जीवनयात्रा में व्यक्ति सुख की साँस लेने के लिए बार – बार बचपन की ओर लौटता है। बचपन के अनमोल रतन ,जैसे -वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी , कंकड़ पत्थर , घरौंदे छिपने – छिपाने के खेल, पानी में किलोल करते क्षणों को कौन याद नहीं करता ! उर्मिकृष्ण की कथा ‘अमानत’ में मकान बदलते समय बच्ची अपने कंकड़ पत्थर समेटने लगती है तो मम्मी झल्लाकर पत्थर फेंक देती है गुडि़या फूट – फूटकर रो पड़ती है । हम बच्चों के भाव -जगत के प्रति संवेदनशील क्यों नहीं है?
क्रीड़ा बचपन की स्वाभाविक वृति है बालमन क्रीडा में रमा रहता है। क्रीड़ा में वह तन्मय हो जाता है ।बचपन से खेल को हटा दो तो बचपन समाप्त हो जाता है। अशोक भाटिया की कथा ‘सपना’ में बालक के जीवन में पढ़ाई ही पढ़ाई है , लेकिन खेल नहीं । खेल तो सपना है ;जो यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के बाद शायद पूरा हो ।
बच्चों के भावजगत में प्रेम प्रमुखता से है , बच्चे प्रेम की भाषा समझते है , कमलेश भट्ट कमल की लघुकथा ‘प्यास’ में मालिक के बच्चे , नौकरानी बालिका गुड्डी के साथ मैत्री भाव से ही जुड़े हैं ;जिसे उसकी मम्मी नहीं समझ पाती । घरौदें के लड़के – लड़की प्रेम डोर से ही बँधे हैं । उनके भाव-जगत में वस्तुएँ भी सजीव हो उठती है। बच्चा और गैंद (विष्णु नागर) में बच्चा ही गेंद से नहीं खेलता , बल्कि गेंद भी बच्चे से खेलने लगती है , बच्चों का लगाव सहज ही व्यक्तियों व वस्तुओं से हो जाता है।
बच्चे अति संवेदनशील होते हैं , दूसरों के दर्द को हृदय तक महसूस करते हैं। च्वीपूड़’ की ‘आँखें’ ऐसी ही एक कथा है जिसकी एक पात्र कहती है कि अगर उसके पास जादुई कूँची होती और उसका सिर्फ़ एक बार ही इस्तेमाल कर सकती तो वह बहुत सी आँखो के सजीव चित्र बनाकर उन सजीव आँखों को मॉं –बाप के दृष्टिहीन सहकर्मियों को भेंट करती ,ताकि उनकी अंधी दुनिया रोशन हो जाए।
‘कैथरीन के लिए’ (रैना एल्स बर्ग) लाई गुडि़या पर हाथ फेरते हुए वह कहती है– इसके बाल मेरी तरह घुँघराले हैं , नाक मुँह भी मेरी तरह है, फिर उसके हाथ गुडि़या की आँखो पर पहुँच जाते हैं ‘भगवान इसे मेरी तरह ‘अधी मत बनाना’ कह कर अँधेरी दुनिया के सच को पाठक तक संवेदित कर देती है।
अक्सर परिवार में माता –पिता के बीच झगड़े होते है। और उनका दंश बच्चों को भुगतना पड़ता है । वे चाहते हैं कि उनके माता –पिता शांति और प्रेम से रहे । उनके झगड़े निपटाने के लिए बच्चे कुछ भी करने को तैयार होते हैं । चाहे इन्हें नदी के पाट पर ‘पत्थर के फूल’(ली छयाओया) ही क्यों न ढूँढने पड़े । अक्सर माँ कहती है कि जब पत्थरों के फूल निकल आएँगे। तब उन दोनों के बीच का झगड़ा समाप्त हो जायगा । इनोसेंट बच्ची क्या जाने कि पत्थरों में फूल नहीं खिलते , लेकिन वह अपने माता –पिता के लिए असंभव को भी संभव कर लेना चाहती है।
