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अध्ययन-कक्ष - डॉ0 सतीशराज पुष्करणा
हिन्दी–साहित्य में लघुकथा का महत्व
डॉ0 सतीशराज पुष्करणा
 
वात्स्यायन ने अपने चर्चित ग्रंथ ‘‘कामसूत्र’’ में चौंसठ कलाओं की विस्तार से चर्चा की है। उन कलाओं में कुछ नेत्र–सुख देने वाली हैं, जैसे चित्र, मूर्ति आदि। कुछ कानों को आनन्द प्रदान करती हैं, जैसे संगीत। कुछ जिहवा को भली लगती हैं जैसे मधु व्यंजन। कुछ कोमल, शीतल, चिकनी वस्तुएँ जैसे पुष्प, वायु आदि त्वचा को आनंद प्रदान करती हैं। कुछ कलाएँ ऐसी भी हैं, जो सुगन्ध आदि प्रदान करती हैं नासिका को भली लगती हैं। किन्तु शेष ऐसी हैं, जो हमारे मन को प्रसन्नता प्रदान करती हैं या हमारे दैनिक जीवन एवं कार्य–व्यवहार में कुशलता, प्रवीणता और योग्यता प्रदान करने वाली हैं। इस दृष्टि से विचार करते हुए यदि हम कला को परिभाषित करना चाहें तो आचार्य सीताराम चतुर्वेदी के शब्दों में इस प्रकार कर सकते हैं–‘‘कर्मेन्द्रियों का वह कौशल पूर्ण नियोजन कला कहलाता है, जो ज्ञानेन्द्रियों को तृप्त करता हुआ मन को प्रसन्न और तुष्ट करता है।’’ इस प्रकार की कलाओं में भी साहित्य ही ऐसी कला है, जो किसी एक इन्द्रिय को तृप्त न करके हमारे मन को तुष्ट करती है, उदात्त तथा नैतिक आदर्शों के द्वारा आत्मा को ऊँचा उठाती है, विवेक की स्थापना द्वारा बुद्धि का परिष्कार करती है, सूक्तियों के संयोजन से वाणी का संस्कार करती है और घटनाओं के नियोजन से व्यावहारिक ज्ञान सिखाती है।
किन्तु कला का उद्देश्य तभी पूर्ण होता है, जब उसमें सुन्दरता, असाधारणता और अद्भुतता में से कोई एक या अनेक गुण तत्त्वों का सम्मिश्रण उपस्थित या आभासित हो।
1.अलंकरण 2. मिश्रण 3.क्रम–सज्जा 4. अनुकरण और 5. कल्पनाभिव्यक्ति। इनमें से वाणी के द्वारा जो कला अलंकरण, मिश्रण, क्रम–सज्जा, अनुकरण और कल्पनाभिव्यक्ति करती है–वही ‘साहित्य’ कहलाती है। किन्तु साहित्य तो मानवीय भावनाओं–क्षेत्र है, जिसकी परिभाषा इस प्रकार दी गई है,
‘‘हृदय भाषा–शैली में अभिव्यक्त अनुभूति ही ‘साहित्य’ है।’’ ‘साहित्य’ श्रव्य शास्त्र है, जो काल या समय में विकसित होता है। इसमें प्रयुक्त होने वाले प्रत्येक शब्द का सार्थक अर्थ होता है, जिसका मानव–व्यवहार पर सामाजिक संस्थाओं का प्रभाव स्पष्ट पडता है। यही कारण है, समाज जितना ही स्वस्थ होगा साहित्य भी उतना ही स्वस्थ होगा। यहाँ यह स्पष्ट करना अनिवार्य है कि साहित्य–सृजन हेतु मात्र बाह्य इंद्रियों का संस्कार ही पर्याप्त नहीं होता–उसके लिए एक ऐसी प्रेरणा–शक्ति वृत्तिा और प्रवृत्ति आवश्यक है, जो अंकुश दे–देकर उत्तेजना प्रदान करती रहे–यह प्रेरणा–शक्ति कुछ और नहीं इन्ट्यूशन यानी स्वान्त: प्रेरणा ही है।
