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सुकेश साहनी की लघुकथाओं में समकालीन संकट
डॉ. शिवनारायण
आधुनिक हिन्दी लघुकथा के समकालीन लेखन को राष्ट्रीय स्तर पर जिन लेखकों ने अपनी रचनाधर्मिता से न केवल पहचान कराई, बल्कि उसे स्थापित भी किया, उनमें बरेली के सुप्रतिष्ठित लेखक सुकेश साहनी भी एक हैं। लघुकथा-लेखन के आठवें दशक के उत्तरार्द्ध में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हुए श्री साहनी ने जिस त्वरा से लेखन आरम्भ किया, वह न केवल अविराम जारी है अपितु अपने अब तक के लेखन-काल में उन्होंने कई पुस्तकें लघुकथा-संसार को दी हैं। कहानी, कविता, बालकथा, लघुकथा सहित अनेक विधाओं में सृजनरत श्री साहनी ने सर्वाधिक ख्याति लघुकथा में प्राप्त की और इस विधा में उनकी ‘‘डरे हुए लोग’’ और ‘ठण्डी रज़ाई ‘प्रमुख है। इन पुस्तकों का पंजाबी तथा ‘‘डरे हुए लोग’’ का गुजराती में भी अनुवाद हुआ। अनुवाद के क्षेत्र में एक और महत्वपूर्ण कार्य उनका है-‘खलील जिब्रान की लघुकथाएँ।’’ उन्होंने अनेक लघुकथा-पुस्तकों का संपादन-कार्य भी किया, जिनमें ‘‘आयोजन’’, ‘‘स्त्री-पुरुष संबंधों की लघुकथाएँ’’, ‘‘महानगर की लघुकथाएँ’’, ‘‘वह पवित्र नगर’’ आदि। सम्प्रति श्री साहनी भू-गर्भ जल विभाग में सीनियर हाइड्रोलॉजिस्ट के पद पर कार्यरत रहते हुए लघुकथा-लेखन में सक्रिय हैं तथा लघुकथा आन्दोलन सम्बंधी गतिविधियों में सक्रिय हिस्सा लेते रहते हैं।
हिन्दी लघुकथा के समकालीन लेखन अर्थात आठवें दशक के उत्तरार्द्व एव नौंवे दशक के पूर्वार्द्व में कथ्य की विविधता, भाशा में संकुल-सौष्ठव, शिल्प-प्रयोगगत वैविध्य मिलते हैं। लेखक पूरी संवेदनशीलता के साथ रिश्ते की बुनावट एवं व्यवस्था की बनावट की विसंगतियों तथा जनजीवन के जटिल प्रसंगों को चित्रित करते नजर आते हैं। इस दौर के लघुकथा लेखन में वस्तु-यथार्थ के दिग्दर्शन में विश्वसनीयता झलकती है। सुकेश साहनी की लघुकथाएँ इस काल की तमाम प्रवृतियों को आत्मसात करती हुई जिन स्वरूपों के साथ पाठकों के समक्ष उपस्थापित होती हैं, उनमें पाठकों को अपने जीवन के विविध रंगों की ही छटा दिखलाई पड़ती है और जिनसे दोनों का तादात्म्य सहज स्थिर हो जाता है। सुकेश साहनी की ‘‘ठंडी रजाई’’, ‘ऑक्सीजन’’, ‘‘खरबूजा’’, ‘‘बिरादरी’’, ‘‘आईना’’, ‘‘चश्मा’’, ‘‘दीमक’’, ‘‘विजेता’’, तथा ‘‘मायाजाल’’ जैसी लघुकथाएँ उदाहरणार्थ सामने रखी जा सकती हैं। इन लघुकथाओं में बहुआयामी जीवन के दीर्घकालिक विस्तार को उसके विविध रंगों में पूरी विश्ववसनीयता के साथ समुपस्थित किया गया हैं कहना चाहिए कि सुकेश साहनी ने जीवन के विविध आसंगों को चित्रित-विश्लेषित करने में जिन मनोवैज्ञानिक पड़ताल के सहारे उस वस्तु-सत्य को उदघाटित