बच्चें की संवेदनशीलता मॉं मैं भी ‘मातृत्व’ (अनूप कुमार) जगा देती है। स्कूल के मित्र अपना टिफिन शेयर करते ही हैं लेकिन रोहित की माँ को यह ठीक नहीं लगा ‘मैं इतनी मेहनत करके नाश्ता बनाकर देती हूँ और तू इस आकाश को खिला देता है। रोहित करुणासिक्त स्वर में कहता है ‘इसके मम्मी नहीं है न , उसके घर में खाना नौकर बनाता है ,पर इसका मन मम्मी के हाथ का खाना खाने का होता है।” रोहित के कथन से माँ का ममत्व जाग जाता है , माँ तो थी वह पहले भी, लेकिन मातृत्व उसे आज मिला।
बच्चा अपने ‘जन्मदिन का तोहफे’ (रामकुमार घोटड़) में अपने पिता से सिर्फ़ इतना चाहता है कि आज की रात उसे व माँ को नहीं पीटें। बच्चे की बात सुन पिता का पुत्र के प्रति प्रेम उमड़ आता है और वह बच्चे को गले से लगा लेता है , बच्चे के सहज सम्बोधन में प्रेम की कहीं आहट है ;जो पिता के हृदय को छू लेती है।
समुद्र के किनारे लड़का बार – बार रेत का ‘घरौंदा’ (राजेन्द्र कुमार कनौजिया) बनाता है और घरौंदे पर अपना नाम लिखता है, साथ खेल रही लड़की से पूछता है – क्यों अच्छा बना है न मेरा घर । लड़की प्रत्युत्तर में घरौंदा तोड़ देती है । बार – बार ऐसा करने पर वह पूछता है -“क्यों तोड़ती है मेरा घर? “लड़की ने निर्दोष भाव से उसे देखा , उसकी आँखों में आँसू भर आए । ‘तू इस पर मेरा नाम भी क्यों नहीं लिखता । लड़की के प्रेम संवेदन आपके मन को छू जायेंगे ।
हरिमोहन शर्मा की सिद्धार्थ ’ कथा में बालक घायल पिल्ले को गोद में लेकर पानी पिलाने का प्रयास करता है। बच्चे का स्पर्श पाकर और गले में दो बूँद पानी उतरते ही पिल्ले ने आँखे खोल ली। अब शायद वह मरेगा भी नहीं ।पशु पक्षियों और पेड़ पौधों से भी बच्चों का स्वाभाविक लगाव रहता है । उनके भाव जगत में वयस्क शायद ही पहुँच पाएँ , लेकिन वयस्क होने की प्रक्रिया में उनका भाव जगत कहीं खो जाता है।
बच्चे बचपन में ही वयस्क होने लगते हैं जब उन्हें गरीबी के कारण कमाई करनी पड़ती है। उनका बचपन खो जाता है लेकिन एक आत्मविश्वास भी उनके चेहरे पर झलकने लगता है । सुकेश साहनी की ‘स्कूल’ का ट्रेन में चने बेचने गया बालक तीन दिन बाद लौटा तो उसमें आत्मविश्वास की चमक देखकर माँ हैरान रह गई , कि इन तीन दिनों में उसका बेटा इतना बड़ा कैसे हो गया ? वह रात – दिन उसकी चिंता करती थी। लेकिन अब बेटा उसकी चिंता करता है माँ तुम्हें इतनी रात गये यहॉं नहीं आना चाहिए था ।
बाल श्रमिक (वेटर) एक रुपये की ‘टिप’ (नीता सिंह) पाते ही बिस्कुट खरीद कर खाने लगता है , जो वह लोगों को खाते देख, ललचाई नजरो से देखता था , गरीबी बच्चों का बचपन ही नहीं छीनती , उनकी छोटी – छोटी खुशियाँ भी छीन लेती है।