हालाँकि विद्वानों ने साहित्य को परिभाषित किया है, किन्तु इसे गणित या वैज्ञानिक विषयों की तर्ज पर हू–ब–हू परिभाषित करना असंभव है। साहित्य भी जैविकों की तरह समय के साथ–साथ विकास करता है, और अपना रूप–स्वरूप भी बदलता रहता है। यही कारण है समय–समय पर देशी–विदेशी विद्वानों ने इसे अपने–अपने ढंग से परिभाषित किया है। क्षेनोफ्तेस् ओर हिरेक्लितस ने कहा, ‘‘दर्शन में सत्य और ज्ञान है तथा साहित्य में जनमत का संघर्ष है।’’ किन्तु अरस्तु ने कहा, ‘‘साहित्य अपने समय और समाज का अनुकरण है।’’ और हौरेस के मतानुसार,‘‘साहित्य का उद्देश्य व्यवहार सिखाना, ज्ञान देना और शिक्षा देना है।’’ इनसे थोड़ा आगे जाकर लौंसिनस कहते हैं, ‘‘साहित्य तो ऐसे श्रेष्ठ विचारों की अभिव्यक्ति है, जो हमारे मस्तिष्क को महत्ता की ओर प्रवृत्त करती है।’’ किन्तु साहित्य कोश के अनुसार, ‘‘साहित्य का अर्थ है, शब्द और अर्थ का सहभाव, अर्थात् साथ होना। इस प्रकार सार्थक शब्द मात्र का नाम ‘‘साहित्य’’ है। ‘‘साहित्य’’ को ‘‘शास्त्र’’ एवं ‘‘काव्य’’ का पर्यायवाची भी माना है। साहित्य में मनुष्य की सारी बोधन और भावना चेष्टा समाविष्ट हो जाती है तथा समस्त ग्रन्थ समूह ‘‘साहित्य’’ के अन्तर्गत आ जाते हैं। साहित्य मनुष्य के भावों और विचारों की समष्टि है। यों यदि व्यापक अर्थ में देखें तो साहित्य को ‘‘वाड;मय’’ की संज्ञा दी गई।
साहित्य के विषय में तमाम विद्वानों के मत जानने–समझने के पश्चात् यह बात स्पष्ट हो जाती है कि किसी भी विद्वान का मत गलत नहीं है। किन्तु अधूरा अवश्य ही है। सभी विचारों को मिलाकर यदि इसे परिभाषित करने का प्रयास किया जाए तो साहित्य की परिभाषा कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त होगी कि जो सद्विचार जीवन के यथार्थवादी सत्य, सहज, विश्वसनीय एवं सकारात्मक उद्देश्य को सम्प्रेषणीय अभिव्यक्ति देसके तथा जो पाठक को लेखक के उद्देश्य की ओर बढ़ने हेतु उत्प्रेरित करे और सत्यं, शिवं, सुन्दरं के निकष पर शत–प्रतिशत पूरा उतरे, उसे ‘साहित्य’ कहेंगे।
‘साहित्य’ का जगत् इतना व्यापक है कि इसे समझने हेतु इसके तमाम रूपों, जिसे हम ‘‘भेद’’ या ‘‘विधा’’ भी कह सकते हैं, में विभक्त करके अध्ययन करना होगा। किन्तु मेरी दृष्टि से ‘‘रूप’’ यानी ‘‘फार्म’’ , ‘‘भेद’’ यानी ‘‘काइन्ड’’ और ‘‘विधा’’ यानी ‘‘जेनर’’ है। इस दृष्टि से देखने पर शायद बात अधिक स्पष्ट हो सके।
साहित्य के मूलत: दो भेद– 1. पद्य और 2. गद्य। किन्तु ‘‘साहित्य कोश’’ के अनुसार एक तीसरा भेद भी है ‘‘चम्पू’’ जो वर्तमान में प्रचलन से बाहर है। अत: इसकी चर्चा यहाँ प्रासंगिक नहीं होगी।