किया है, उसका सौन्दर्य प्रभावित करता है। सुकेश साहनी की लघुकथाओं में अन्य कलात्मक पक्षों के साथ रचनाओं का षीर्शक भी ध्यानाकर्षित करता है, क्योंकि वे शीर्षक महज शीर्षक न होकर अपनी प्रतीकात्मक अर्थव्यंजना के सहारे पूरी रचना का प्राण हो जाता है। सटीक एवं पूर्ण व्याप्ति प्रक्षेपणात्मक शीर्षक होने की वजह से इन लघुकथाओं के आस्वादन में सरसता की अभिवृद्धि ही होती है। श्री सुकेश साहनी की जिन लघुकथाओं की चर्चा यहाँ की गई हैं, उसके आलोक में इन रचनाओं के निर्मित्त की गई स्थापनाओं का विनियोग देखा-परखा जा सकता है।
‘‘ग्रहण’’ बाल-मनोविज्ञान से संदर्भित लघुकथा है। एक बच्चा पढ़ाई के वक्त आज लगने वाले सूर्यग्रहण की चर्चा कर उसके बारे में विस्तार से जानने की इच्छा अपने पिता से व्यक्त करना चाहता है, किन्तु उसका पिता उसकी पूरी बात सुने बिना ही लगातार उसे निर्देषित करता है कि वह चुपचाप पढ़े अन्यथा पिट जाएगा। यहाँ बाल-सुलभ जिज्ञासा पर पिता के कठोर अनुशासन का ग्रहण लगना उसकी मानसिकता को कुंठित करता है। इसी मनोभाव का प्रस्तुत लघुकथा सही चित्रांकन करता है। सूर्यग्रहण से बच्चे की मानसिकता पर कुंठा के ग्रहण की लाक्षणिकता से उत्पन्न कथ्य-विस्तार रचना को अत्यन्त प्रभावोत्पादक बना देता है और इसी कारण प्रस्तत लघुकथा का शीर्षक भी अपनी प्रासंगिकता रेखांकित कर जाता है। इसी मनोभूमि की एक दूसरी लघुकथा है ‘‘विजेता’’, जिसमें अपने हिस्से के जीवन को जी चुके एक बूढ़े की कथा है। बूढ़े के कई पुत्र हैं, जो बुढ़ापे में उसे सम्मानपूर्ण तरीके से जीने में सहारा देने से किनारा कर जाते हैं। अन्ततः वह अकेला रहने लगता हैं उसकी दोनों आँखें खराब है। एक आँख पूरी तरह खराब जबकि दूसरी आँख में थोड़ी ही रोशनी शेष है। उस थोड़ी -सी बची हुई रोशनी के भी छीन जाने पर वह किस प्रकार रहेगा, यह सोच-सोचकर वह परेषान रहता है। पड़ोस के एक बच्चे से उसकी दोस्ती होती है और उससे खेल-खेल में ही अपनी खराब आँखों से भी घर में रह लेने का पूर्वाभ्यास कर लेता हैं। अपनी इस जीत पर वह मुग्ध हो उठता है, जबकि खेल में वह अपने बाल-दोस्त से पराजित हो जाता है। पराजय में भी विजेता का अनुभव होने संबंधी यह एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है, जिसके माध्यम से बुढ़ापे के सहारे की तलाश में मिली सफलता की जीत की स्थिति बनती है। बूढ़े का बाल-दोस्त जब अंत में उससे कहता है-‘‘बाबा तुम मुझे नहीं पकड़ पाए.....तुम हार गए......तुम हार गए।’’ तो ‘‘बूढ़े की धनी सफेद दाढ़ी के बीच होठों पर आत्मविश्वास’’ ही उस बूढ़े को सबसे बड़ी जीत है, जिसके लिए हार कर भी वह ‘‘विजेता’’ का अनुभव करता है। समाज में ऐसे असंख्य बूढ़े होंगे, जिनकी भावनाएँ लघुकथा के इस बूढ़े में आत्मसात हो उठती हैं। सशक्त प्रस्तुति (ट्रीटमेंट) एवं भाषा की चारू बुनावट (टेक्सचर) से यह लघुकथा अत्यन्त जीवंत हो गई है।