‘बारात’(रमेश गौतम) में पेट्रोमैक्स का बोझ उठाए दस वर्ष के बालक को बाराती जोर से चाँटा मार देता है – साले सबसे पीछे चल रहा है , मरियल कुत्ते की तरह , देखता नहीं हम यहॉं डांस कर रहे हैंं बालश्रमिक को पग –पग पर अपमानित किया जाता है।
बँधुआ मजूदरी व बालश्रम विरोधी कानून होने के बावजूद कुछ हलकों में यह बदस्तूर कायम है । दस वर्ष के नेतराम को अपने बाप की चिता में अग्नि देने से पूर्व ही उसे उसके बाप का जूता पहनने को कहा जाता है । यानि कल से उसे अपने बाप की जगह पटेल की मजदूरी हलवाही करनी पड़ेगी और तब तक करना पड़ेगा जब तक कि उसकी औलाद के पाँव उसके जूते के बराबर नहीं हो जाते , बँधुआ मजदूरों के बच्चों का बचपन तो काम करते–करते ही होम हो जाता है । (अंतहीन सिलसिला –विक्रम सोनी)
अधिकतर बाल श्रमिक चाय की दुकानों , ढाबों, रिपेयर की दुकानों , छोटे – छोटे उद्योगों में काम करते है। इनके काम के घंटे निश्चित नहीं होते, पैसे भी पूरे नहीं मिलते, जब चाहे काम से भगा दिया जाता है। उनके पास बचपन नहीं, बचपन के ‘सपने’(देवांशु वत्स) होते हैं ईंट- भट्टे पर काम करने वाला बालश्रमिक सपने में बादल , कलरव करते हुए पक्षी , रंगबिरंगे फूलों के इर्द – गिर्द इतराती तितलियाँ , क्रिकेट और करीब से गुजरती रेलगाड़ी को प्रसन्नता से देखता है लेकिन उसका सौन्दर्य- बोध तब आहत होता है जब उसके पिता उसे काम करने के लिए पुकारते हैं।
रामेश्वर काम्बोज की कथा ‘सपने और सपने ‘में बच्चे अपनी अधूरी आकांक्षाओं को पूरा होते देखते हैं रिक्शेवाले का बच्चा कहता है – सपने में मैने खूब डटकर खाया , लेकिन मुझे अभी तक भूख लगी है।
भीख माँगने वाले बालक को लेखिका चित्रा मुद्गल ‘नसीहत’ देती है कि काम करके कमाओ लेकिन बच्चा जब उससे ही काम माँगता है तो पहले तो राजी हो जाती है लेकिन उसके अतीत को जानकर वह टाल जाती है कि कैसे भरोसा करे। लेखिका ने उसे पांच रूपये देकर नसीहत दी कि बूट –पालिश करना
‘’भीख दो दस पैसा’ सीख क्यों देता है , तुम खुदीच हमारा विश्वास नई कर सकता , रखो अपना पैसा” -वह मेरी नसीहत का खोखलापन जब मुझपर ही पटककर सर्र के भीड़ में गायब हो गया। ऐसे बच्चों को अच्छा बनने के लिए कोई अवसर ही नहीं है
भूख और गरीबी बच्चों को भीख माँगने पर विवश कर देती है। ‘रोटी’ (दीपक घोष) मिलने पर वह उसे खा नहीं पाता क्योंकि अगर खा लेगा तो खतम हो जायेगी । भूख के भय से ग्रसित बालक रोटी होते हुए भी उसके खाने का आनन्द नहीं उठा सकता ।
गरीब माँ बच्चे के दौड़ने –कूदने पर एतराज करती है ,तो उसकी सहेली कहती है ‘अरी बहन, बच्चा है दौड़ने कूदने से ‘भूख’ (पारस दासोत) अच्छी लगती है । चिंतित मॉं बोली- दौड़ने कूदने से भूख अच्छी नहीं ,अधिक लगती है
ट्रेन में गाना गाकर भीख माँगने वाले से यात्री ने कहा – मॉं को भीख माँगकर खिलाते हो ?