स्थूल रूप में पद्य के अन्तर्गत महाकाव्य, प्रबंध–काव्य और मुक्तक, ये तीन रूप हैं। विद्वानों के अनुसार मुक्तक में ही कविता, गीत–नवगीत, गद्य–गीत, गजल, क्षणिका, हाइकु, तांका, हाइबन आदि अनेक विधाएँ आ जाती हैं। गद्य के रूपों में कथा, नाटक, निबंध आदि को शामिल किया गया है। इन रूपों में ‘‘कथा’’ की चर्चा करते हुए अपने अभीष्ट पर आऊँगा। ‘‘साहित्य कोश’’ के अनुसार, ‘‘कथ्’’ धातु से व्युत्पन्न ‘‘कथा’’ शब्द का साधारण अर्थ है ‘‘वह जो कहा जाए।’’ कहने में कहने वाले के अतिरिक्त सुनने वाले के बिना एक क्षण को हम ‘‘बोलने’’ की कल्पना तो कर सकते हैं, ‘‘कहने’’ की नहीं। परन्तु वह सभी कुछ, जो कहा जाए, ‘‘कथा’’ नहीं कहलाता। कथा का विशिष्ट अर्थ होता है, किसी ऐसी कथित घटना का कहना, या वर्णन करना, जिसका निश्चित परिणाम हो। घटना के वर्णन में भी कालानुक्रम आवश्यक है। घटना किसी से भी संबंधित हो सकती है–मनुष्य, अन्य जीवनधारी, पशु–पक्षी आदि तथा जगत् के नाना पदार्थ जिनका अनुभव किया जा चुका है या कल्पित किया जा सकता है। जिस किसी से संबंधित घटना हो, उसकी किसी विशेष परिस्थिति या परिस्थितियों का निश्चित आदि और अन्त से युक्त वर्णन ही ‘‘कथा’’ कहलाता है।
प्रधानत: कथाएँ दो प्रकार की होती हैं– 1. इतिहास–पुराण की कथाएँ, 2. कल्पित कथाएँ। किन्तु वर्तमान में न तो पूर्णत: इतिहास–पुराण की कथाएँ ही सृजित की जाती हैं और न ही वे पूर्णरूपेण कल्पित ही होती हैं। वर्तमान में दोनों का मिला–जुला रूप ही प्रचलित है। ‘‘कथा’’ की अनेक विधाएँ हैं–दन्त कथा, लोक कथा, नीति कथा, बोध कथा, दृष्टांत, प्रेरक प्रसंग आदि। किन्तु वर्तमान में इनका प्रचलन यदि समाप्त नहीं भी हुआ है, तो समाप्त प्राय: ही है। वर्तमान में ‘‘उपन्यास’’, ‘‘कहानी’’, ‘‘आत्मकथा’’, ‘‘संस्मरण’’, आत्मसंस्मरण,‘‘यात्रा–वृत्तांत’’ आदि कई रूप प्रचलित हैं। किन्तु आज जो चर्चा एवं लोकप्रियता के शिखर की ओर धीरे–धीरे बढ़ती जा रही है वह है–‘‘लघुकथा’’। यहाँ मैं उसकी चर्चा ही विस्तार से करूँगा। यही हमारा अभीष्ट भी है।
‘‘लघुकथा’’ के विस्तार में जाने के पूर्व इसकी निकटस्थ विधाओं ‘‘उपन्यास’’ एवं ‘‘कहानी’’ से इसके पार्थक्य बिन्दु को समझ लेना भी अनिवार्य होगा।
उपन्यास वास्तविक जीवन की काल्पनिक कथा है। प्रेमचन्द के अनुसार मैं उपन्यास को मानव–जीवन का चित्रमात्र समझता हूँ। मानव–चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व हैं न्यू इंगलिश डिक्शनरी में उपन्यास की परिभाषा इस प्रकार की गई है–वृहत् आकार गद्य आख्यान या वृत्तांत, जिसके अन्तर्गत वास्तविक जीवन के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले पात्रों और कार्यों को कथानक में चित्रित किया जाता है। कहानी का कथानक अपेक्षाकृत उपन्यास से छोटा होता है। इसके अतिरिक्त इसमें घटना–प्रसंग और दृश्य तथा पात्र और उनका चरित्र–चित्रण अत्यन्त न्यून, सूक्ष्म और संक्षिप्त होता है, वरन् कहानी प्रस्तुत करने में लेखक के दृष्टिकोण से तथा कहानी