हर ईमानदार लेखक अपने समय एवं परिवेश से अवष्य प्रभाव ग्रहण करता है। घोटाला दर घोटाला के जिस विद्रूप समय से आज हमारा देश गुजर रहा है, उसके संक्रमण से भला किसी लेखक को रचनाधर्मिता कैसी अछूती रह सकती है? ऐसे में सुकेश साहनी द्वारा भ्रष्टाचार को अपनी लघुकथाओं का विषय बनाया जाना स्वाभाविक ही है। ‘‘दीमक’’ ऐसी ही एक लघुकथा है,जिसमें प्रतीकात्मक तल्ख़ी के साथ कार्यालयीन भ्रष्टाचार को उजागर किया गया है। सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार जो ऊपर से नीचे की ओर प्रवहमान है, की प्रसरणप्रविधि, को प्रस्तुत लघुकथा बारीकी से उकेरती है और जो एक प्रकार से समकालीन जीवन के यथार्थ को ही अपने में समेटती है। लाक्षणिक भाषा के द्वारा दो दृश्य-बंधों के माध्यम से कथा की बुनावट की गई है-एक में साहब को चपरासी से वार्ता, जबकि दूसरे में उनकी छोटे साहब से वार्ता। ‘‘दीमक’’ यहाँ भ्रष्टाचार के संक्रमण का प्रतीक है, जो फाइल-फाइल होते हुए पूरे कार्यालय और फिर एक कार्यालय से दूसरे कार्यालय में फैलते हुए पूरी व्यवस्था को अपने गिरफ्त में लेने को तत्पर है। प्रस्तुत में व्याप्त भ्रश्टाचार को उद्घाटित किया है। श्री साहनी की एक अन्य लघुकथा ‘‘खरबूजा’’ में भी कार्यालयीन भ्रष्टाचार को ही एक नमूना पेश किया गया है, जो ऊपर से तो सतही दिख पड़ता है, किन्तु उसकी जड़ें गहरे फैली हुई हैं। अधिकारियों द्वारा अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए किस प्रकार कार्यालयीन वस्तुओं की मरम्मती के नाम पर वित्तीय हेराफेरी की जाती है और इस हेराफेरी की जड़ें ऊपर से नीचे की तह तक फैली हुई होती है, इसे ‘‘खरबूजा’’ षीर्शक लघुकथा खूबसूरती से पेश करती है।
हमारा वर्तमान समाज जिस अवमूल्यन एवं विघटन के दौर से गुजर रहा है, उसमें जिस-जिस तरीके से सफलता प्राप्त कर लेना ही ध्येय मात्र रह गया है। किन्तु ऐसी सफलता कितनी खोखली होती है, इसे लेखक ने ‘‘आईना’’ षीर्शक लघुकथा में चित्रित किया है। सफलता के शीर्ष पर पहुँच कर भी जीवन का कोई हिस्सा इतना कमजोर होता है कि आत्मपरीक्षण के समय वह सांघातिक हो जाता है। मनुष्य अपनी कथित सफलता का कितना ही जष्न क्यों न मनाए, जीवन की वह कमजोरी ‘‘आईना’’ बनकर आंतरिक पीड़ा पहुँचाती रहती है। इसी स्थिति को ‘‘आईना के माध्यम से उदघाटित किया गया है। अपनी मनुष्यता को खोकर प्राप्त की गई आर्थिक सफलता को ही एक पृथक् कोण से ‘‘बिरादरी’’ शीर्षक लघुकथा में रेखांकित किया गया है। अर्थ-सम्पन्न व्यक्ति का वर्ग-चरित्र भिन्न होता है, जो तमाम रिश्तों