विपिन जैन स्वभाव से प्रतिस्पर्धी लघुकथा लेखक नहीं हैं। घटनाओं के तहत पैदा होनेवाले भाव और विचार से विपिन उद्वेलित तो होते हैं, मगर इतने नहीं है कि वे लघुकथा में नाटकीयता लाने का प्रयास करें। उनमें लेखन का धैर्य है । यही वजह है कि विपिन की लघुकथाएँ मानवीय संवेदना के स्तर पर ही स्पर्श नहीं करती, बल्कि वे पाठक को ‘कथा रस’ का आनंद भी प्रदान करती हैं।
भूमिका ‘लघुकथा : अब तक’ में विपिन ने प्रमुख लघुकथा प्रवक्ताओं के सहारे अपनी बात बहुत साफ तरीके से रखी है। आठवें दशक में लघुकथा के उत्कर्ष और फिर उसके पराभव के कारणों की पड़ताल करते हुए विपिन जैन लिखते हैं : ‘एक सच्चाई यह भी है कि लघुकथा अपने शैशव में ही रचनाओं के जरिए आगे बढ़ने की बजाए ठेकेदारों की लड़ाई में उलझ गई।’ विपिन की यह चिंता अचानक पैदा नहीं हुई है। पिछले दशक से चल आ रहे लघुकथा विवाद के परिप्रेक्ष्य में यह सवाल बार–बार पैदा हुआ है कि लघुकथा का अहित करने वालों में किनके नाम लिये जाएँ? उनके नाम , जिन्होंने लघुकथा के ‘प्लेटफार्म’ को वैयक्तिक वर्चस्व की लड़ाई का साधन बनाया या जिन्होंने लघुकथा को अंशकालिक लेखन का माध्यम माना है। लघुकथा के उत्कर्ष और फिर उसकी गिरावट के बीच के घटनाक्रम की जिन्हें जानकारी है, निश्चित ही वे लघुकथा की राजनीति से क्षुब्य होंगे। इसके बावजूद लघुकथा अपने प्रच्छन्न रूप में जिंदा है। आठवें दशक में ‘सारिका’ ने लघुकथा लेखन की ठोस जमीन तैयार की थी। अब ‘हंस’ और ‘कथादेश’ उस कार्य को अंजाम दे रही हैं। ऐसे वक्त पर ‘मैं समय हूँ’ जैसे लघुकथा–संग्रहों का प्रकाशन भी आश्वस्ति पैदा करता है।
‘मैं समय हूँ’ में विपिन की 56 लघुकथाएँ हैं। मानवीय संबंधों के आसपास रची गई इन लघुकथाओं में लघुकथा में लघुकथा शिल्प का कोई खास आग्रह नहीं है। हाँ, भाषा के प्रति विपिन का रुख काफी सजग व अनुशासित हैं। इस दृष्टि से ‘शहर और सहारा’, ब्याहवली’, ‘दुआ–बद्दुआ’, ‘पाँच रुपए का नोट’, ‘जमाना बदल गया है’, ‘अपने आसपास’, ‘अलग होते हुए’, ‘अदृश्य हाथ’, ‘खाली डिब्बे’, ‘कंघा’, ‘गड्ढा’, ‘सहारा’ और ‘घर का नौकर’ आदि लघुकथाएँ मनुष्य के अंतरंग रिश्तों के बीच पनप रहे तमाम अंतर्विरोधों का खुलासा करती हैं। विपिन जैन की कुछ लघुकथाएँ एक तटस्थ ‘इंवेस्टीगेटर’ की भूमिका शामिल नजर आती हैं। सवाल पैदा होता है कि लेखक को मात्र घटनाओं का प्रस्तोता होना चाहिए या घटना के उद्धाटित होते ही उसकी भूमिका एक दर्शक के रूप में बदल जानी चाहिए? दोनों सवालों का उत्तर नकरारात्मक स्वर में सामने आता है। घटना में व्याप्त सघन मानवीय संवेदना को किसी नए सोच के साथ पाठकों के सामने रखना भी तो लेखक का दायित्व है। विपिन जैन अपने लेखन के दायित्व को शायद नहीं पहचान पाए। यदि यह कहना तर्कसंगत नहीं है तो क्या वजह है कि कुछ लघुकथाएँ केवल घटना–प्रस्तुति के रूप में सामने आती है। उदाहरणस्वरूप ‘ठूँठ रूप’ आदि लघुकथाएँ इस श्रेणी में रखी जा सकती हैं।
विपिन जानते हैं कि आज लघुकथा लेखन को लेकर कोई संवाद नहीं है। इस संवादहीन समय में लघुकथा का अपनी पूरी शर्तो के साथ उपस्थित होना महत्त्वपूर्ण बात है। इसलिए आज लघुकथा के ‘फार्म’ की कोई बात नहीं करता। अपने कथ्य में लघुकथा पाठक के अंतर्मन को प्रभावित करती है तो उसकी सार्थकता सिद्ध हो जाती है। पंचतंत्र, हितोदेश,बैताल पच्चीसी और रावी के परंपरागत शिल्प में आज महत्त्वपूर्ण लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं। शिल्प का यह पुरातन आग्रह आज भी रोचक और प्रभावोत्पादक है, मगर इसका निर्वाह अपनी मूल टैक्नीक में पूर्ण नहीं है तो वर्तमान जीवन की यथार्थ अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर पाना संभव नहीं हो पाता। इस दृष्टिकोण से लघुकथा लेखन की नवविकसित तकनीक ही अधिक कामयाब नजर आती है। ‘ये सहेलियाँ’, ‘मनुष्य का प्यार’, ‘ह्वेनसांग की वापसी’, ‘रुकावट’, ‘आदि लघुकथाएँ संवेदना में खरी, मगर तकनीक में प्रभावहीन लघुकथाएँ हैं।
‘मैं समय हूँ’ संग्रह की एक विशेषता यह भी है कि वह भ्रष्टाचार, नेतागिरी, हवाला कांड, साम्प्रदायिकता और शीलहरण जैसे बहुप्रचलित विषयों पर केंद्रित नहीं है। यह संग्रह मानवीय सरोकारों की ज़मीन पर ठोस आकार ग्रहण कर पाता है । यह बात अलग है कि मानवीय रिश्तों को यह लघुकथाएँ कितनी गहराई से अभिव्यक्त कर पाती हैं। बाद की कुछ लम्बी लघुकथाएँ विपिन जैन के लघुकथा–लेखन पर प्रश्नचिह्न भी खड़ा करती हैं, क्योंकि इनमें कथात्मकता होते हुए भी लघुकथा के तेवर का अभाव नज़र आता है । ये लघुकथाएँ छोटी कहानियों की तरह रोचक तो हैं, मगर लघुकथा की तरह मारक नहीं। ‘मैं समय हूँ’ की लघुकथाएँ व्यंग्य से भी मुक्त हैं। |