का वातावरण अर्थात् समस्त कहानी में परिव्याप्त सामान्य मनोदशा से उसके शिल्प–विधान में ऐसी एकता और प्रभावान्विति ओ जाती है, जो कहानी की निजी विशेषता है और उसके रूपात्मक व्यक्तित्व की पृथक्ता प्रकट करती है। ‘‘लघुकथा’’ कहानी की निकटतम विधा है। इसे अंग्रेजी में स्टोरिएट और उर्दू में ‘‘अफसाँचा’’ कहा जाता है। साहित्य–कोश के अनुसार,व्यावहारिक दृष्टि से ‘‘लघुकथा’’ कहानी के छोटे रूप से अपना तात्पर्य रखती है। परन्तु यह कहना कि लघुकथा लम्बी कथा का सार रूप है, नितान्त भ्रमोत्पादक है। लघुकथाएँ वस्तुत: दृष्टान्तों के रूप में विकसित हुई हैं। परन्तु आज इसका अपना अलग अस्तित्व है, अलग पहचान है।’’ लघुकथा में क्षण–विशेष को कथानक बनाकर अपनी बात कही जाती है। इसमें कालान्तर की कोई गुंजाइश नहीं होती। यदि ऐसी स्थिति आ भी जाती है, तो उसे ‘‘पूर्व दीप्ति’’ यानी ‘‘फ्लैश बैक’’ के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। आक्रारगत लघुता तथा शैल्पिक क्षिप्रता इसकी अपनी विशेषता है, कारण यह स्थूल से सूक्ष्म की सहज–स्वाभाविक यात्रा है जिसमें इसके शीर्षक तक की अहम भूमिका होती है। कभी–कभी तो पूरी लघुकथा एक बिम्ब के रूप में होती है और उसका शीर्षक ही पूरी लघुकथा को सम्प्रेषित करता है।
उपन्यास, कहानी और लघुकथा को मोटे तौर पर इस प्रकार की समझा जा सकता है। उपन्यास को यदि हम ‘तोप’ मान लें, तो कहानी ‘बन्दूक’ है और ‘माउजर’ लघुकथा हैं तीनों का अपना अलग–अलग उपयोग एवं महत्त्व है। इनका उपयोग कथानक एवं कथाकार के मिजाज पर निर्भर है। उपन्यास में जो लचीलापन है, बंधनहीनता है, वह कभी कोई भी रूप धारण कर सकता है। इसमें एक युग, एक जीवन तक की कथा का सहज समावेश हो सकता है। कहानी में पूर्व निश्चित प्रभावन्विति सबसे अधिक महवपूर्ण है, इसी के द्वारा कहानी में एकात्मकता (यूनिटी) आती है, अत: कहानी में कुछ भी ऐसा नहीं होना चाहिए, जो इस प्रभावन्विति में सहायक न हो। ‘लघुकथा’ में कहानी की अपेक्षा क्षिप्रता अधिक होती है और इसमें फालतूपन की कहीं कोई गुंजाइश नहीं होती। कहानी की अपेक्षा इसमें पात्रों की संख्या तथा कालावधि कम होती है। इसमें कथानक इकहरा और सरल होता है। एकान्विति इसकी अतिरिक्त विशेषता है। आकारगत लघुता के कारण कभी–कभी बहुत लम्बी बात कहने में हम संकेतों एवं विराम–चिों से काम लेते हैं। प्रत्यक्षत: इसका फलक कहानी से छोटा होता है, मगर इसका प्रभाव कहानी से कम नहीं होता है। इस लघुआकारीय विधा में भी बड़ी–बड़ी बातों कही जा सकती हैं–आवश्यकता है कुशल कथाकार की।