से तटस्थ अपनी सम्पन्नता के घेरे में ही संतृप्त होता है-इस तथ्य को प्रस्तुत लघुकथा बहुत खूबसूरती से चित्रित करती है। बाबू जो कभी सीताराम का घनिष्ठ मित्र था, अब अर्थ-सम्पन्न व्यक्ति है और किसी निर्धन से मिलना अपनी हेठी समझता हैं। वह उसकी उपेक्षा करता है, लेकिन जब उसे पता चलता है कि अब सीताराम भी अर्थ-सम्पन्नता को प्राप्त हो चुका है, तो उससे वह अपनी रागात्माकता जाहिर करता है। कथित सफलता अथवा रिश्ते के इस छद्म को बारीकी से उकेरते हुए लेखक ने इस लघुकथा में वर्ग-चरित्र के दोहरेपन का पर्दाफाश किया है।
निरन्तर हादसे दर हादसों से शिकस्त किसी व्यक्ति को अपने गहन नैराश्य के क्षण में जब किसी से हार्दिकता या अपनेपन का भाव मिलता है, तो वह उसके जीने....आगे बढ़ने के लिए किस प्रकार ‘‘आक्सीजन’’ का काम करता है, इसे लेखन ने अपनी कथा ‘आक्सीजन’ में चित्रित किया है। जीवन में उदासी के अनेक ऐसे क्षण आते हैं, जब आगे बढ़ने के तमाम रास्ते बंद-से जान पड़ते लगते हैं, तब किसी की स्नेहिल संगति नए सिरे से जीने की ऊर्जा देती है। प्रस्तुत लघुकथा में ऐसी ही स्थिति का रेखांकन हार्दिकता से किया गया है। इस रचना में शीर्षक प्रतीकात्मक होकर लघुकथा के कथ्य को विस्तार देता है। मानवीय संवेदना का ही विस्तार लेखक की एक दूसरी लघुकथा में ‘‘ठंडी रजाई’’ में भी मिलता है। ऊपर से इस लघुकथा में सेक्स मनोविज्ञान का भ्रम होता है, क्योंकि एक पड़ोसी महिला शरदकाल की आप्तस्थिति में कथा-नायक की पत्नी से जब रजाई माँगने आती है तो रजाई देने से उसे इसलिए सख्त आपत्ति होती है कि उसमें संभोग्य देह की गंध होती है, जिसे किसी को देकर गंध का साझा नहीं किया जा सकता, लेकिन इस लघुकथा के मूल में लेखक ने मानवीय संवेदना को ही स्थापित करना चाहा है। उस सर्द रात में कथा-नायक एवं उसकी पत्नी को नींद नहीं आती। दोनों यथार्थ ठंड की अपेक्षा मनः कल्पित ठंड से अधिक परेशान होते हैं और उससे उन्हें राहत तब मिलती है, जब उसकी पत्नी पड़ोसी को रजाई दे आती है। इस प्रकार, पड़ोसी को रजाई के देने में मानवीय संवेदना का पहलु ही अधिक उजागर होता है, जबकि सेक्स मनोविज्ञान का वाह्य-प्रभाव भ्रम ही सिद्ध होता है। प्रस्तुत लघुकथा में वस्तु-सत्य एवं उसकी संरचना को जिस कौशल एवं सावधानी से रचनात्मक-विकास दिया गया है, वह प्रभावित तो करता ही है, लेखक की सकारात्मक सूझ को भी संकेतित करता है। मानवीय संवेदना की व्याख्या में हिन्दी की श्रेष्ठ लघुकथाओं में ‘‘ठंडी रजाई’’अग्र पांक्तेय सिद्ध होगी।