‘मॉं को उसका बेटा कमाकर नहीं खिलाएगा तो फिर कौन खिलाएगा ? बालक का उत्तर सुनकर लेखक हीरालाल नागर अपने आपको ‘बौना’ समझने लगता है ।
गरीबी बच्चों की छोटी – छोटी इच्छाओं को भी पूरा नहीं होने होती , बच्चों में परिवार की आर्थिक स्थितियों को समझने का सहज बोध होता है , फिर भी बच्चों की इच्छाएँ अपनी जगह है ही ‘बीमार’(सुभाष नीरव) कथा की बच्ची ‘ए’ फोर एप्पल पढ़ रही है , पिता बीमार माँ के लिए एक सेब लाए है। बच्ची अपने पापा से कहती है ‘पापा सेब बीमार लोग खाते है , फिर तुंरत ही कह उठती है -‘मैं कब बीमार होऊगी पापा’ ,यानी सेब खाने के लिए उसे बीमार होने की चाह है।
बच्चे सरल होते है वे भेदभाव , ऊँच –नीच , गरीब – अमीर नहीं जानते । वे जल्दी ही मित्र बना लेते है। धीरे –धीरे उनकी मित्रता गहरी हो जाती है अभिमन्यु अनत की कथा ‘पाठ’ का पात्र हैनरी स्कूल से आते ही माँ से बोला – मम्मी , कल मैंने एक दोस्त को खाने पर बुलाया है ,।मॉं उसे प्रोत्साहित करते हुए कहती है कि वह बहुत सोशल होता जा रहा है । लेकिन मॉं अचानक ही पूछ लेती है -क्या रंग है उस विलियम का । ‘हमारी तरह गोरा या काला ’ हेनरी निराश हो पूछता है ‘रंग का प्रश्न जरूरी है क्या मॉं?
हाँ हेनरी तभी तो पूछ रही हूँ कह कर उसकी माँ उसमें रंगभेद का नस्ली बीज बोने की कोशिश करती है।
सूर्यकांत नागर की लघुकथा ‘विषबीज’ में पिता बच्चे से कहते हैं कि इस दुकान का पानी नहीं पीते क्योंकि यह मुसलमान की दुकान है , हिन्दू – मुस्लिम में भेदभाव का बीज पिता रोप ही देता है।
रोटी का टुकड़ा (भूपिंदर सिंह)’ का बच्चा भोलेपन से कहता है ‘माँ उनके घर का एक टुकड़ा खाकर क्या मैं जमादार हो गया ?
‘और नहीं तो क्या’ माँ ने तपाक से उत्तर दिया। बच्चे के प्रतिप्रश्न ने माँ को निरुत्तर कर दिया। काकू जमादार हमारे घर कई सालों से रोटी खा रहा है तो वह क्यों नहीं बामन हो गया। अछूत और अस्पृश्यता के संस्कार देने की कोशिश व्यर्थ हो जाती है क्योंकि बालक ज्यादा विवेकपूर्ण है।
‘गुरुदक्षिणा’ (रंगनाथ दिवाकर) के शिक्षक जाति भेद व दलित के प्रति घृणा- भाव से भरे है ।वे हरिजन बच्चों को ही दंडित करते हैं ताकि मिडिल पास न कर सके । इस तरह का भेदभाव बच्चों में घृणा व हिंसा के बीज बो देता है।
‘खेलने दो’ (कमल चौपड़ा) में सवर्ण बच्चे दलित बच्चे को नीच -सूअर सम्बोधन कर उसका मखौल उडाकर अपने पारावारिक संस्कारों को ही प्रदर्शित करते है।
रामकुमार आत्रेय की ‘समझ’ में भी पिता जाति भेद के बीज बो रहे हैं बेटे बड़े होकर अफसर बनना चाहते हो कि स्वीपर ? ‘अफसर बनूँगा’ तो फिर स्वीपर के बेटे के साथ खेलना छोड़?