हिन्दी–लघुकथा का उद्भव अब तक हुए शोधों के अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी का आठवाँ दशक माना जाता है। यह अलग बात है उस काल में यह विधा ‘‘लघुकथा’’ नाम से नहीं जानी जाती थी। 1875 ई0 में आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित ‘‘परिहासिनी’’ नामक कृति प्रकाश में तात्कालिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर छोटी–छोटी कथा–रचनाओं में व्यंग्य का चीरा लगाया गया था। भारतेन्दु का प्रभाव था और दूसरी पर खलील जिब्रान की धीर–गंभीर एवं पैनी लघुकथाओं का असर था। भारतेन्दु की धारा बहुत विकसित नहीं हो सकी, किन्तु खलील जिब्रान की धारा को विकास दिया जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, पद्मलाल पुन्ना लाल बक्शी, जगदीश चन्द्र मिश्र, कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, विष्णु प्रभाकर आदि जैसे अनेक कथाकार हैं, जिन्होंने जाने–अनजाने इस विधा के विकास में अपना उल्लेखनीय योगदान देकर इस विधा के महत्त्व को सिद्ध किया, कि जो बात उपन्यास, कहानी या अन्य विधाओं में वांछित प्रभावकारी ढंग से नहीं कहीं जा सकती, उसे इसी विधा में सुविधा एवं प्रभावकारी ढंग से कहा जा सकता है और उन्होंने छिट–पुट लघुकथाएँ लिखीं किन्तु वह बात नहीं बन पाई। यों चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ एवं प्रेमचन्द्र ने भी लघुकथाएँ लिखीं।
1942 ई0 में ‘‘हिन्दी–साहित्य–साधना की पृष्ठभूमि’’ में पहली बार बुद्धिनाथ झा ‘‘कैरव’’ ने इस प्रकार की छोटी कथाओं को ‘‘लघुकथा’’ नाम से संबोधित किया। उसी पुस्तक में इसे परिभाषित भी किया। इसी परिभाषा का फिर थोड़े–से–हेर–फेर के साथ लक्ष्मी नारायण लाल ने ‘‘साहित्य कोश’’ में प्रस्तुत किया। उपयु‍र्क्त वर्णित प्राय: सभी साहित्यकार अन्य–अन्य विधाओं के ख्यातिलब्ध रचनाकार थे। इन रचनाकारों के बाद रामेश्वर नाथ तिवारी, श्यामनन्दन शास्त्री, भवभूति मिश्र, मधुकर गंगाधर, रावी आदि ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया और सातवाँ दशक आते–आते डॉ0 सतीश दुबे, आदर्श, कृष्ण कमलेश, डॉ0 त्रिलोकी नाथ व्रजबाल, शशि कमलेश आदि ने इस विधा को नए आयाम देते हुए भारतेन्दु–परम्परा को पुनर्जीवित किया। 1974–75 में पूरे देश में अफरा–तफरी का माहौल व्याप्त हो गया। प्रेस पर सेंसरशिप लागू हो गई। ऐसी स्थिति से साहित्य भी प्रभावित हुआ। परिणामत: ‘‘गजल’’ और ‘‘लघुकथा’’ अपने लघु आकार एवं पैने व्यंग्यात्मक तेवरों के कारण पाठकों के मध्य अपना स्थान बनाने लगीं। ‘लघुकथा’ अपने पैने व्यंग्य के कारण पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त करने लगी। सातवाँ दशक लघुकथा–जगत् में पुनरुत्थान काल के रूप में जाना गया और आठवाँ दशक स्थापना–काल के नाम से विख्यात हुआ। नौवाँ दशक आते–आते तो लघुकथा–लेखकों की बाढ़ आ गई। ‘‘मिनीयुग’’, ‘‘लघुकथा’’, ‘‘लघुआघात’’, ‘‘दिशा’’, ‘‘काशें’’, ‘‘लकीरें’’, ‘‘ललकार’’ जैसी कतिपय पूर्णत: लघुकथा को समर्पित