखों में भी पंजाब के विद्वानों ने हिमाचल के लघुकथाकारों को शिद्दत से याद किया है। अन्य कई लघुकथा संग्रहों और पत्रिकाओं-विशेषांकों में भी हिमाचल के कुछ लघुकथाकारों को समय-समय पर प्रतिनिधित्व मिला है। हिमाचल में लघुकथा लेखन में आज जो सबसे अधिक सक्रिय हैं, उनमें सुदर्शन भाटिया का नाम सर्वोपरि है। यहाँ तक कि यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि देश भर में यहीं एक ऐसे लघुकथाकार हैं जिनकी पच्चीस से भी अधिक लघुकथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उन पुस्तकों के नाम हैं----- ‘तूफान’, ‘खंडहर’, ‘सिसकियाँ’, ‘काली लड़की’, ‘घरौंदे में घोंसला’, ‘पश्चाताप की आग’, ‘कुंवारी विधवा’, ‘शिलालेख’, ‘धत्त तेरे की’, ‘मिटटी का माधो’, ‘यू आर गुड’, ‘सॉरी सर’, ‘गुस्ताखी माफ’, ‘काटो तो खून नहीं’, ‘उत्तराधिकारी’, ‘लौटा दो पालकी’, ‘रथ का पहिया’, ‘संकल्प में शक्ति’, ‘कलियुग की लघुकथाएँ’, ‘सुविधा शुल्क’, ‘अपना हाथ जगन्नाथ’, ‘मजदूरों के मसीहा’, ‘तो ये बात है’, ‘दूध का दूध- पानी का पानी’, ‘विश्व गुरु भारत’, ‘आत्मिक शांति’, तथा हाल में प्रकाशित ‘आधुनिक समाज की लघुकथाएँ’, ‘इन्द्रधनुषी लघुकथाएँ’ और ‘पौराणिक-ऐतिहासिक लघुकथाएँ’।। यहाँ यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि सुदर्शन भाटिया भी वही गलती करते आ रहे हैं और हर छोटी रचना, चाहे वह पौराणिक कथा ही क्यों न हो, उसे लघुकथा मान लेते हैं।
भगवान देव चैतन्य की भी लघुकथाएँ अकसर पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती रहती हैं। इस विधा के मिजाज से वे अच्छी तरह वाकिफ हैं। शायद इसीलिए इनकी लघुकथाएँ घाव करे गंभीर की उक्ति को चरितार्थ करने में सक्षम हैं। कहानी-संग्रह और उपन्यास के अलावा उनके तीन लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं----- ‘शब्द-शब्द सोच’, ‘मुर्दे की लकड़ी’ और हाल ही में प्रकाशित ‘कोख का दर्द’। चैतन्य की हिमाचल की मंडियाली बोली में भी एक लघुकथा-संग्रह आया है----- ‘उच्ची धारा रा धुप । जाने-माने लघुकथाकारों में कृष्ण चन्द्र महादेविया का एक लघुकथा संग्रह सन् 1992 में प्रकाशित हुआ था। ‘उग्रवादी’ नामक इस लघुकथा संग्रह में कुल 41 लघुकथाएँ हैं। इनके अलावा रोशन विक्षिप्त और अनिल कटोच के भी लघुकथा संग्रह उन्हीं दिनों प्रकाशित हुए थे और लघुकथाकार के रूप में स्थापित भी हुए। इन दोनों ने लघुकथा को ही अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया पर आज ये दोनों निष्क्रिय हैं और एक तरह से कहा जाए तो इन्होंने लेखन- कार्य ही छोड़ रखा है। बेकारी के दिनों में इन्होंने खूब लघुकथाएँ लिखीं, पर नौकरी मिलते ही उसी में खप गये। रत्न चन्द ‘निर्झर’ की लघुकथाएँ भी मारक हैं। कभी खूब लिखते थे, अब सिर्फ़ पढ़ने का शौक रखा है। कभी-कभी उनके अन्तर्मन से कविताएँ फूट पड़ती हैं। लघुकथाओं का प्लाट लेकर घूमते रहते हैं, यार-दोस्तों को सुना भी देते हैं; पर लिखने में सुस्ती दिखा जाते हैं ।
देश के विभिन्न प्रांतों से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओ और पुस्तकों में जिन लेखकों की लघुकथाओं को समय-समय पर स्थान मिला, उनमें स्व. डा०मनोहर लाल, सुदर्शन वशिष्ठ, आशा शैली, उषा मेहता ‘दीपा’, रतन चन्द ‘रत्नेश’, रत्न चन्द ‘निर्झर’, श्रीनिवास जोशी, भगवान देव चैतन्य, कृष्ण चन्द्र महादेविया आदि नाम उल्लेखनीय हैं। सही मायने में देखा जाये तो जिनकी लघुकथाओं ने कभी ध्यान बरबस खींचा है और जिन्होंने इस विधा को गंभीरता से लिया वे हैं- रजनीकांत, भगवान देव चैतन्य, अनिल कटोच, आशा शैली, उषा मेहता दीपा, रोशन विक्षिप्त, कृष्ण चन्द्र महादेविया, रत्न चंद ’निर्झर’, हिमेन्द्र बाली हिम, मनोहर लाल अवस्थी इत्यादि। इनके अलावा श्रीनिवास जोशी, साधू राम दर्शक, मदन गुप्ता सपाटू, गिरिधर योगेश्वर, प्रभात कुमार, सुरेश कुमार प्रेम, नरेश कुमार उदास, प्रकाश चंद्र धीमान, मोहन साहिल, ओमप्रकाश भारद्वाज, राजकुमार कमाल, कमलेश ठाकुर चम्बावाला, डॉ. प्रत्यूष गुलेरी, मंजीत सहगल, विधि चंद्र विद्यार्थी, डॉ. लेख राम शर्मा, संतोष जसवाल, कुल राजीव पन्त, अमिन शेख चिस्ती, मधु गुप्ता, डॉ. राकेश गुप्ता, अरुण जीत ठाकुर ने भी अन्य विधाओं के साथ यदा-कदा लघुकथा–लेखन कार्य किया है।
इधर कुछेक वर्षो से जो लेखक संजीदगी से लघुकथा लिख रहे हैं, वे हैं विजय उपाध्याय, शबनम शर्मा, विजय रानी बंसल, विनोद ध्रब्याल राही और रामकृष्ण काँगड़िया। इनके अलावा सत्येन्द्र, अवतार सिंह वाजवा, विनय कौशल, प्रताप अरनोट, अरुण गौतम, स्वर्ण दीपक रैणा, हीरा सिंह कौशल, अशोक दर्द, कुलदीप चन्देल आदि भी ध्यान खींचने वाली लघुकथाएँ लिख रहे हैं। यहां यह कहना भी उचित होगा कि कई लेखक लघुकथा के गुण- धर्म को जाने बिना लघुकथाएँ लिखे जा रहे हैं। बोधकथा, प्रेरक प्रसंग, पौराणिक एवं धार्मिक कथाएँ लघु रूप में लघुकथाएँ नहीं होतीं। दुर्भाग्य यह है कि पत्र-पत्रिकाओं के कई सम्पादक भी लघुकथा के मर्म से अनभिज्ञ हैं। फलस्वरूप इस विधा को नुकसान पहुँचाने में उनका भी हाथ रहा है।
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