बच्चों के ,खेल मे वयस्कों की दुनिया परिलक्षित होती है , क्योंकि वे सीखते तो अनुकरण से ही है। बलराम अग्रवाल की कथा ‘जहर की जड़े’ परिवार/समाज में ही फैली है बेटी डोली सुबकते हुए कहती है ‘डैडी हमें स्कूटर चाहिए । पिंकी ने पहले तो अपने गुड्डे के साथ हमारी गुडि़या की शादी करके हमसे गुडि़या छीन ली , और अब कहती है दहेज में स्कूटर दो वरना आग लगा दूँगी गूडि़या को।
‘माँ मैं गूडि़या नहीं लूँगी(डॉ. तारानिगम) क्योंकि यह वही करेगी जो मैं करूँगी। , सुलाऊँगी तो सो जाएगी , कपड़े पहनाऊँगी तो पहन लेगी । , डाँटूँगी , मारूँगी तो चुपचाप सह लेगी । ये कोई विरोध नहीं करेगी। माँ मैं ऐसी गुडि़या नहीं लूँगी ; क्योंकि उसे ऐसी गुडि़या नहीं बनना है।
घर –घर खेल रहे थे बच्चे । कपड़े धोए खाना बनाया , अरे भात तो खत्म हो गया इतने सारे लोग आ गए चलो तुम लोग खाओ में बाद में खा लूँगी। तू माँ (प्रबोध कुमार गोविल ) बनी है क्या । घर में माँ सबसे बाद में खाती है। वही बच्चे खेल में भी करते है। ।
मै स्कूल जाऊँगा , रिक्शा में बैठके ’ कहने वाला बंटी स्कूल में जाने से बचने के लिए अँघेरी कोठरी में छुप जाता है , ऐसी जगह जहॉं उसे जाने से भी डर लगता है ‘स्कूल’(श्याम सुन्दर अग्रवाल) क्या कीमिया करता है कि स्कूल उसे डरावनी कोठरी से भी ज्यादा डरावना लगने लगता था।
माता पिता भी स्कूल (सुरेश अवस्थी )को शैतान बच्चो को ठीक करने की जगह समझते है । तभी तो जब बालक शैतानी करता है उसे स्कूल में भरती कराने की धमकी दी जाती है। उसका नन्हा मन सोचता है कि स्कूल वह स्थान है जहॉं हर शैतानी की सजा मिलती है जब उसे स्कूल में प्रवेश दिलवाया जाता है तब वह बच्चों को उठक – बैठक करते देख सहम जाता है और चुपके से भाग जाता है।
‘शिक्षा’ (भगीरथ ) कथा में छात्रों के साथ कठोर व्यवहार चिह्नित करती है शिक्षक के व्यंग्य बाणों से छात्र आहत है। छात्र को स्कूल जहन्नुम- सा लगता है जहॉं उसे पल – पल अपमानित या दंडित किया जाता है। ऐसी स्थिति में एक छात्र स्कूल से भागने की सोचना है , तो दूसरा शिक्षक की अकड़ सीधी करने की बात कहता है। तीसरा , जरा ज्यादा संजीदगी से सोचता है – जहॉं इतनी जलालत हो वहॉं क्या भविष्य बनेगा ? पाँचवा प्रतिक्रियाहीन छात्र कुंठित और ठस्स हो जाता है।
शिक्षा में यह जाना पहचाना सिद्धांत है कि बच्चे खेल – खेल में सीखते है, जिज्ञासा जागृत करने पर भी सीखना आसान है लेकिन हमारे विद्यालयों में ऊँघते अध्यापक शिक्षण- विधि के नये प्रयोग कर रहे है इसकी झाँकी हम ‘हिदायत’ (शैलेन्द्र सागर) में देख सकते है। ‘चल निकाल किताब ,पाठ पढ़’ बालक पाठ पढ़ने लगता है और शिक्षक आँखें बंद किये नींद निकाल रहा है। छात्र पढ़ते –पढ़ते चुप हो जाता है तो शिक्षक ऊँघ से जागते हुए कहता है ‘अरे चुप क्यों हो गया’ बच्चे ने प्रत्युत्तर दिया -सर पाठ समाप्त हो गया।