पत्रिकाएँ निकलने लगीं। ‘‘सारिका’’ ने तो कई लघुकथांक भी प्रकाशित किए। ‘‘तारिका’’ बाद में ‘शुभ तारिका’ का लघुकथांक भी चर्चा में आया। इसके बाद तो देश की प्राय: साहित्यिक पत्र–पत्रिकाओं ने लघुकथांक एवं परिशिष्ट प्रकाशित किए। ऐसे काल में लघुकथा ने जहाँ विकास किया, वहीं ‘लघुकथा’ के नाम पर कुछ ऐसी रचनाएँ भी प्रकाश में आईजिससे इसकी लोकप्रियता प्रभावित हुई। कारण ‘लघुकथा’ के नाम पर कुछ भी छपने लगा। प्रत्येक लघुकथाकारीय रचना लघुकथा के नाम से प्रकाशित होती दिखाई पड़ने लगी। कथ्यों को लघुकथा को अनिवार्यता माना जाने लगा। व्यंग्य जबरदस्ती ठूँसने से रचनाएँ प्रभावहीन होने लगीं। ऐसे में कुछ कथाकारों ने व्यंग्य–विहीन लघुकथाओं का सृजन आरंभ किया। अब व्यंग्य लघुकथा की अनिवार्यता नहीं रह गया था। रचनाओं के स्तर के मामले में नौवाँ दशक लघुकथा के सुनहरे दशक के रूप में जाना गया। परिणामत: लघुकथा विधाा के रूप से स्थापित हो गई। बाढ़ का पानी उतरा और छद्मवेशी लघुकथा–लेखक लघुकथा–जगत् से हट गए और लघुकथा से कई बड़े लेखक, राजेन्द्र यादव, रमेश बतरा, सुरेन्द्र मन्थन, पूरन मुद्गल, संजीव, श्रीनाथ, मनीष राय, सुनील कौशिश आदि भी लघुकथा से जुड़े और लघुकथा के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जगदीश कश्यप, कमल चोपड़ा, विक्रम सोनी, सतीश राठी, डॉ0 स्वर्ण किरण, डॉ0 शंकर पुणतांबेकर, कमलेश भारतीय, सुकेश साहनी, शकुंतला किरण, बालेन्दु शेखर तिवारी, भारत यायावर, डॉ0 अशोक भाटिया, पूरन मुदगल्, युगल, महेन्द्र सिंह महलान, रमेश चन्द्र छबीला, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘‘बंधु’’, कृष्णानंद कृष्ण, नरेन्द्र प्रसाद ‘‘नवीन’’, अंजना अनिल, नीलम जैन, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, बलराम, डॉ0 रामनिवास मानव, बलराम अग्रवाल, रमेश बतरा, पृथ्वीराज अरोड़ा, कृष्ण शंकर भटनागर, पवन शर्मा, नंदल हितैषी, भगीरथ, चन्द्र भूषण सिंह ‘‘चन्द्र’’, रूप देवगुण, परमेश्वर गोयल, सिद्धेश्वर, डॉ0सच्चिदानंद सिंह ‘साथी’, डॉ0 अनीता राकेश, अशोक मिश्र, मुकेश शर्मा, आलोक भारती, राजकुमारी शर्मा ‘राज’, कृष्ण मनु, राजकुमार निजात, तारिक असलम तस्नीम, मोइनुद्दीन अतहर, अतुल मोहन प्रसाद, शराफत अली खाँ, कालीचरण प्रेमी, पुष्पा रघु, डॉ0 राम कुमार घोटड़, डॉ0 प्रताप सिंह सोढ़ी, डॉ0 उर्मिला अग्रवाल, इंदिरा खुराना, निर्मला सिंह, डॉ0 मिथिलेश कुमारी मिश्र, डॉ0 उपेन्द्र प्रसाद राय, पूरन सिंह, वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज, चैतन्य त्रिवेदी, शमीम शर्मा, सुनीता सिंह, पुष्पा जमुआर, डॉ0 लक्ष्मी विमल, उर्मिला कौल, विनम्रता से कहना चाहूँगा कि इन पंक्तियों के लेखक डॉ0 सतीशराज पुष्करणा ने भी यथाशक्ति–यथासंभव जो भी बन पाया, लघुकथा के