टी.वी. द्वारा परोसे जा रहे विज्ञापन किस प्रकार मासूम बच्चों को अपनी मायाजालिक गिरफ्त में जकड़ लेते हैं, जिसकी वजह से अभिभावकों की परेषानी भी बढ़ जाती है, इसे लेखक ने ‘‘मायाजाल’’ शीर्षक लघुकथा में चित्रित किया हैं। कोमल बच्चे विज्ञापनों की लुभावनी दुनिया को सच मान उस मायाजाल का आनन्द तो प्राप्त करना चाहते हैं, पर यथार्थ की समझ स्वयं में पैदा नहीं कर पाते। यह पूरे बचपन पर ग्रह की तरह छाता जा रहा है और उसे अंदर खोखला बना रहा है। इसी विडम्बना को लेखक ‘‘मायाजाल’’ में रेखांकित कर उसकी ओर से समाज को सजग करना चाहता है। श्री साहनी की एक लघुकथा है ‘‘चश्मा’’ जिसमें देश को स्वाधीनता का स्वाद दिखाने वाले एक स्वतंत्रता-सेनानी की कथा है। उस वयोवृद्ध स्वतंत्रता-सेनानी ने पराधीन भारत को अपने साहब एवं शौर्य से मुक्ति तो दिलाई, पर स्वतंत्र भारत में वह अपनों के ही स्वार्थ-पाश में बँधता चला गया। उसका अपना ही पुत्र उसकी खराब आँख के बावजूद अपने लिए महज शौक की खातिर मंहगे क्रोमेटिक चश्मे की खरीद करता है और ऐसा उसने अपने ही पिता के स्वतंत्रता सेनानी होने के कारण सरकार प्रदत निःशुल्क सुविधा के एवज में किया। पुत्र द्वारा अपने स्वतंत्रता सेनानी पिता की धोर उपेक्षा का परिणाम है प्रस्तुत लघुकथा, जिसमें पूरी मार्मिकता से स्थितियों का विश्लेषण करते हुए एक स्वतंत्रता सेनानी पिता की व्यथा-कथा को उद्घाटित किया गया है।
समकालीन हिन्दी लघुकथा-लेखन से जुड़कर सुकेश साहनी की रचनाधार्मिता अपने समय, सच एवं परिवेश से सीधा साक्षात्कार करती है तथा समस्त विसंगतियों एवं दलित-पीड़ित मानसिकता से लोहा लेती हुई एक ऐसे मार्ग का संधान करती है, जहाँ मानवोत्थान एवं मानवीय संवेदना की भावना होती है। वास्तव में उनकी सृजनधर्मिता आज की अराजक भीड़ में खोए एक ऐसे आदमी की तलाश है, जो सहज, स्निग्घ, श्रजु एवं छद्ममुक्त हो जाने की कोशिश में हर बार रीतता रहा है और क्षरित होकर भी नव सृजन की आषा में आस्था का सूत्र कभी छोड़ना नहीं चाहता। अपने बहुआयामी रचना-संसार में सुकेश साहनी बारी-बारी सभी दिषाओं की परतों को खोलता है, विश्लेषित करता है और सार की वस्तु को न पाकर आगे बढ़ जाता है.........उसे हर कहीं तलाश होती है मनुष्य की गरिमा को अपनी सम्पूर्णता में प्रतिष्ठित करने वाली उस लुकाठी की, जो नाना झंझावातों में भी प्रज्ज्ववलित हो मनुष्य ता का मार्ग प्रशस्त करती रहती है। उनको प्रायः सभी लघुकथाओं में इसी लुकाठी की ऊष्मा होती है, जिसकी आँच पाठक भी महसूस करते है और अपने को उनकी रचनाओं में विलीन पाते हैं। सुकेश साहनी की रचनाधार्मिता की कदाचित यही शक्ति उसे अपने समकालीनों से अलग करती है। उनकी शक्ति रचना की शक्ति है, जो मनुष्य को उसके छद्म में नहीं, मनुष्य ता में मापती-सँवारती है।
डॉ. शिवनारायण,
(संपादक-नई धारा) इंदिरा नगर, पटना-800001
 
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