तो पहाड़ा याद करा । शिक्षक ने कहा । पाठशाला (चन्द्रधर शर्मा गुलेरी) में आठ वर्ष का बालक रटे रटाये प्रश्नों के उत्तर देता है तो प्रधानाध्यापक –पिता का सीना चौड़ा हो जाता है । अतिथि ने उसे आर्शिवाद देते हुए पूछा कि तू इनाम क्या लेगा तो उसने धीरे से कहा लड्डू। पिता निराश हो गये लेकिन अतिथि प्रसन्नता हो गए कि बच्चे का बचपन बच गया उसने मेडल न माँगकर लड्डू माँगा। स्कूल व्यवस्था बच्चो में शिक्षक के प्रति सम्मान का भाव तो पैदा नहीं कर पाती बल्कि प्रतिहिंसा का भाव पैदा कर देती है तभी तो शिक्षा कथा का छात्र शिक्षक की अकड़ सीधी करने की सोचता है और यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ की कथा ‘जिज्ञासा’ का बालक मैं भी अपनी काली मेड़म को उछाल दूँगा वह मुझे डाँटती है।
सभी शिक्षाशास्त्री व मनौवैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि बच्चो को दण्ड नहीं देना चाहिए । अब तो दण्ड के विरूद्ध कानून भी बन गया है। फिर भी स्थितियों में कोई खास परिवर्तन नहीं है। बच्चों के साथ घर या स्कूल में ज्यादा मानवीय तरीके से सलूक किया जाना चाहिए ।
हम बच्चों के साथ प्रेम की भाषा नहीं बोलते , भय और लालच की भाषा बोलने लगे हैं जो व्यक्तित्व के विकास में बाधा उत्पन्न करती है । उसकी सुप्त शक्तियों को खिलने का अवसर नहीं देती । भयभीत व्यक्ति (एक्स्ट्रीम केस) आत्महत्या या हत्या कर सकता है । भयभीत बालक घर छोड़कर भाग जाता है, भयभीत प्रेमी युगल एक साथ आत्महत्या कर लेते हैं हम बच्चों के साथ प्रेमपूर्ण क्यों नहीं है ;क्योंकि हमारी आकांक्षाए , हमारा मान –सम्मान हमें अंधा बना देता है।
शिक्षा व्यवस्था के केन्द्र में शिक्षा है , बच्चे नहीं , और जब तक ये प्राथमिकता बदलेगी नहीं , कोई बड़ा परिवर्तन होने वाला नहीं है। हमें समझना होगा कि शिक्षा व्यवस्था बच्चे के लिए है। बच्चा शिक्षा व्यवस्था के लिए नहीं । अत: उसे ही केन्द्र में रखकर सारे निर्णय लिए जाने चाहिए।
इन कथाओं में ऐसे कई प्रश्न उभरते हैं । जिनपर विचार करना बहुत ही जरूरी है। बच्चों को हम सरल सहज , भेदभाव रहित क्यों नहीं रहने देते ? क्यों इनका जीवन खेल से वंचित हो गया है। क्यों नहीं वे अपने शिक्षकों का प्रेम पाते ? क्यों नहीं हम अनुकरणीय आचरण पेश करते ? क्यों नहीं उनके जिज्ञासा पूर्ण प्रश्नों के उत्तर देते ? क्यों नहीं स्कूल आनन्ददायी शिक्षा का स्थान हो जाते ? भय और लालच के सिद्धांत की जगह कोई अन्य प्रेरणादायक अच्छा सिद्धांत क्यों नहीं खोज पाते ? खेल –खेल में हम शिक्षा कब दे पायेंगे? बालश्रमिकों के प्रति हमारा दृष्टिकोण ज्यादा मानवीय व शोषण रहित कब हो पायेगा ? गरीबी के हालात कब बदलेंगे कि बच्चे का बचपन उन्हें मिल सके । हम बच्चों के भाव जगत को कब समझेंगे ? इन्हीं सब प्रश्नों पर विचार करती है ये कथाएँ।
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