विकास के लिए पूरी निष्ठा से कार्य किया। इन सभी के समर्पण भाव से लघुकथा के हित एवं विकास में कार्य करके आज इस योग्य बनाया कि विभिन्न विश्वविद्यालयों में लघुकथा पर लगभग दो दर्जन से अधिक शोध–कार्य हो चुके हैं। इसका प्रभाव अन्य भाषाओं पर भी पड़ा। क्षेत्रीय भाषाओं में भी लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं। एक–दूसरी भाषाओं में अनुवाद–कार्य भी धड़ल्ले से हो रहे हैं।
विधा को विकास प्रदान करते जबलपुर, जलगाँव, धनबाद, राँची, बोकारो, सिरसा, गाजियाबाद, दिल्ली, बस्ती, कोइलवर, फतुहा, रायपुर, बरेली के अतिरिक्त पटना में तो 1988 से प्रत्येक वर्ष लघुकथा–सम्मेलन हो रहे हैं। इस वर्ष 23 वाँ लघुकथा सम्मेलन पटना के बिहार राज्य माध्यमिक शिक्षक संघ भवन में दिनांक 12 दिसंबर 2010 को सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ जिसमें देश के कोने–कोने से लगभग 150 लुकथा–लेखकों ने भाग लिया।
लगभग सात सौ एकल लघुकथा संकलन, लगभग पाँच सौ से ऊपर संपादित लघुकथा–संकलन तथा लगभग तीन दर्जन लघुकथा–आलोचना की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कई–कई लघुकथाओं के मंचन हो चुके हैं। दूरदर्शन एवं आकाशवाणी ने भी लघुकथा ने महव को स्वीकार करते हुए कार्यक्रम प्रस्तुत किए हैं। देश भर में असंख्य लघुकथा–गोष्ठियाँ, संगोष्ठियाँ के आयोजन भी हुए हैं जो कि महवपूर्ण कार्य हैं। अनेक शहरों में लघुकथा–पोस्टर एवं पुस्तक–प्रदर्शनियों के भी आयोजन हुए हैं।
आज देश की प्राय: छोटी बड़ी सभी पत्र–पत्रिकाएँ इस विधा को ससम्मान प्रकाशित कर रही हैं। हिन्दी–लघुकथा कोश, भारतीय लघुकथा कोश (दो भागों में) विश्व लघुकथा कोश (चार भागों में) प्रकाशित हो चुके हैं। देश के विभिन्न राज्यों की सरकारों द्वारा इस विधा की पुस्तकों को प्रत्येक वर्ष सम्मानित एवं पुरस्कृत भी किया जाता है। ‘‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’’, ‘‘अ0 भा0 भाषा साहित्य–सम्मेलन’’, ‘‘साहित्य संसद’’, ‘‘अ0 भा0 प्रगतिशील लघुकथा मंच’’ हिन्दी–प्रसार प्रतिष्ठान, पीयूष साहित्य परिषद्, संभावना इत्यादि जैसी संस्थाओं द्वारा भी इस विधा के लेखकों को सम्मानित किया जाता है।
बिहार उत्तर प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, दिल्ली के पाठ्यक्रमों में भी लघुकथा को शामिल किया गया है। इतना ही नहीं, देश की ख्यातिलब्ध साहित्यिक पत्रिकाएँ ज्योत्स्ना, नई धारा, वीणा, संकल्य, पुन: नालंदा दर्पण, कुन्दनशील, कथाघाट, प्राच्य दर्पण, युवा रश्मि, अवसर, हरिगंधा युद्ध, ‘विकल्प, व्योम, समय सुरभि अनंत, परिधि से बाहर, आरोह–अवरोह आदि अनेक पत्र–पत्रिकाएँ भी अपने अंकों में इस विधा को प्रकाशित करती हैं । किसी भी विधा के लिए इससे अधिक महत्त्व की और क्या बात हो सकती है!
देश के प्राय: सभी दैनिक समाचारपत्र सरकारी पत्र–पत्रिकाएँ तक लघुकथा को ससम्मान प्रकाशित कर रहे हैं। लघुकथा को अभी विकास की लम्बी यात्रा तय करनी है। इसका भविष्य बहुत ही उज्ज्वल है। नित्य–प्रति इसके पाठकों एवं लेखकों की संख्या बढ़ ही रही है। लघुकथा के महव का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है। कि सुरेन्द्र प्रसाद सिंह जैसे ख्यातिलब्ध उपन्यासकार भी अपनी लगभग साठ वर्ष की साहित्य–साधना के बाद इस विधा के महत्त्व को महसूस करते हैं और लघुकथा–सृजन आरंभ कर देते हैं। वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह अनुमान सहज की लगाया जा सकता है कि निकट भविष्य में अन्य अनेक विभिन्न विधाओं से जुड़े अन्य लब्धप्रतिष्ठ लेखक भी लघुकथा के विकास में अपना योगदान देना आरंभ कर देंगे।
निष्कर्षत: मैं कहना चाहता हूँ कि साहित्य का मूल उद्देश्य–आदमी को आदमी बनाए रखना है। आदमी को आदमी से प्रत्येक स्तर पर जोड़ना है। अपने दायित्वों और अधिकारों के प्रति उसे सचेत करना है। उसे टूटने एवं तोड़ने से बचाना है। उसे उस दिशा की ओर चलने हेतु उत्प्रेरित करना है, जिधर वस्तुत: एक आदमी को जाना चाहिए। ऐसे में लघुकथा सोए हुए व्यक्ति को उसकी आँखों में उँगली डालकर जगाती हैं उसे सतर्क एवं सचेष्ट करती है कि वर्तमान में क्या हो रहा है! लघुकथा चूँकि आकार में अपेक्षाकृत छोटी होती है, अत: इसमें अन्य विधाओं की अपेक्षा तेजी, पैनापन और गति अधिक होती है। कम–से–कम समय में कम–से–कम शब्दों में बिना किसी तामझाम के बिना किसी लाग–लपेट के, अपनी बात को सीधे कहने में विश्वास करती है। आज जबकि आर्थिक युग है–पैसा ही आज सब कुछ हो गया है। आज पैसा ही बेचा जा रहा है, पैसा ही खरीदा जा रहा है। आदमी के आपस संबंध, रिश्ते–नाते टूटते जा रहे हैं, बिखरते जा रहे हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति और उसके कारण उपजी अपसंस्कृति ने वर्तमान समाज को बुरी तरह से जकड़े लिया है। बची–खुची कमी को टी0वी0, केबिल एवं अन्तरजाल संस्कृति ने पूरा कर दिया है। आदमी अधिकाधिक अर्थोपार्जन के चक्कर में यंत्र मात्र बन गया है। ऐसी स्थिति ने उसके पास समयाभावकर दिया है। बौद्धिक वर्ग भी आज इस संक्रामक रोग से अछूता नहीं रह गया है। समयाभाव के कारण वह भी मोटे–मोटे ग्रन्थ या लम्बी–लम्बी रचनाएँ पढ़ने का समय नहीं निकाल पा रहा है। दूसरी बात अपनी अधीरता के कारण वह रचना का अध्ययन करते ही तुरन्त किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहता है। ऐसे में लघुकथा ही ऐसी विधा है, जो उसे राहत देती है। छोटी–छोटी कथाओं को वह आराम से चलते–फिरते भी पढ़ लेता है उससे अपना सरोकार स्थापित कर लेता है। आज समाज में व्याप्त जितनी भी असंगतियाँ, विसंगतिया या फिर विडम्बनाएँ हैं–उन सारी स्थितियों को अपनी क्षिप्रता एवं पैनी धार तथा तेजाबी तेवर के साथ प्रस्तुत करती हैं और वर्तमान स्थितियों के प्रतिक्रिया स्वरूप मानव–मन के भीतर उपजे आक्रोश को बल देती है और उन स्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करने हेतु जमीन तैयार करती है। आज के संदर्भ में लघुकथा का यही महव है, और यही उसकी प्रासंगिकता भी है और यही उसकी सार्थक भूमिका भी है।
‘लघुकथानगर’,महेन्द्रू, पटना–800006 (बिहार)
मो0–9431264674
 
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